Thursday, September 30, 2010

माँ...

आज के दिन हमारे बिहार में एक पर्व मनाया जाता है, " जीवित्पुत्रिका व्रत "..... आम भाषा में कहें तो "जिउतिया" | इस पर्व में माँ अपनी संतानों की मंगलकामना और लम्बी उम्र हेतु उपवास रखती है.... समय के अभाव में कुछ नया लिख नहीं पाया इसलिए दुनिया की हरेक माँ के चरणों में अपनी एक पुरानी कविता समर्पित कर रहा हूँ..... 
मेरी सारी दौलत , खोखले आदर्श,
नकली मुस्कराहट
सब छीनकर,
दो पल के लिए ही सही
मेरा बचपन लौटा देती है माँ...
कभी डाँटकर, कभी डपटकर
कभी माथे को सहलाकर,
अपने होने का एहसास दिलाती है माँ...
जब डरा सहमा सा,
रोता हूँ मैं
मेरे आंसू पोंछकर,
अपने आँचल में छुपा लेती है माँ...
जब रात्रिपहर में निद्रा से दूर
करवट बदलता रहता हूँ मैं,
अपनी गोद में सर रख कर
लोरी सुनाती  है माँ...
परेशान वो भी है अपनी ज़िन्दगी में बहुत,
पर हँसी के परदे के पीछे,
अपने सारे गम छुपा जाती है माँ .......

Thursday, September 16, 2010

नज़्म ...

आज यूँ ही फेसबुक पर घूमते घूमते ये पंक्तियाँ मिलीं, अच्छी लगी इसलिए आपके साथ बांटना चाहूँगा..... 
अगर इन पंक्तियों के बारे में आपको जानकारी हो तो जरूर बताएं.......  


हर ख़ुशी है लोगों के दामन में,
लेकिन एक हँसी के लिए वक़्त नहीं.

दिन रात दौड़ती दुनिया में,
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं.

माँ की लोरी का एहसास तो है,
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं.

सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं.

आखों में है नींद बड़ी ,
पर सोने का ही वक़्त नहीं.

दिल है ग़मों से भरा हुआ,
पर रोने का भी वक़्त नहीं.

पराये एहसासों की क्या क़द्र करें,
जब अपने सपनो के लिए वक़्त नहीं.

तू ही बता ए ज़िन्दगी इस ज़िन्दगी का क्या होगा ,
कि हर पल मरने वालों को जीने के लिए भी वक़्त नहीं....
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