Saturday, December 31, 2011

मेरे साथ चलोगी न....

            ये साल बस अब गुज़र ही जाने वाला है, कितना कुछ है लिखने को लेकिन अपने ही शब्दों में उलझ कर रह गया हूँ... ऐसा लगता है जैसे ढेर सारे शब्द इकठ्ठा हो गए हैं और कलम की नीब पर अटक गए हैं...          
             ख्यालों में अजीब सी कम्पन महसूस हो रही है, वो कुछ जो तुम्हारे अपने साथ होने पर महसूस करता हूँ... सच में कभी कभी जी करता है, तुम्हें यहाँ इस भीड़ से कहीं दूर ले चलूँ, एक ऐसे जहाँ की तरफ जहाँ अक्सर तुम मेरे सपनों में आती हो.. एक ऐसी पगडण्डी पर जहाँ तुमने कितनी ही बार बेखयाली में मेरे हाथों में हाथ डालकर मुझे प्यार से देखा है... एक परिधि है जहाँ डूबते सूरज की आखिरी किरण मेरे इस प्यारे से चाँद को देखकर सकुचाते हुए दिन को अलविदा कर देती हैं, और एक हसीं सी शाम मेरे नाम कर जाती हैं... एक ऐसी आजादी है जब कलेंडर की तारीखें नहीं बदलती, जब दिन के गुज़र जाने का अफ़सोस नहीं होता... ये एक ऐसा जहाँ है जहाँ मुझे हमेशा से ही ये यकीन है कि मेरी इस गुज़ारिश का लिहाफ़ ओढ़े हुए एक दिन जरूर मेरे साथ चलोगी...
             कभी कभी अपनी बातों पर खुद ही हंसी आ जाती है, मैं भी न जाने किन ख्यालों में गुम रहने लगा हूँ, लेकिन इन ख्यालों की बेलगाम उड़ान को न जाने कब से तुम्हारी आखों ने कैद कर लिया है... जैसे कुछ और सोचने-समझने की जरूरत ही नहीं हो... तुम्हारा नाम मेरी ज़िन्दगी की किताब के आखिरी हर्फ़ की तरह होता जा रहा है... ज़िन्दगी में अचानक से बहुत से बदलाव आ गए हैं... अपनी खुशियों से संघर्ष करता हुआ मैं न जाने कब से तुम्हारी खिलखिलाहट में सुकून ढूँढने लग पड़ा.... न जाने कब और क्यूँ चांदनी की परछाईं में भी तुम्हारा ही अक्स तलाशने लगा हूँ.... भोर में सूरज की पहली किरण से ज्यादा जब तुम्हारी एक मुस्कराहट का इंतज़ार रहता है... उफ्फ्फ्फ़.... बस जैसे इन्ही छोटी छोटी खुशियों में अपनी ज़िन्दगी बस गयी है... और ऐसे में बंगलौर का ये मौसम, शायद इन हवाओं से होकर गुज़रते हुए मेरी इस गुज़ारिश की चंद बूदें तुम्हारे वजूद पर भी गिर ही गयी होगी न... उन बूदों को संभाल कर रखना, उनमें मेरे बिखरते हुए सपनों का अक्स दिखाई देगा तुम्हें... मैं ये तो नहीं कहता कि तुम्हारे बिना नहीं जी सकूंगा, लेकिन जिस दिन भी तुमसे दूर हो गया उस दिन से हर पल, हर लम्हा बस अपने उस पुनर्जन्म का इंतज़ार रहेगा जब तुम्हारी और मेरी ज़िन्दगी एक ही साथ अठखेलियाँ करेगी...  उस पुकार का इंतज़ार रहेगा, जब अपने इस तार-तार हो चुके वजूद के बंधनों को उतारकर ताउम्र तुम्हारे सपनों को पूरा करने का अधिकार पा लूँगा... 
            सच कहूं तो मुझे डर लग रहा है.. कभी कभी लगता है कि काश तुम आके मेरा हाथ थाम लो, और कह दो कि तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी... मैं वो इतजार नहीं करना चाहता, जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहूँगा... जाने कितने जन्मों तक अपनी आखों से तुम्हारे इंतज़ार को बहता हुआ देखूँगा...
             कभी मेरे साथ चलना, तुम्हें अपने सपने दिखाऊंगा... वो जो मैंने तुम्हारी यादों को सिरहाने में रखकर देखे थे.. शायद तुम्हें एहसास हो कि तुम्हारे साथ बिताये लम्हों को कितने करीने से संजोते जा रहा हूँ... आगे आने वाले ज़िन्दगी के तन्हा सफ़र में शायद यही लम्हें मेरे साथ होंगे... 
            बस इस जाते हुए साल का शुक्रिया करना चाहता हूँ जिसने मेरे डूबते हुए अस्तित्व को एक बार फिर तुम्हारे होने का एहसास दिला दिया.. मुझे और तुमसे कुछ नहीं चाहिए, बस मुझे ये अधिकार दे दो कि मैं तुम्हें हमेशा खुश रख सकूं... एक सपना, एक गुज़ारिश कि आने वाले सालों और कई ज़न्मों तक तुम मेरे साथ यूँ ही चलती रहोगी, मुस्कुराते हुए, खिलखिलाते हुए... मेरे साथ चलोगी न...

Monday, December 12, 2011

क्यूंकि रद्दी जलाने के लिए ही होती है...

           लिखना कभी भी मेरी प्राथमिकता नहीं रही है, मैं तो ढेर सारे लोगों से मिलना चाहता हूँ, उनसे बातें करना चाहता हूँ...उनके साथ नयी नयी जगहों पर जाना चाहता हूँ.. लेकिन जब कोई आस-पास नहीं होता तो बेबसी में कलम उठानी पड़ती है... ये कागज के टुकड़े जिनपर मैं कुछ भी लिख कर भूल जाता हूँ, मुझे बहुत बेजान दिखाई देते हैं... जब मैं खुश होता हूँ तो वो मेरे गले नहीं मिलते, जब आंसू की बूँदें बिखरना चाहती हैं ये कभी भी मुझे दिलासा नहीं दिलाते... जो कुछ भी लिखता हूँ वो बस मेरा एकालाप है, जिसका मोल तभी तक है जब तक उसको लिख रहा हूँ... उसके बाद वो मेरे किसी काम के नहीं...ऐसा लगता है जैसे डायरी लिखना मेरे लिए ज़िन्दगी से किया गया एक समझौता है... जितनी ही बार कुछ लिखने की कोशिश की है उतनी ही बार खुद की हालत पे रोना आया है... वो ऐसा वक्त होता है जब आसपास तन्हाईयाँ होती हैं, जब सन्नाटे की आवाज़ कानो के परदे फाड़ डालना चाहती है, एक अकेलापन जिससे मैं भागना चाहता हूँ... ऐसे में खुद-ब-खुद कलम हाथ में आ जाती है... उस वक्त मैं अपने हाथ में कागज़ और कलम की छुअन महसूस करता हूँ, शायद कुछ देर के लिए ही सही लेकिन उस एहसास में खुद के अकेलेपन को भूल जाता हूँ...
            अकेला होना या खुद को अकेला महसूस करना इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी ज़िन्दगी में कितने ऐसे दोस्त हैं जो वक्त-बेवक्त आपके पास चले आते हैं और वो सब कुछ जानना चाहते हैं जो कहीं न कहीं कोने में दबा बैठा है... कितने लोग आपकी ज़िन्दगी में वो हक़ जता पाते हैं कि आपकी हर खुशियों को अपने ख़ुशी समझें और हर गम को अपना गम... हर किसी की ज़िन्दगी में कुछ शख्स होते हैं जिनके बस साथ होने से आपको एक सुकून सा महसूस होता है... दोस्ती का रिश्ता सबसे खूबसूरत सा रिश्ता है शायद, जहाँ आप बिना कुछ सोचे बिना किसी झिझक के अपने मन की सारी बातें कर सकते हैं... दोस्ती से ज्यादा वाला रिश्ता तो कोई हो नहीं सकता लेकिन आज की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में कब दोस्त आगे बढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता... कई बार ऐसा होता है कि जब आप ज़िन्दगी के किसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हों और वो दोस्त आपके साथ नहीं होते...
            खैर बात हो रही है इस रद्दी की जो मैं यूँ ही ज़मा करता जा रहा हूँ, बीच बीच में कितनी ही बार इस रद्दी से दिखने वाले पन्नों को ज़ला दिया है मैंने, क्यूंकि ये मुझे किसी काम के नहीं लगते.... वहां से मेरा अतीत झांकता है, एक ऐसा अतीत जहाँ बहुत कम चीजें हैं याद रखने लायक... जो चीजें बीत गयीं उनको क्या याद रखना, उनको क्या पढना... मेरा यूँ रह रह के डायरी जला देना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता, लेकिन उनको समझाना बहुत मुश्किल है मेरे लिए... मैं यूँ बिखरे हुए अतीत के कचरे के बीच नहीं रह सकता... घुटन होती है, खुद पे गुस्सा आता है... जो बहुत ज्यादा अच्छी या बुरी बातें हैं वो तो पहले ही दिमाग और दिल की जड़ों में चस्प हो गयी हैं... काश वहां से भी निकाल के फेक पाता उन बातों को... 
            मुझे ये डायरी नहीं उन लोगों का साथ चाहिए जिनसे मैं बेइन्तहां  मोहब्बत करता हूँ... अगर हो सके तो मुझे बस वो अपनापन चाहिए जिसके बिना किसी का भी जीना या जीने के बारे में सोचना भी बस एक समझौता है ...

Wednesday, November 16, 2011

बस यूँ ही बिखरा बिखरा सा कुछ...

        मैं अपनी दुनिया में खो जाना चाहता हूँ लेकिन इस भीतर की बेचैनी का क्या करूँ ? जब यूँ रास्तों पर कोई अकेला दिख जाता है, ऐसा लगता है जैसे उसे मेरा ही इंतज़ार हो.. शबीना ने एक बार कहा था तुम एक चित्रकार हो जो हर किसी के लिए एक खूबसूरत सपना बनाता है... पता नहीं क्या सोचकर उसके दिल में यह ख्याल आया, लेकिन वो अर्धसत्य मुझे हमेशा कचोटता रहता है, पूरी सच्चाई मैं अब जान पाया हूँ, मैं तो वो बेबस चित्रकार हूँ जो खुद अपने सपने, अपनी ज़िन्दगी में रंग नहीं भर पाता... एक लापरवाह इंसान जो हमेशा अपने बेरंगी, बेढब, बिखरी ज़िन्दगी और सपनों को देखकर आखों के कोर नम कर बैठता है... जो दिन में बेशक हंसने, गाने, मुस्कुराने की कोशिश कर ले लेकिन रातों को अकेला बैठकर खूब रोता है...  ज़िन्दगी की इन तेज हवा के थपेड़ों से लड़ तो लेता हूँ, थोड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन सबके सामने उस दर्द को ज़ाहिर भी नहीं होने देता, लेकिन आसपास अकेलेपन का एहसास होते ही उन थपेड़ों की टीस  का असर महसूस होने लगता है... इंसान कितना भी आशावादी हो, लेकिन जब ज़िन्दगी में कुछ भी सही नहीं हो रहा हो निराशा घेर ही लेती है...
       आखिर कबतक मैं सपने देखता रहूँगा, वो सपने जो सच नहीं हो पाते, कुछ सपने तो बस जैसे छू के निकल जाते हैं..
एक हूक सी उठी मन में कहीं,
इक सपना था जो छू के निकल गया...
       ऐसे मौकों पर जैसे लिखने के लिए कुछ नहीं बच जाता, बस एक ख्याल, एक सोच कि काश हम जान पाते     आखिर कब तक निभाना है इस ज़िन्दगी का साथ, ताकि उस बचे समय में समेट लेते इन ज़िन्दगी के बिखरे टुकड़ों को... न ही आज मैं उदास हूँ और न ही निराश, बस चाहता हूँ एक लम्बा सा एकांत, एक आजादी, एक रिहाई...
थक गया हूँ तेरा साथ निभाते निभाते,
अब बता भी दे और कितनी बची है तू ज़िन्दगी
...
       देखना चाहता हूँ उस परिधि को जहाँ अँधेरे और उजाले मिल जाते हैं, जहाँ अपना और पराया कुछ नहीं होता.. सब बस एक शरीर होते हैं, एक निष्प्राण शरीर... 

Friday, October 28, 2011

तुम्हारी ज़िन्दगी एक बंद कमरा लगती है...

        इन दिनों तुम्हारी ज़िन्दगी में उलझा हूँ, जाने कितनी पहेलियाँ कितने अनकहे से सपने दिखते हैं... अपने आपको जैसे एक बंद कमरे में कैद करके बैठी हो, खिड़कियाँ भी बंद हैं, कोई डर है कि कहीं कोई चुपके से झाँक न ले, कहीं चुरा न ले उन सपनो को... तुम्हें शायद खबर नहीं कि ये कमबख्त आखें सब कुछ कह जाती हैं, कितना ही समझा लो, संभाल लो, झाँकने वाले झाँक ही लेते हैं इन परदों के पीछे... और हम जैसे बदतमीज़ दोस्त तो कभी मौका नहीं छोड़ते न, चाहे कितना भी छुपा लो... 
        जितनी ही बार तुमसे मिलता हूँ, उतनी ही बार तुम्हें तन्हा देखता हूँ, जैसे आस पास की दुनिया से कहीं दूर ही चलती रहती हो... कई बार तुमसे पूछा लेकिन शायद अभी तक तुम्हारे मन में मैं अपने लिए वो भरोसा नहीं जगा पाया हूँ...
        जाने कब तक मुझे यूँ ही दूर रखोगी अपनी ज़िन्दगी से, एक न एक दिन मना ही लूँगा तुम्हें ... तुम भी सोचती होगी अजब पागल लड़का है, लेकिन क्या करें मुझे यूँ बंद किताबों के पन्ने  अच्छे नहीं लगते,  इस अकेलेपन से नफरत सी है मुझे, कुछ ज्यादा ही घुट चूका हूँ इसमें मैं ... इसलिए अब कोई भी अकेला यूँ परेशान सा इंसान अच्छा नहीं लगता... 
         बस इसे मेरी जिद समझो, बेवकूफी या फिर पागलपन... अपने सपने सच करना इंसान के बस में है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ दूसरों के सपनो को पूरा करने में उनकी मदद जरुर की जा सकती है,  और यकीन मानो मुझे इसमें ज्यादा ख़ुशी मिलती है...मैंने कहा था न मुझे दूसरों के सपनो में रंग भरने का शौक है...
         और ज्यादा क्या कहूं, बस यूँ ही तुम्हारी ज़िन्दगी के बंद दरवाज़े पर खड़ा मिलूंगा, जब जी चाहे दरवाज़ा खोल लेना... हाँ थोडा जल्दी करना मुझे ज्यादा इंतज़ार करना अच्छा नहीं लगता, दरवाज़ा तोड़ के भी आ सकता हूँ अन्दर... :)

Monday, October 24, 2011

चलो छोड़ो हटाओ...

                 आज तक इस ब्लॉग पर मैंने प्यार के बारे में न जाने क्या क्या लिखा है, पर आज जाने-अनजाने  में कुछ समझने को मिला है मुझे  | इस दुनिया में प्यार ऐसा कुछ भी नहीं होता, सब बेवकूफी है, बकवास है ... एक मृगतृष्णा है जिसके पीछे हम बेवकूफों की तरह भागते रहते हैं, ये न आज तक किसी को नसीब हुआ है और न ही कभी होगा... हो सकता है आपमें से कई लोग मेरी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हों लेकिन मैंने जितना जाना है शायद यही सच है... हम तो एक बस एक मशीन हैं, बस अपने लिए जीते हैं, अपना फायदा देखते हैं और उस फायदे को कभी रिश्ते, कभी दोस्ती और कभी प्यार का नाम दे देते हैं... ये प्यार-लगाव की बातें सुनने में तो बहुत शायराना ख़याल है, लेकिन ये तो बस एक सपना है और उससे ज्यादा कुछ भी नहीं.... न जाने कितने सालों से सोया पड़ा था मैं भी, शायद एक सपना देख रहा था, उससे जाग गया हूँ... 
                 मैंने सुना था प्यार में बहुत ताकत होती है लेकिन इस बात को एक बार फिर गलत साबित होते हुए देख रहा हूँ, अब कभी इस प्यार से रूबरू नहीं हो पाऊंगा... चलो छोड़ो हटाओ... ज़िन्दगी के कुछ अजीबोगरीब दौर से गुजर रहा हूँ, पता नहीं फिर कुछ लिखने की हिम्मत कब तक जुटा पाऊंगा, पिछले दिनों कुछ दो लाईना लिखी थीं जो फेसबुक तक ही सिमट कर रह गयीं, उन्हें आपकी नज़र रख रहा हूँ...
              कुछ ज्यादा ही मांग बैठे ज़िन्दगी तुझसे हम,
              अब तो बस जीने के दो बहाने दे दे...
              ----------------
              न जाने किस मोड़ पर ले आई है ये ज़िन्दगी,
              मैं रोज वापस जाने का रास्ता ढूँढता हूँ  ...
              ----------------
              हर रोज हम भीड़ में वो चेहरा पुराना ढूँढ़ते हैं,
              जब होते हैं तन्हा तो रोने का बहाना ढूँढ़ते हैं...
                  ----------------
                  रोता खुदा भी है इस दुनिया की हालत पर
              वरना यह बारिश का पानी इतना नमकीन क्यूँ है..

Thursday, September 22, 2011

कहीं आप इस धरती पर आखिरी इंसान तो नहीं...

             बहुत दिनों से इस खामोश दिल ने सुगबुगाहट नहीं की, क्या करें वक़्त बहुत कम ही मिल पाता है और जितना भी मिलता है न शरीर और न ही दिमाग ये इजाजत देता है कि कुछ लिख सकूं... पता नहीं कैसे आज शाम अचानक बैठे बैठे ख्याल आया, कि अगर हमें छुट्टी मिलती है तो हम क्या करते हैं (ये सवाल सिर्फ कुंवारे लोगों से है क्यूंकि शादी शुदा बेचारों के लिए छुट्टी का क्या मतलब है ;))... खैर, मज़ाक नहीं, कैसे बिताते हैं आप छुट्टियाँ ???? लोगों के पास कई जवाब होंगे, मसलन घूमने जाते हैं, घर के बचे काम निपटाते हैं, इंटरनेट करते हैं, हमारे ब्लॉगर दोस्त सारी छुट्टी, ब्लॉग को सरल भाव से समर्पित कर देते हैं.. आदि आदि.... लेकिन फ़र्ज़ करें आप इस धरती पर अकेले इंसान हैं और आपको बोला जाए ७ दिन बिताने को (अरे हाँ, ब्लॉगर दोस्तों से माफ़ी सहित इंटरनेट की सेवा भी हटा ली जाए)... जानता हूँ मुमकिन नहीं, लेकिन फिर सिर्फ एक बार सोच कर देखें, आपके पास टेलीविजन नहीं हो, कंप्यूटर, मोबाईल कुछ भी नहीं हो...सिर्फ आप अकेले एक सुनसान जगह पर, क्या करेंगे ??? रोंगटे खड़े हो गए न....
               अरे नहीं ये कोई ब्लॉग पोस्ट नहीं ये तो बस यूँ ही आपको परेशान करने का दिल किया, अगर आपके पास कोई बेहतरीन उपाय हो छुट्टियाँ बिताने का तो जरूर कहियेगा....  :))

                नोट :- कृपया इस पोस्ट को ज्यादा सीरियसली न लें, मैं तो बस ये चेक कर रहा था कि आप मुझे भूले तो नहीं....

Monday, September 5, 2011

मेरे टीचर तो आप हैं पापा...

             
कहते हैं भगवान् शिव ने एक बार कार्तिकेय और गणेश जी को कहा कि धरती की तीन परिक्रमा करके आओ.. कार्तिकेय तो मोर पर बैठ कर निकल लिए और गणेश जी ने अपने माता-पिता के ही तीन चक्कर लगा कर उनके पैर छू लिए... खैर पता नहीं ये बात कितनी सच है लेकिन जब आज के दिन टीचर्स डे मनाने की बात आती है तो समझ नहीं आता कि किसे-किसे विश करूँ तो इसलिए मैं भी वही कर सकता हूँ... क्यूंकि आपलोगों से अच्छा टीचर तो न मुझे आज तक मिला और न ही मिलेगा... हैप्पी टीचर्स डे माँ, हैप्पी टीचर्स डे पापा.... :-)
जब भी किसी शिक्षक  को याद करने की कोशिश करता हूँ, सबसे पहले आपका ही चेहरा नज़र आता है, आखिर आपकी दी हुई ज़िन्दगी ही तो जी रहा हूँ, न ही उसमे कुछ जोड़ा न ही घटाया... आपका सिखाया हुआ  हर एक सबक याद है, जो ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर काम आयेंगे ही... इस ज़िन्दगी की  किताब के हर एक पन्ने का अस्तित्व बस आपके ही दम से है, जानता हूँ इस बात के लिए कोई भी पिता अपने बेटे का शुक्रिया कबूल नहीं कर सकते हैं, फिर भी वो कहते हैं न जो बात दिल से निकल रही हो उसे रोकना नहीं चाहिए... तो आज यूँ ही बस ये ख्याल हो आया कि आपके गले से लग जाऊं और प्यार से थैंक्स कह दूं, मुझे पता है आप एक हलकी सी चपत लगायेंगे और कहेंगे, पागल हो क्या, इसमें थैंक्स कहने जैसी बात क्या है... फिर भी बस यूँ ही... मेरी ख़ुशी के लिए ही सही थैंक्स कबूल कर लीजिये न...
आपकी छड़ी तो मैं आज तक नहीं भूला, जब भी कभी मैंने कोई गलती की आपकी छड़ी से कभी बच नहीं पाया, लेकिन मुझे मालूम है मेरी पिटाई से मुझे जितनी चोट लगती थी, उससे कहीं ज्यादा आपका दिल भी  तो दुखता होगा...
आखिर वो मेरे भले के लिए तो था, आज भी जब कोई गलती होने वाली होती है तो आपका ख्याल ज़रूर आता है... ये आपके दिए हुए ही संस्कार ही तो हैं जो हमेशा मेरा मार्गदर्शन करते रहते हैं... उम्मीद यही करता हूँ कि आपकी दी हुयी शिक्षा और संस्कारों का मान रख पाऊंगा, और अगर कभी कोई गलती हुयी तो आपकी छड़ी हमेशा मेरे साथ होगी, आप भी ये कभी ये सोच कर हिचकिचायियेगा नहीं कि मैं अब बड़ा हो गया हूँ, आपके लिए तो मैं हमेशा ही वही विक्रम रहूँगा जो हमेशा शैतानियाँ करता रहता था... आपकी छड़ी में छिपे आशीर्वाद के लिए मैं हमेशा तैयार मिलूंगा... आई लव यू पापा...
चलते चलते शिवम भैया की भाषा में कहूं तो, शिक्षक दिवस पर मैं अपने सभी शिक्षकों का पुण्य स्मरण करते हुए नमन करता हूँ | भगवान् उन सब को दीर्घजीवी बनाये  ... ताकि वह सब ज्ञान का प्रकाश दूर दूर तक पंहुचा सकें |

Saturday, August 6, 2011

अबे गधों तुम लोगों की बहुत याद आती है यार...

              कहने को तो कल फ्रेंडशिप डे है. वैसे मुझे नहीं लगता कि कोई अच्छा दोस्त दोस्ती जताने के लिए इस दिन का इंतज़ार करता होगा... अमां यार दोस्ती का भी कोई दिन होता है, हम जैसे आवारा लोग तो हर दिन ही दोस्तों के साथ मटरगस्ती किया करते हैं... बाकी सारे रिश्तों के मामले में थोडा अनलकी ज़रूर रहा हूँ (इस बारे में फिर कभी) लेकिन दोस्तों ने कभी अकेला नहीं छोड़ा... स्कूल से लेकर आज तक न जाने कितने ही आवारा दोस्त मिले हैं (अरे आवारा कहके तो फिर भी बहुत इज्जत दे रहा हूँ, क्यूंकि इससे ज्यादा तारीफ करने पर ये पोस्ट सेंसर बोर्ड की नज़र में आ सकती है)... लेकिन छोटे शहर में रहने का एक नुकसान तो है स्कूल के दोस्त बिछड़ जाते हैं, सब अलग अलग कोने में निकल जाते हैं अपने भविष्य(?) को संवारने के लिए... फिर शायद ही कभी मुलाकात होती हो... आप सोच रहे होंगे अरे नहीं ऐसा कहाँ होता है, हाँ हाँ अब ऐसा नहीं होता... अब तो मोबाइल का दौर है, सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट का दौर है... जो हम जैसे दोस्तों को जोड़े रखता है चाहे हम कहीं भी रहे... ये सिर्फ ऑरकुट का ही चमत्कार है कि स्कूल ख़त्म होने के ७-८ सालों के बाद मेरे सभी स्कूल फ्रेंड्स दुबारा कॉन्टैक्ट में आये जिनसे मिलने की उम्मीद छोड़ ही चुका था... ये काम फेसबुक ने नहीं ही किया होगा किसी के लिए...(थैंक्स ऑरकुट)...
               ये पोस्ट लिखते लिखते स्कूल की बातें फ्लैशबैक की तरह सामने से गुज़र रही हैं (अरे वैसा नहीं जैसा फिल्मों में दिखाते हैं, बैकग्राउंड म्यूजिक एंड ऑल, बस सिंपल सा ही है, लेकिन नोस्टालजिक करने के लिए काफी है)...
               
मेरे माँ-पापा दोनों हीं टीचर हैं, अब आप सोच ही सकते हैं घर पर अनुशासन की कैसी गंगा बहती होगी (पापा ६ साल पहले रिटायर हो गए), इसलिए क्लास ७ तक कभी माँ के स्कूल में या फिर पापा के स्कूल में ही पढाई की, तो वहां ज्यादा आवारागर्दी करने का मौका ही नहीं मिलता था (वैसे उस समय बच्चे बहुत सीधे हुआ करते थे, आज कल के बच्चों की तरह नहीं).. खैर ८ वीं क्लास में आखिरकार एक सरकारी हाई स्कूल में दाखिला हुआ मेरा... और घर से ये सख्त हिदायत मिली कि दोस्ती केवल पढने-लिखने वाले लड़कों से करनी है, मैं भी आज्ञाकारी बच्चे की तरह रोज अटेंडेंस के समय देखता था कि रौल नंबर १-२ किस लड़के का है (आपकी जानकारी के लिए बता दूं हमारी क्लास में करीब २४० स्टुडेंट्स थे, हाँ हाँ सब एक ही क्लास में बैठते थे, क्लास क्या थी, पूरा हॉल था).. आखिरकार ५-६ दिन में पता चल गया कि शुरुआत के १०-१२ पढंदर कौन कौन हैं...जल्दी ही दोस्ती भी कर ली... अब ज़ाहिर सी बात है इतने लड़के हैं तो सबसे आगे की बेंचों पर सीट छेकनी पड़ती थी, क्लास का दरवाज़ा खुलने से पहले ही हमलोग बन्दर की तरह(?) खिडकियों पर झूलकर (कमरा दूसरी मंजिल पर था) आगे की बेंच पर कब्ज़ा जमा लेते थे... हर रोज कोई न कोई पहले आ ही जाता था इस आवश्यक कार्य को अंजाम देने के लिए... आगे के दो बेंच अक्सर हमारे कब्ज़े में ही होते थे, हम मतलब मैं, राहुल, आनंद, विजय(नीकू), मिथिलेश, मुकेश, उज्जवल, सुमन, मनोज, अभिषेक (अगर किसी को भूल रहा हूँ तो प्लीज माफ़ कर देना) :P कुछ दोस्त और थे लेकिन वो कभी भी आगे की बेंच पर नहीं बैठते थे, (यू नो पढने में तेज बैक बेन्चर्स :)) आशीष, अलोक, साकेत, संजीव और मदन.. शायद इस पोस्ट पर  आलोक या आशीष कोई कारण बता दे पीछे बैठने का, हो सकता है कुछ ऐसा ओबजर्व करता हो जो आगे की बेंच से देखना मुश्किल हो :P आशीष से उतनी ज्यादा बात नहीं होती थी, लेकिन फिर भी बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरा, और आज भी बराबर कॉन्टैक्ट में बना हुआ है.. शायद हो सकता है यहाँ कमेन्ट भी कर दे इमोशनल होके... :)
               कभी कभी जब सीट की किल्लत होती थी तब तो हम एक बेंच पर सात लड़के बैठते थे (कैन यु इमैजिन) ... हमारे एक टीचर ने हमारा नाम सप्तऋषि रख दिया था .. :) उस समय हमारे क्लास  टीचर थे सी पी मेहता सर.. अंग्रेजी पढ़ाते थे, अब इतनी बड़ी क्लास में पढाना कोई आसान काम तो है नहीं, हमारे जैसे लुच्चे लड़के तो पहली बेंच पर बैठ के भी गप्पें लड़ाते थे तो आप सोच ही सकते हैं कि पीछे बैठने वाले लड़के क्या नहीं करते होंगे... मेहता सर ने इसके लिए अनूठा तरीका ढून्ढ लिया था, मैं तो अक्सर ही गप्प मारते पकड़ा जाता था, फिर मुझे बेंच पर खड़ा करते थे और बोलते थे फलाना चेप्टर को डिक्टेट करो...और खुद पूरी क्लास में टहलते हुए निगरानी करते रहते थे... न जाने कितने दिन मैं पूरी घंटी बेंच पर खड़ा रहा हूँ...
               बड़े ही मस्ताने दिन थे, इतने सारे लड़कों में से शायद ही कोई पढने जाता होगा, हम तो जाते थे जीने के लिए, खेलने के लिए, एक दूसरे से मिलने के लिए... उन दोस्तों से मिलने के लिए जिनके बिना दिन अधूरा लगता था...ये वो दिन थे जब छुट्टियां अच्छी नहीं लगती थीं... ये वो दिन हैं जो अब लौट कर नहीं आ सकते...
               कुछ भी नहीं भूला हूँ मैं, चाहे वो हर सुबह अपने घर के बाहर आनंद का इंतज़ार करना ताकि उसकी सायकिल पर आराम से बैठ के स्कूल जाऊं, चाहे वो उज्जवल की जिंदादिली या फिर  नीक्कू के पकाऊ जोक्स (finally i am admitting :)) हा हा हा.. :D अरे हाँ सुमन की वो लम्बी जीभ जिसे वो बड़े आराम से नाक तक की यात्रा कराके ले आता था, वो किसी कौतुहल से कम नहीं थी... उफ्फ्फ्फ... वो दिन ... अबे गधों तुम लोगों की बहुत याद आती है यार...  आशीष इसी शनिवार बंगलौर आ रहा है मिलने के लिए, कुछ और पुरानी बातें ताज़ा होंगी...
                आप सभी को फ्रेंडशिप डे की बधाई (हालाँकि मैं ऐसे किसी भी दिन को मानने से इनकार करता हूँ)...

Monday, August 1, 2011

मॉडर्न आर्ट की एक तस्वीर भर है ज़िन्दगी...

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं, वो अक्सर पूछा करती है नया कब लिख रहे हो... मेरे पास कोई जवाब नहीं होता.. आखिर क्या कहूं, कितनी कोशिश तो करता हूँ लेकिन गीले कागज पर लिखना आसान नहीं होता... और वो स्याही वाली कलम तुमने ही तो दी थी न, उसकी लिखावट बहुत जल्द धुंधली पड़ जाती है...  लेकिन वो ये बात नहीं समझती, और हर रोज यही सवाल पूछती है ...जानती हो उसने कितनी बार ही कहा तुम्हें भूल जाने को, शायद उसे मेरे चेहरे पर ये उदासी अच्छी नहीं लगती ... लेकिन तुम्हारे आने और लौट जाने के बीच मेरे वजूद का एक टुकड़ा गिर गया था कहीं, वो कमबख्त उठता ही नहीं बहुत भारी है... क्या ऐसा मेरे साथ ही होता है कि जो इस पल साथ होता है वो अगले पल नहीं होता...

मैं अब अजीब सी कश्मकश में हूँ, पहले जो शाम काटे नहीं कटती थी... नुकीले चाकू की तरह मुझे चीरने की कोशिश करती थी, अब वो फिर से तितली के पंखों की तरह चंचल हो गयी है... जो शाम तुम्हारे यादों के संग गुज़रती थी उसे अब उसने अपनी खिलखिलाहट से भर दिया है... पता नहीं कैसे... जो कुछ भी मैंने कहीं अपनी सबसे भीतरी तह के नीचे छुपा कर रख दिया था, उसे नीले आकाश की उड़ान भरते देख रहा हूँ...क्या ये वही शहर है जहाँ चाँद ने उगना छोड़ दिया था, कल रात देखा तो चाँद ज़मीन पर उतर आया था...

कितनी बार उसने मुझसे पुछा कि मैं जो तुम्हारे बारे में इतना कुछ लिखता हूँ तुम्हें इसकी कद्र भी है या नहीं, और मैं यही फैसला नहीं कर पाता कि ये मैं तुम्हारे काल्पनिक अस्तित्व के लिए लिखता हूँ या अपनी संतुष्टि के लिए या फिर कलम खुद-ब-खुद अपनी मंजिल ढूँढ लेती है... इन सभी उधेड़बुनों के बीच एक और ख्याल है जो मुझे बेचैन कर जाता है, जबकि उसे पता है मैं उसका नहीं हो सकता, फिर भी हर शाम वो मेरे पास आती है...

ये ज़िन्दगी उस मॉडर्न आर्ट पेंटिंग की तरह होती जा रही है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने उसे बनाया है... मुझे तलाश है बस अपने उस कलाकार की जिसकी बनाई तस्वीर में उलझा हुआ हूँ, ये मॉडर्न आर्ट बनाने वाले तस्वीरों पर अपना नाम भी कम ही लिखते हैं...

Monday, July 11, 2011

रेलवे के टेक्नीकल फॉल्ट को जबरदस्ती ड्राईवर के सर पर मढ़ा जा रहा है...

              कल कानपुर-फतेहपुर के बीच मलवां स्टेशन के पास कालका मेल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी जिसमे अब तक करीब ९० लोगों की मृत्यु की सूचना है... उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रभंधक का कहना है की तेज गति में होने पर इमरजेंसी ब्रेक लगाने के कारण ये हादसा हुआ.... आईये देखें ये संभव क्यूँ नहीं है...
  1.    रेलवे आज से ५ साल पहले ही १५० की गति में ब्रेक लगाकर सफल परिक्षण कर चुका है...
  2.    चलिए अगर ये मान भी लें कि ब्रेक के कारण ये हादसा हुआ तो उस परिस्थिति में पीछे की बौगियाँ उतरतीं जबकि आगे की बौगियाँ दुर्घटना की शिकार हुयी हैं.. ये तो स्कूल तक की फिजिक्स पढने वाले भी जानते हैं के सबसे ज्यादा आघूर्ण (torque), center of rotation से सबसे दूर वाले बिंदु पर लगता है... तो पीछे की बौगियाँ ही सबसे पहले अपना स्थान छोड़ेंगी...
  3.      इस रेलगाड़ी में WAP 7 इंजन जुड़ा था, जिसकी टेक्नीकल स्पेसिफिकेशन अगर आप पढेंगे तो ये पायेंगे की ये इंजन ११० की गति से शुन्य तक की गति तक आने में केवल २०० सेकेण्ड का समय लेता है यानी कि करीब २९० मीटर तक चलने के बाद बिना किसी दुर्घटना के गाडी रुक जायेगी, बस हलके झटके लगेंगे...
              
                 तो हमारे ऊंचे पदों पर बैठे लोग ये जान लें कि हम यहाँ बेवकूफ नहीं बैठे जो वो अपनी गलती का ठेका उस ड्राईवर पर डाल दें सिर्फ इसलिए कि वो गरीब है और आवाज़ नहीं उठा सकता....
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                  इस दुर्घटना में मृत लोगों की आत्मा को शान्ति मिले और घायल लोग जल्द से जल्द स्वस्थ हों ऐसी कामना करता हूँ...

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Thursday, July 7, 2011

साल दर साल कम होती ज़िन्दगी...(happy b'day to me)...

             लो जी एक बार और मेरा जन्मदिन आ गया, और इसके साथ ही मैंने यहाँ इस खूबसूरत से सफ़र में २६ साल गुज़ार दिए | वैसे इस जन्मदिन में कुछ ख़ास तो है नहीं, हर साल ही आता है... बस इस दिन का इंतज़ार इसलिए ज्यादा होता है कि इसी बहाने कुछ भूले बिसरे लोग याद कर लिया करते हैं... अभी रात में बालकनी में बैठा हूँ और लोगों की ढेर सारी बधाईयों का शुक्रिया अदा कर रहा हूँ... सोच रहा हूँ हम जन्मदिन पर खुशियाँ क्यूँ मनाते हैं शायद इसलिए कि इस दिन हमें इस ज़िन्दगी जैसी खूबसूरत नेमत से रूबरू होने का मौका मिला, अरे आप क्या सोचने लगे .. ज़िन्दगी जैसी भी है खूबसूरत ही है....
              और जब लोग मुझे विश करते हैं तो बहुत अच्छा लगता है | अब तो ये सोशल नेटवर्किंग साईट्स के आ जाने से किसी को बर्थडे विश करना भी आसान हो गया है, ज्यादा कुछ करने की ज़रुरत नहीं है बस हैप्पी बर्थडे टाईप कीजिये और भेज दीजिये... पहले भले ही कम लोग होते थे विश करने वालों में लेकिन शायद ज्यादा ख़ुशी मिलती थी |  
               एक पुराना किस्सा याद आ रहा है, मैं जब पटना में लॉज में रहता था तो उस समय उस एरिया के आस पास के सारे लड़कों के फोन बगल वाले टेलीफोन बूथ में आते थे, और वो अंकल जो टेलीफोन बूथ चलाते थे बहुत ही अच्छे और सरल स्वभाव के थे, सभी को बाकायदा बुलाते थे या खबर पहुंचवा देते थे...हमारा लॉज बगल में ही था, तो ५ मिनट बाद फोन करने को कहकर वहां के लड़कों को बुला लिया जाता था... साल २००३ की बात है, मैंने उन्हें पहले ही कह दिया कि अंकल आज मेरा जन्मदिन है हो सकता है मेरे कुछ ज्यादा फोन आयें आज तो उन्होंने कहा कोई बात नहीं, तुम चाहो तो यहीं मेरे घर में ही बैठो आराम से... मैंने उन्हें कहा यूँ बेकार क्यूँ बैठूंगा भला, आज आप आराम कीजिये आज बूथ का ज़िम्मा मुझ पर सौंपिए.. काफी न नुकुर के बाद वो राज़ी हो गए, फिर क्या था मैंने उस दिन उस टेलीफोन बूथ को चलाने का बीड़ा उठाया, इस तरह मेरे दोस्तों को मुझसे बात करने के लिए दुबारा फोन करने की ज़रुरत भी नहीं पड़ी और मैंने अपने १८वें जन्मदिन को यादगार बना दिया... 
               वो भी बहुत अच्छे दिन थे, कई दोस्त तो उन दिनों ग्रीटिंग कार्ड भी दिया करते थे... फिर धीरे धीरे मोबाइल का प्रचलन बढ़ा तो हर जन्मदिन पर बधाईयों का सिलसिला भी बढ़ गया... तब तो कई दोस्त रात १२ बजे ही विश करने लगे, बहुत ख़ुशी मिलती है न जब कोई रात में विश करे....ऐसा लगता है उसको मेरे जन्मदिन का इंतज़ार ही था जैसे.... :)
                इस पोस्ट को लिखते वक़्त सोचा था कुछ दार्शनिक जैसा गंभीर पोस्ट लिखूंगा लेकिन अपने जन्मदिन की ख़ुशी को शायद छुपा नहीं पा रहा हूँ... तो आप भी जल्दी से मुझे विश कर दीजिये, और अग्रिम धन्यवाद भी लेते जाईये... एक गाना याद आ रहा है...
हम भी अगर बच्चे होते, नाम हमारा होता डब्लू-बबलू
खाने को मिलते लड्डू और दुनिया कहती
हैप्पी बर्थडे टू यू..... :)
अरे हाँ ब्लॉग का कलेवर भी बदल दिया गया है, आखिर परिवर्तन संसार का नियम है... ==========================================================
चलते चलते....

               मेरे जन्मदिन के साथ ही आज एक ऐसे इंसान की पुण्यतिथि है जिसने महज २५ वर्ष की उम्र आज से १२ साल पहले अपनी जान इसलिए दे दी ताकि हम जैसे लोग अपना २६वाँ जन्मदिन मना सकें, बात कर रहा हूँ एक महान शहीद विक्रम बत्रा की जो आज के ही दिन कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हो गए थे...... इस सिपाही को मेरा शत शत नमन...
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Monday, July 4, 2011

तुम्हारी यादों में डूबी एक सुबह, जन्मदिन मुबारक हो....

तस्वीर leonid afremov की आर्ट गैलरी से ली गयी...
               सुबह के ५ बजने वाले हैं, बाहर हल्की हल्की बारिश हो रही है, ठंडी हवा के झोंके खिड़की के परदे के साथ ठिठोली कर रहे हैं, और बीच बीच में रह रह कर चौकदार के डंडे की आवाज़ ... क्या खूबसूरत शायराना मौसम है, लेकिन इस संगीत के बैकस्टेज में नींद आखों से कोसों दूर है, शायद इस नींद को भी पता चल गया है कि आज तुम्हारा जन्मदिन है | तुम्हें इसकी मुबारकबाद न दे पाने की टीस ही है जो नींद को परे हटा रही है | धत, ये तुम्हारा जन्मदिन भी न, न जाने कितनी जल्दी चला आता है... और मैं पागल अब भी यही समझता हूँ कि तुम्हें मेरे फोन का इंतज़ार रहता होगा, लेकिन तुम कोई पारो थोड़े न हो जो अपने देवा की याद में दिया जलाये बैठे होगी... लोग अक्सर ये कहते हैं कि ये देवदास बनने का ज़माना नहीं रहा, हुंह वो पगले क्या जाने कोई शौक से थोड़े न किसी की याद में गुम रहता है....इसपर खुद का कोई जोर ही नहीं.... उन्हें क्या पता किसी को आवाज़ लगाते समय कितना ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं तुम्हारा नाम न निकल जाए, आज कल किसी की शक्ल याद रखने में कितनी परेशानी होती है, कमबख्त ऐसा लगता है जैसे रेटिना पर कोई तुम्हारी ही तस्वीर चिपका गया है, तभी तो सोने के बाद सपने भी तुम्हारे ही आते हैं... 
                 ये डायरी के अधूरे पन्ने जो यूँ ही खुद को फुसलाने के लिए लिख देता हूँ ये सोच कर कि कभी भूल से ही सही तुम इन्हें पढ़ लो... इस जनम में नहीं तो अगले जनम में ही, फिर तुम्हें ये एहसास हो एक अधूरा फ़साना आज भी तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, जिसे तुम यूँ ही बेफिक्री से छोड़ आई थी... फिर शायद लौट आओ तुम उन सारे फटे पुराने पन्नो के साथ जिसकी स्याही पर तुम्हारे आंसुओं की छाप हो... हर लम्हा बस यही सोचता हूँ और लिखता जाता हूँ... लम्हें यूँ ही दिन में बदल जाते हैं और दिन महीनो में, फिर कलेंडर बदल जाता है... साल यूँ ही बीतते जा रहे हैं अब तो लगता है तुम्हारी यादें और मेरा ये पागलपन मेरे साथ ही ख़त्म हो जाएगा किसी दिन... प्यार करने वाले दीवाने कल भी हुआ करते थे आज भी हैं, न जाने कितने ऐसे पागल होंगे दुनिया में अब भी फर्क सिर्फ इतना है अब कोई हमारे बारे में बात नहीं करता...अब देवदास बनना फैशन में जो नहीं है.... उफ़, ये हर साल तुम्हारा जन्मदिन क्यूँ आ जाता है भला....

Tuesday, June 28, 2011

अलविदा ज़िन्दगी...

            कई दिनों से या कहूं तो कई सालों से ये सवाल दिमाग में आता रहता है | हम क्यूँ जीते हैं, हमें ये जीवन क्यूँ मिला है, जब कि हम जानते हैं कि एक दिन चले जाना है बस चले जाना है. कहाँ वो भी पता नहीं, और हमारी बदनसीबी तो देखिये वो दिन भी पता नहीं है... न जाने लोग कितनी मेहनत से इस ज़िन्दगी को सजाते हैं, संवारते हैं और एक दिन बस अचानक से ही पर्दा गिर जाता है... न कोई रिहर्सल न ही कोई रिटेक..एक बार में ही सारे नाटक की समाप्ति... कहने को इंसान अपने रास्ते खुद चुनता है लेकिन वो उस रास्ते पर कब तक और कितनी दूर चल सकेगा ये न वो जानता है और न ही और कोई...जानती है तो बस ये ज़िन्दगी...
             मैं भी इसी ज़िन्दगी के परतों में उलझा एक बेबस कलाकार ही हूँ जो इस नौटंकी का हिस्सा है, जो सपने तो देखता है लेकिन जिसका सच होना या न होना उसके हाथ में नहीं | जिसने अपने ज़िन्दगी के पिछले २६ साल इस ज़िन्दगी को सजाने में लगा दिए, इस चीज की परवाह किये बिना कि इसे कितना जी पाऊंगा... एक लड़के के बारे में बताता हूँ, नाम याद नहीं लेकिन नाम में क्या रखा है...एक मध्यमवर्गीय परिवार से था, पढने में सामान्य लेकिन मेहनती | चौथी क्लास से ही घर से बाहर होस्टल में रहा अपने माँ बाप से दूर, सोचा जब पढ़ लिख कर के बड़ा आदमी बन जाएगा तो अपने माता-पिता के साथ रहेगा.... उसका सपना पूरा भी हुआ, एक दिन अच्छी सी नौकरी मिल ही गयी, ख़ुशी ख़ुशी घर लौट रहा था कि रास्ते में एक एक्सीडेंट में उसकी जान चली गयी... बेचारे ने कितनी मेहनत से ज़िन्दगी से कुछ हासिल किया लेकिन परिणाम तो कुछ और ही लिखा था किस्मत में...
             खैर ये रिश्ते-नाते, दोस्त, हमसफ़र ये तो बस यूँ ही है बस उस मोड़ तक जहाँ के बाद अन्धकार है, शून्य है... उसके आगे के सफ़र पर इनकी कोई जरूरत नहीं, उसके आगे ही क्यूँ इसी ज़िन्दगी की कई पगडंडियों पर ही न जाने कितने रिश्ते दम तोड़ देते हैं... यहाँ कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं... सब खुद अपने आप में उलझे हैं और उसी शून्य की तरफ बढ़ रहे हैं ... अब कोई दिन तो मुक़र्रर तो है नहीं तो आज सोचा उस शून्य के आने से पहले एक बार इस ज़िन्दगी को अलविदा कहता चलूँ....

                   टिप्पणी बक्सा बंद है, क्यूंकि इस पोस्ट पर टिप्पणी की कोई चाह नहीं ...आपने पढ़ा आपका शुक्रिया...
             

Saturday, June 25, 2011

थके हुए बादल...

कल अभिषेक भाई की एक कविता पढ़ी, एकदम निर्मल बारिश के रंगों से सरोबर..बस उसे पढ़कर कुछ टूटी-फूटी मैंने भी लिख डाली....



कुछ थके-हारे बादल मैं भी लाया हूँ,

यूँ ही चलते चलते हथेली पर गिर गए थे...
उन्हें यादों का बिछौना सजा कर दे दिया है

थोडा आराम कर लेंगे...
हर साल ये यूँ ही आते हैं झाँकने को,
तुम्हारी हर खिलखिलाहट के साथ बरसना
शायद इन्हें भी अच्छा लगता था..
अब तो जैसे ये यादें
टूटे पत्तों की तरह हो गयी हैं,
जिन्हें बारिश की कोई चाह नहीं...
शायद इन बादलों को भी
दिल का हाल मालूम है...
तुम्हारा आना अब मुमकिन नहीं
तभी मैं सोचा करता हूँ....
ये बारिश आखिर मेरे कमरे में क्यूँ नहीं होती ...

Sunday, June 19, 2011

पापा, हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा....

             आज फादर्स डे है, कितनी अजीब बात है सारी चीजों के लिए हम महज एक दिन मुक़र्रर कर देते हैं.. उस दिन उन्हें याद कर लिया और बस... सुबह से कई फेसबुक स्टेटस, फोटो टैग्स, और कईं ब्लॉग पोस्ट देखी सभी अपने अपने पिता को याद कर रहे हैं, सब एक दूसरे को हैप्पी फादर्स डे कह रहे हैं कोई खुश है किसी की आँखें नम हैं...क्या ये याद सिर्फ आज के दिन ही आती है... और याद आने पर हम करते ही क्या हैं, थोडा सोचते हैं और दो बूँद आंसू बहा लिए और फिर निकल पड़े अपने कॉलेज, दफ्तर की तरफ... कितने कमजोर हो गए हैं हम, ज़िन्दगी में आगे निकलने की होड़ में उन्हें ही पीछे छोड़ते जा रहे हैं जिनके कारण हमारा वजूद है... कुछ लोग इसे प्रैक्टिकल होना कहते हैं तो कुछ लोग मजबूरी का नाम देकर अपनी जिम्मेदारियों से बचते दिखाई देते हैं | मैं भी तो उसी श्रेणी में हूँ...मजबूर...
             मेरे हर नाज़ुक दौर पर पापा हमेशा मेरे साथ रहे, कभी मुझे कमजोर नहीं पड़ने दिया, मुझे इस दुनिया में जीने और लड़ने के काबिल बनाया.... आज भी जब घर फोन करता हूँ, उनका हाल समाचार पूछता हूँ तो, वो बस यही कहते हैं " हम तो ठीक्के हैं, तुम सुनाओ नौकरी कैसी चल रही है, तबियत ठीक है न, कोई परेशानी तो नहीं..." फिर सारा समय मेरे बारे में ही बातें होती रहती हैं... पापा ने कभी ये नहीं कहा कि वो कैसे हैं उनकी तबियत ठीक है या नहीं, लेकिन आज भी उनकी आँखों में कहीं न कहीं ये उम्मीद ज़रूर दिखती है कि मैं उनके पास ही रहूँ हमेशा, मैंने कोशिश भी तो कि लेकिन ये कमबख्त ज़िन्दगी भी न, न जाने कितने पाप करवाती जाती है |आज जब वो बूढ़े हो चले हैं, बीमार रहते हैं, मैं चाह कर भी उनके पास नहीं हूँ... इस पाप का बोझ हर पल और भारी होता जा रहा है, शायद खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा, एक आत्मग्लानि सी मन को खाए जा रही है...
               मैं अपने पापा को कभी मिस नहीं करता बस मन ही मन उनसे माफ़ी मांगता रहता हूँ... पापाजी, हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा...
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बहुत पहले एक कविता लिखी थी....         

                       तुम कहाँ हो....

तुम शायद भूल गए वो पल,
जब उन नन्हे हाथों से
मेरी ऊँगली पकड़कर तुमने चलना सीखा था,
अपने पहले लड़खड़ाते कदम मेरी तरफ बढ़ाये थे.....
तुम शायद भूल गए...
जब मैं तुम्हारे लिए घोडा बना करता था
तुम्हारी हर बेतुकी बातें सुना करता था,
परियों कि कहानियां सुनते सुनते
मेरी गोद में सर रख कर न जाने तुम कब सो जाते थे,
जब मेरे बाज़ार से आते ही
पापा कहकर मुझसे लिपट जाते थे,
अपने लिए ढेर सारे खिलोनों कि जिद किया करते थे.
तुम शायद भूल गए...
जब दिवाली के पटाखों से डरकर मेरी गोद में चढ़ जाया करते थे,
जब मेरे कंधे पर सवारी करने को मुझे मनाते थे,
जब दिनभर हुई बातें बतलाया करते थे...
आज जब शायद तुम बड़े हो गए हो,
ज़िन्दगी कि दौड़ में कहीं खो गए हो,
आज जब मैं अकेला हूँ,
वृद्ध हूँ, लाचार हूँ,
मेरे हाथ तुम्हारी उँगलियों को ढूंढ़ते हैं,
लेकिन तुम नहीं हो शायद,
दिल आज भी घबराता है,
कहीं तुम किसी उलझन में तो नहीं ,
तुम ठीक तो हो न ....              

Tuesday, June 14, 2011

आईये सैर करें -१

            पिछले दिनों ऑफिस के काम के सिलसिले में करीब 25 दिनों की दक्षिण भारत की यात्रा पर था | ये अपने आप में एक अनोखा अनुभव था... कभी सोचा नहीं था कि इतने कम समय में इतनी जगह जा पाऊंगा, भले ही वहां ज्यादा घूमने का मौका न मिला हो लेकिन वहां के लोग. रहन सहन, संस्कृति और नयी जगहों को जानने का मौका मिला... तो इसी सफ़र पर आपको भी अपने साथ ले जाने के लिए हाज़िर हूँ... ज्यादातर समय अकेला ही रहा इसलिए ज्यादा तस्वीरें तो नहीं हैं मेरी, लेकिन अनुभव मेरे अपने हैं... 
             आज बात करते हैं केरल में बसे त्रिवेंद्रम से करीब ८५ किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर कोल्लम की |
कोल्लम रेलवे स्टेशन 

               25 मई को सुबह करीब ११ बजे कोल्लम पहुंचा | गर्मी इतनी ज्यादा कि पूछिए मत, और उसपर से रहने के लिए होटल भी ढूंढना था, उस कड़ी धूप में आधे घंटे की कड़ी मेहनत के बाद पसीने से तरबतर होकर आखिरकार एक होटल मिल ही गया |
   
                  अब बारी थी पेट पूजा की, पास में ही एक होटल में खाना खाया, [खाना ऐसा कि केवल औपचारिकता ही निभा सका] और आस पास की जगहों के बारे में पता किया | पता चला कि एक किलोमीटर दूर ही कोल्लम बीच है, शाम को जाने का प्रोग्राम बना लिया | कमरे में करने को कुछ था नहीं तो घोड़े बेच दिए...
                   करीब ५ बजे शाम में निकल पड़ा समुन्दर की लहरों का मज़ा लेने | समुद्र हमेशा से ही मुझे आकर्षित करता आया है, इसकी विशालता और इसकी तेज लहरें मुझे रोमांचित कर देती हैं | कितना कुछ समेटे हुए है ये अपने अन्दर... खैर, लोगों से पूछते पूछते पहुँच गया बीच पर | बीच के पास में ही एक विशालकाय मूर्ति बनी थी |
                 ज्यादा भीड़ नहीं थी, अधिकतर लोग बीच के पास ही बने पार्क में स्नैक्स के साथ समुद्र की ठंडी हवा का मज़ा ले रहे थे, यहाँ बीच में नहाने की अनुमति नहीं थी क्यूंकि लहरें बहुत ही ज्यादा तेज और ऊंची थीं | कुछ लोग किनारे किनारे खड़े होकर अपने पैर भिंगो रहे थे, मैं भी उन्ही लोगों में शामिल हो गया |


                 काफी देर तक यूँ ही समुन्दर की ठंडी लहरों के मज़े लेता रहा, और फिर आठ बजे के करीब वापस निकल पड़ा अपने कमरे की तरफ...

Thursday, June 2, 2011

एक अकेला इस शहर में...

             पिछले कई दिनों से अधूरा सा कुछ ड्राफ्ट में पड़ा था, उसे वैसे का वैसे ही आपकी नज्र कर रहा हूं...
             दिल्ली, एक शहर जिसमें न जाने कितने सपने पलते हैं, न जाने कितने सपने हर रोज पसीने बन कर बह जाते हैं और न जाने कितने सपने भूखे पेट दम तोड़ देते हैं | कुछ सपनों का बस्ता काँधे पर लटकाए मैं भी दिल्ली आया हूँ, नया शहर, नयी नौकरी, नए लोग और बिलकुल अलग ही तरह का माहौल, दिलवालों की दिल्ली में असल में कितने दिलवाले बचे हैं ये तो नहीं पता लेकिन एक बात तय है कि यहाँ जिंदा रहने की कवायद में दिल से ज्यादा दिमाग से काम लेना पड़ता है....
             यहाँ रास्तों और गलियों में भटकना आसान है और अगर आपमें दम है तो उससे भी ज्यादा आसान है अपनी मंजिल पा जाना... हर सुबह एक नयी जंग के साथ शुरू होती है, और दिन उसी जद्दोजहद में बीत जाता है... यहाँ रातों में सन्नाटा नहीं पसरता, बल्कि रौशनी से नहाई हुयी सड़कों पर चहलपहल बनी रहती है.... यहाँ की ये भागदौड़ आपको और कुछ सोचने का समय भी नहीं देती, ऐसा लगता है जैसे ज़िन्दगी फास्ट फॉरवर्ड मोड में चल रही है .... कभी फुर्सत में ज़िन्दगी बीते लम्हों का हिसाब मांगती है तो हमारे पास कुछ भी तो नहीं होता... 
              यहाँ ज़िन्दगी हर रोज नए सपने दिखाती है, और वो अधूरे पुराने सपने न जाने किस कोने में खो से जाते हैं, जो कभी हमने बड़े प्यार से बोये थे... अब तक जितना भी इस शहर को जान पाया हूँ, यहाँ सबसे ज्यादा मुश्किल है अपनी पुरानी पहचान बनाये रखना... आसपास फैली ये इंसान रुपी मशीनों की भीड़ उस पहचान से बिलकुल परे है जिन्हें लेकर हम इस दुनिया में आये थे...

Saturday, April 23, 2011

कुछ यादें जो समय के साथ धुंधली हो चली हैं .....

          

             दिन और वक़्त तो याद नहीं लेकिन मैं बहुत छोटा था, एक बार जब पापा दाढ़ी बना रहे थे तो मेरा हाथ ब्लेड से कट गया था, पापा का वो परेशान चेहरा और माँ की वो नम आखें... जब तक मेरे चेहरे पर मुस्कराहट वापस नहीं आई थी तब तक उन्हें भी चैन नहीं आया था......
      
              पापा के कन्धों की वो सवारी, जब मैं अपने आपको सबसे लम्बा समझने लगता था.. जैसे कोई राजसिंहासन मिल गया हो... वो ख़ुशी जो अब शायद दुनिया की सबसे महंगी कार में बैठने पर भी न मिले...

              मैं कुछ ७-८ साल का रहा हूँगा, टीवी देख रहा था...मंझले भैया ने कहा टीवी क्या देख रहे हो चलो आज तुम्हें क्रिकेट खेलना सिखाता हूँ... उनका प्रयास मुझे टीवी से दूर करना था, टीवी से तो दूर हो गया लेकिन क्रिकेट का ऐसा चस्का लगा कि बस उन्ही का सिखाया हुआ खेलता आया हूँ...

              बचपन में अपने बड़े भैया से काफी करीब था, उनके साथ खेले हुए वो सारे खेल याद हैं, चाहे उनके पैरों पर झूलना हो या उन्हें गुदगुदी लगाकर भाग जाना... उन्हें गुदगुदी भी तो खूब लगती थी, या ये भी हो सकता है कि मुझे खुश करने के लिए ऐसा दिखावा करते होंगे... पर जो भी था ये खेल बहुत मजेदार था....

             
             

Saturday, March 19, 2011

देखते देखते होली आ गयी और पता भी नहीं चला...

             क्या आपमें से किसी को पता चला, कल होली है... क्या आज भी वही उत्साह है आपके मन में जो बचपन में पिचकारी और गुलाल देख कर आता था... अरे ये क्या कह रहे हैं आप, अब उम्र नहीं रही... अजी छोडिये... आज भी निकलिए तो होली के दिन घर से बाहर, जब चार यार मिल जायेंगे वो उम्र भी लौट आएगी और वो उमंग भी...
             अरे ज्यादा सोचिये नहीं, अच्छा बुरा सोचने का वक़्त नहीं है...लौटिये उसी दुनिया में और खो जाईये... अपने इस ब्लैक एंड व्हाईट हो चुके मन को रंगों से भर दीजिये... और हाँ रंग लगाने में कमी मत कीजियेगा... कुछ तस्वीरें देखिये हमारी होली की....







 
             और ज्यादा कुछ नहीं , बस आप सभी को होली की ढेर सारी शुभकामनाएं...

Wednesday, March 16, 2011

बस यूँ ही आज तुम्हारी याद आ गयी...

           जब कभी उन बीते लम्हों की अलमारी खोलता हूँ तो बेतरतीबी से बिखरी हुयी यादें भरभरा के बाहर गिर पड़ती हैं ... न जाने कितनी बार सोचा कि उन्हें करीने से सजा दूं लेकिन कभी जब बहुत बेचैन होता हूँ तो मन में उठते हुए उबार किसी एक ख़ास लम्हें की तलाश में जैसे सब कुछ बिखेर देते हैं...
           तुम्हें वो पीपल का पेड़ याद है जहाँ तुम हर सुबह अपनी स्कूल बस का इंतज़ार करती थी, और मैं किसी न किसी बहाने से वहां अपनी सायकिल से गुज़रता था... तुम्हें बहुत दिनों तक वो महज एक इत्तफाक लगा था... तुम्हें क्या पता ये इतनी मेहनत सिर्फ इसलिए थी कि इसी बहाने एक बार तुम मुझे मुस्कुरा कर तो देखती थी, और कभी कभी तो मुझे रोक कर थोड़ी देर बात भी कर लेती थी.. वो ख़ुशी तो त्यौहार में अचानक से मिलने वाले बोनस से कम नहीं होती थी...
         प्यार करना भी उतना आसान थोड़े न है, वो देर रात तक सिर्फ इसलिए जागना क्यूंकि तुम्हारे कमरे की बत्ती जल रही होती थी, आखिर कभी कभी खिड़की से तुम दिख ही जाती थी... ऐसा लगता था जैसे खिड़की के उसपार पूनम का चाँद उतर आया है...
           यूँ वजह-बेवजह तोहफा देने की आदत भी तुम्हारी अजीब थी, पता तुम्हारी दी हुयी हर चीज आज भी संभाल कर रखी है...  वो बुकमार्क जो फ्रेंडशिप डे पर तुमने दिया था, आज भी मेरी किताबों के पन्ने से मुझे झाँक लिया करता है... और वो घड़ी, कलाई पर आज भी उतने ही विश्वास से टिक-टिक कर रही है, और तुम्हारे साथ बिताये हुए लम्हों की याद दिला जाती है...
         जब मैं तुम्हें बिना बताये छुट्टियों में पहली बार पटना से घर आया था, कैसे पागलों की तरह चीखी थी तुम, तुम्हारी आखों की वो चमक मंदिर में जलते किसी दीये की तरह थी, जो जलने पर अपनी लौ में कम्पन कर किसी नैसर्गिक ख़ुशी को व्यक्त करता है... उन खूबसूरत आखों में आंसू भी खूब देखे हैं मैंने, तुम्हारे पापा की बरसी पर जब तुम्हारे आंसुओं ने मेरे कन्धों को भिगोया था, मैं अपने आप को कितना बेबस महसूस कर रहा था... उस समय तुम्हारी एक मुस्कराहट के बदले शायद सब कुछ दे सकता था मैं...  उन आखों को चाहकर भी भुला नहीं पाया हूँ..
                    एक अरसा हुआ उन आखों को देखे हुए लेकिन इतना यकीन है कि उन आखों में आज भी वही चमक और वही मुस्कराहट तैरती होगी, भले ही उसका कारण अब मैं नहीं हूँ....

Sunday, March 13, 2011

भारतीय मुद्राओं का दुर्लभ संग्रह....


               आज मैं आपके लिए लाया हूँ कुछ पुराने भारतीय नोट की तस्वीरें जो अब प्रचलन में नहीं हैं, आपमें से कुछ लोगों ने शायद इनका प्रयोग किया हो लेकिन अधिकाँश लोगों ने देखा भी नहीं होगा.... उम्मीद है आपको मेरा ये प्रयास पसंद आएगा... 






 


























 

 
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