Thursday, January 20, 2011

नयी दुनिया...

ये कैसी दुनिया है,
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन है,
कैसा शोर है ये चारो तरफ
जहाँ पंछियों की चहचहाहट सुनाई नहीं देती,
यह कैसी लालिमा है रक्त की,
जिसके आगे सृष्टि के सुन्दर नज़ारे धूमिल हो गए...
कैसी छींटें पड़ी हैं ये शरीर पर,
यह होली रंगों की तो नहीं है शायद,
ये कैसी भीड़ है जहाँ अपने बेगाने हो गए...
क्यूँ आज इंसान इंसान से डरता है,
ह्रदय की कोमल धरा पर यह कांटे क्यूँ उग आये हैं,
जीवन के मायने कुछ बदल से गए हैं,
अब अपनी जीत शायद दूसरों की हार में है,
आखिर यह संघर्ष क्यूँ ? ? ?
क्या है इस वर्चस्व की लड़ाई का मतलब ? ? ?
इस धरती का सुन्दर गुलशन
शायद बंजर हो चला है...
यह वो दुनिया तो नहीं जो ईश्वर ने बनायीं थी,
यह तो कोई और ही नयी दुनिया है....

Monday, January 17, 2011

ज़ज्बा...

                  लँगड़ा भिखारी बैसाखी के सहारे चलता हुआ भीख माँग रहा था—“तेरी बेटी सुख  में पड़ेगी। अहमदाबाद का माल खाएगी। मुंबई की हुण्डी चुकेगी। दे दे सेठ, लँगड़े को रुपए-दो रुपए…!”
                  उसने एक साइकिल की दुकान के सामने गुहार लगाई। सेठ कुर्सी पर बैठा-बैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था। उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा। कहा,“अरे, तू तो अभी जवान और हट्टा-कट्टा है। भीख माँगते शर्म नहीं आती? कमाई किया कर।”
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया। स्वर में तल्खी भरकर बोला,“सेठ, तू भाग्यशाली है। पूरब जनम में तूने अच्छे करम किए हैं। खोटे करम तो मेरे हैं। भगवान ने जनमते ही एक टाँग न छीन ली होती तो मैं आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।”
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा। वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढ़ने लगा। भिखारी आगे बढ़ा।
“ये ले, लेजा।”
                  भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया, मानो सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो। कुर्सी पर बैठकर ‘राज करने वाले’ की दोनों टाँगें घुटनों तक गायब थीं।

Wednesday, January 12, 2011

बुढ़ापा...

               कमरे में दो चारपाइयाँ बिछी हैं। बीच में एक दहकती हुई अँगीठी कमरे को गर्म कर रही है। एक चारपाई पर बूढ़ा और दूसरी पर बुढ़िया रजाई ओढ़कर बैठे हुए हैं। वे यदा-कदा हाथ अँगीठी की तरफ बढ़ा देते हैं। दोनों मौन बैठे हैं, जैसे राम का जाप कर रहे हों।
“ठण्ड ज्यादा ही पड़ रही है।” बूढ़ी बोली,“चाय बना दूँ?”
“नहीं।” बूढ़ा अपना टोपा खींचते हुए बोला,“ऐसी कोई खास सर्दी तो नहीं।”
बूढ़ी खाँसने लगी। खाँसते-खाँसते बोली,“दवा ले ली?”
बूढ़े ने प्रतिप्रश्न किया,“तुमने ले ली?”
“मेरा क्या है! ले लूँगी।” वह फिर खाँसने लगी।
“ले लो, फिर याद नहीं रहेगा।” बूढ़ा फिर कुछ याद करते हुए बोला,“हाँ, आज बड़के की चिट्ठी आई थी।”
बूढ़ी ने कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई तो बूढ़ा स्वत: ही बोला,“कुशल है। कोई जरूरत हो तो लिखने को कहा है।”
“जरूरत तो आँखों की रोशनी की है।” बूढ़ी ने व्यंग्य किया,“अब तो रोटी-सब्जी के पकने का भी पता नहीं लगता।”
“सो तो है।” बूढ़ा सिर हिलाते हुए बोला,“लेकिन वह रोशनी कहाँ से लाएगा!”
कमरे में फिर मौन छा गया। वह उठी, अलमारी से दवा की शीशी निकाली और बोली, “लो, दवा पी लो।”
बूढ़ा दवाई पीते हुए बोला,“तुम मेरा कितना खयाल रखती हो!”
“मुझे दहशत लगती है तुम्हारे बिना।”
“तुम पहले मरना चाहती हो? मैं निपट अकेला कैसे काटूँगा?”
“बड़का है, छुटका है। फिर मरना-जीना अपने हाथ में है क्या?”
बूढ़े ने आले में पड़ी घड़ी की तरफ देखा,“ग्यारह बज गए।”
“फिर भी मरी नींद नहीं आती।” बूढ़ी बोली।
“बुढ़ापा है। समय का सूनापन काटता है।” बूढ़ा लेटते हुए, खिड़की की तरफ देखकर बोला,“देखो, चाँद खिड़की से झाँक रहा है।”
“तो इसमें नई बात क्या है?” बूढ़ी ने रूखे-स्वर में टिप्पणी की।
“अच्छा, तुम ही कोई नई बात करो।” बूढ़ा खीझकर बोला।
“अब तो मेरी मौत ही नई घटना होगी।”
कमरे में फिर घुटनभरा मौन छा गया।
“क्यों, मेरी मौत क्या पुरानी घटना होगी?” बूढ़े ने व्यंग्य और परिहास के मिले-जुले स्वर में प्रतिवाद किया।
“तुम चुपचाप सोते रहो।” बूढ़ी तेज स्वर में बोली,“रात में अंट-संट मत बोला करो!” 

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इस कहानी के उपयुक्त कोई तस्वीर मुझे नहीं मिली अगर आप कोई तस्वीर सुझा सकें तो ....

Monday, January 10, 2011

एक पिता के शब्द अपने शहीद पुत्र के लिए ...

               मैं शेखर सुमन हाज़िर हूँ पहचान कौन चित्र पहेली 11 के सही जवाब के साथ |
               ये तस्वीर है अमर शहीद लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पाण्डेय की |
               इनका जन्म उत्तर पदेश के सीतापुर जिले के छोटे से गाँव रुधा में हुआ था | २५ जून १९७५ को जन्मे कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को बचपन से ही सेना में जाने की इच्छा थी। यहां तक की इनकी इच्छा किस रेजीमेंट में जाने की हैं यह भी इन्होंने तय कर रखा था। इन्हें बचपन से ही गोरखा जवानों की कैप बहुत अच्छी लगती थी।
               कैप्टन मनोज पाण्डेय मध्यम वगीर्य परिवार से ताल्लुक रखते थे। शुरू से ही वो पढाई और खेल कूद में अव्वल रहे, स्कूली शिक्षा के दौरान उन्हें सैकड़ों प्रमाण पत्र और ट्रोफी मिलीं |इंटर तक की परीक्षा पूरी करने बाद इन्होंने राष्ट्रीय रक्षा एकेडमी एन.डी.ए. की तैयारी शुरू की और पहली बार में ही चुन लिए गए। इन्हें गोरखा रेजीमेंट में लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन प्राप्त हुआ। 
          "उनसे उनके SSB interview में पूछा गया कि वो सेना में क्यूँ भर्ती होना चाहते हैं, तो उनका जवाब था कि अपने देश के लिए शहीद होकर परमवीर चक्र प्राप्त करने के लिए, और उन्होंने वो प्राप्त भी किया |"
              अपने इस सुपुत्र के बारे में उनके पिता श्री गोपीचंद पाण्डेय कहते हैं |

"I am the father of a great son. I know, I can never explain him for he was beyond my understanding and imagination. But I would like to mention some facts the country must know about him.
"We belong to a small village Rudha in Sitapur district, UP. I was not well-off when Manoj was born in the same village on June 25, 1975, as my eldest son. I remember, he was very lovable and affectionate to his grand parents as well as to other family members. He was unique in every manner. At school, his subject or syllabus could never rule him, he always ruled over them. In spite of being seriously ill he got unexpected marks in his 10th examination and was appreciated by everyone.
Manoj always understood my economic condition and whenever any crisis knocked my doorstep, I found him beside me. Observing the family’s condition, he started helping me in my business. He was adjudged the best cadet in NCC and was awarded by the Governor of UP. I had to spend no money on his education as he took care of himself through his scholarships.
"After Intermediate, Manoj was selected for NDA. I think this was the happiest day in his life as he had always desired to go to the Army. I cannot forget his answer to a question at SSB that he wanted to join the Force to be awarded Param Vir Chakra. This answer subsequently shocked everyone related to him as he achieved what he had said.In his own words : "One should join the Infantry in Army and in Infantry one must prefer the Gorkha Regiment". I am happy that he got both his desires fulfilled.
On commissioning, he was posted in Kashmir Valley at first. He was then posted to Siachen. On the glacier, he came across varied experiences. After coming back from the glacier, he shared all his experiences with us. He explained about the glacier’s problems and Army’s efforts for survival there. In his own words : "On glacier, people fight the climate more than they fight the enemy".
"His holidays were the happiest days in our family. I know those days can not come back. Those days are over with the Kargil war. But in my memory those days are still fresh. In Kargil, my dearest son made his family and the nation proud. It was Khalubar where my son displayed extraordinary courage and great leadership. In spite of knowing very well that he was going to face death, he motivated his troops through his patriotic words. He did not care for his life for he thought the nation is above everything else. I respect his feelings. Only with hand-grenades and a khukri he scared his enemy and left none to flee. And for this great deed of courage, he had to sacrifice his life. His martyrdom will continue to be an inspiration for thousands who want to follow him.
"I am proud of you, my son! You are with me every moment in my memory. You are still guiding me. Whenever I am faced with any problem I go in front of his photo, see his face and the solution is always there."

Saturday, January 8, 2011

अँधेरे का दीपक


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था,

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर,
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?



रचनाकार :- हरिवंश राय बच्चन 

Tuesday, January 4, 2011

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

रचनाकार: हरिवंशराय बच्चन  सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
वैसे इन्टरनेट पर बहुत जगह इसे बच्चन साहब की कविता कहा गया है.... अगर कोई मित्र इसके बारे में पुख्ता जानकारी रखते हों तो कृपया सूचित करें....
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