Saturday, October 20, 2012

आखिर लड़कियों को शादी क्यूँ करनी चाहिए...

इन दिनों ये टॉपिक काफी गरमागरम है तो हमने सोचा हम भी थोडा अपना ब्लॉग सेक लें...
रिसेंटली ये मुद्दा मेरे दिमाग में तब आया जब हरियाणा के कुछ प्रकांड विद्वानों ने अपनी राय दी कि लडकियां जल्दी से जल्दी बियाह दी जाएँ ताकि उनका बलात्कार न हो सके...
वैसे हो सकता है उनकी नज़र में इस बात का कोई ठोस कारण उन्हें समझ में आया होगा, मुझे तो बस इतना ही समझ में आया कि लगता है जवानी में उन्हें एक सांसारिक सुख का उपभोग करने के लिए काफी इंतज़ार करना पड़ा हो और ऐसे में उनके दिमाग में भी कभी बलात्कार का ख़याल आया हो, या फिर हो सकता किसी ने किया भी हो... अच्छा चलिए बलात्कार न सही, यौन शोषण तो ज़रूर किया होगा... अब ऐसे गुणी विद्वजनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है... ये विद्वान भी बड़े कमाल के हैं इनके हिसाब से लडकियां कोई खिलौना हो सकती हैं जिसका उपयोग पुरुष खेलने के लिए कर सकते हैं या फिर ये कहें करते हैं... कुछ शादी के पहले खेलते हैं और कुछ बेचारों को शादी तक का इंतज़ार करना पड़ता है... खैर ये तो हुयी उन जाहिलों की बातें जो आज की तुलना मुग़ल साम्राज्य से करते हैं... बात यहीं ख़त्म नहीं हुयी, वही बात हैं न कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...
वैसे तो भारत में मुफ्त की एडवाईस बहुत मिलती है, इसलिए रस्मो-रिवाजों को निभाते हुए पिछले दिनों हमारी प्रिय दोस्त आराधना चतुर्वेदी 'मुक्ति" जी को ऐसे ही किसी विद्वजन ने सलाह दी होगी सो उन्होंने हम सब से बाँट ली... उन्होंने लिखा...
कल एक ब्लॉगर और फेसबुकीय मित्र ने मुझे यह सलाह दी कि मैं शादी कर लूँ, तो मेरी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा. तब से मैं इस समझौते में स्त्रियों द्वारा 'सुरक्षा' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत के विषय में विचार-विमर्श कर रही हूँ और पुरुषों के पास ऐसा कोई सोल्यूशन न होने की मजबूरियों के विषय में भी :)

मतलब अब ये स्टेटस पढ़ कर मेरी आखों के सामने थोड़ी सी चिंता उभर आई, पहले तो हम सोच रहे थे कि केवल बलात्कार से बचने के लिए लड़कियों को विवाह करना चाहिए, अब एक नयी बात सामने आ गयी... सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा... मुझे लगा चलो हो सकता है सामजिक सुरक्षा के लिए विवाह जरूरी हो, अब जहाँ ऐसे लोग घूम रहे हों जो बलात्कार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चल रहे हों तो वहां ऐसा सोचना ज़रूरी भी हो जाता है... लेकिन ये आर्थिक सुरक्षा ?? यहाँ तो अपने सामने मैं ऐसी लड़कियों को देखता हूँ जो मुझसे ५ से ६ गुना ज्यादा पैसा कमा रही हैं... ऐसी सोच से तो एक दंभ की बू आती है कि केवल लड़के ही अच्छे पैसे कमा सकते हैं... जो लोग ऐसा सोच कर दम्भित हुए जा रहे हैं उन लोगों को महानगर में आकर एक-आध चक्कर लगा लेने चाहिए... अब इस स्टेटस पर क्या और किस तरह की नयी फ्री फंड की एडवाईस मिली वो आप खुद जाकर पढ़ लीजियेगा, वैसे भी इस पर एक पोस्ट लिखी जा चुकी है... आप उसे देवेन्द्र जी के ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.... खैर यहाँ तक पढने के बाद लड़कियों के विवाह करने के अच्छे खासे कारण मिल गए थे... हम भी संतुष्ट थे चलो, अब तो बेचारी लडकियां विवाह कर ही लेंगी... लेकिन बात यहाँ कहाँ रुकनी थी... टहलते टहलते हम एक गलत पते पर पहुँच गए, गलत पता इसलिए क्यूंकि वहां अपने काम का कोई मैटेरियल आज तक नहीं मिला केवल आलतू-फालतू की बातों की राई से पहाड़ बनाया जाता है... वहीँ पर आराधना जी के उस फेसबुक स्टेटस रो रेफर करते हुए जवाब लिखा गया था..
यह एक टिपिकल नारीवादी चिंतन है जो विवाह की पारंपरिक व्यवस्था पर जायज/नाजायज सवाल उठता रहा है. यहाँ के विवाह के फिजूलखर्चों, दहेज़, बाल विवाह आदि का मैं भी घोर विरोधी रहा हूँ मगर नारीवाद हमें वो राह दिखा रहा है जहाँ विवाह जैसे संबंधों के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न उठने शुरू हो गए हैं, और यह मुखर चिंतन लिव इन रिलेशनशिप होता हुआ पति तक को भी " पेनीट्रेशन"  का अधिकार देने न देने को लेकर जागरूक और संगठित होता दिख रहा है. क्या इसे अधिकार की व्यैक्तिक स्वतंत्रता की इजाजत दी जा सकती है.. क्या समाज के हित बिंदु इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे ? धर्म तो विवाह को केवल प्रजनन के पवित्र दायित्व से जोड़ता है.. अगर पेनीट्रेशन नहीं तो फिर प्रजनन का प्रश्न नहीं और प्रजनन नहीं तो फिर प्रजाति का विलुप्तिकरण तय...

अब तो मेरा चिंतित होना जायज था, ये पहलू तो हमने सोचा ही नहीं... विवाह नहीं तो सेक्स नहीं, सेक्स नहीं तो प्रजनन नहीं और फिर तो ये ७ अरब की जनसँख्या वाली दुनिया की अगली पीढ़ी कैसे आ पायेगी भला... फिर तो विलुप्तिकरण हो ही जाएगा... हालांकि ये सोच भी काफी हद तक हरियाणा के उन विद्वजनों से मेल खाती मालूम होती है क्यूंकि दोनों ही सेक्स के आस पास घूमती है ... लेकिन इसमें सेक्स करने के लायसेंस और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व को लेकर चिंता भी जताई गयी है... उनकी भी चिंता जायज ही है... मैं उनकी चिंता का सम्मान करता हूँ, और उनकी सोच के आगे नतमस्तक हूँ... जहां ऐसी सोच रखने वाले लोग हैं वहां पीढियां ख़त्म हो ही नहीं सकतीं.... चलिए अच्छा है लोग नए नए कारण ढूँढ ढूँढ कर लाने की कोशिश कर रहे हैं...
लेकिन मुझे एक बात समझ नहीं आती विवाह के पीछे लोग कारण खोजने में काहे लगे हुए हैं, क्या विवाह एक जरूरत है, एक अनिवार्य कदम है जो हर स्त्री/पुरुष को उठाना जरूरी है... ?? हाँ ये ज़रूर मानता हूँ ज़िन्दगी के कई मोड़ पर ये लगता है एक हमसफ़र होता तो भला होता... खासकर उम्र के तीसरे पडाव और अंतिम पडाव पर इंसान मानसिक तौर पर काफी एकाकी महसूस करने लगता है... ऐसे कई लोग अपने आस पास देखे हैं जिन्होंने विवाह न करने के फैसले तो लिए लेकिन एक वक़्त आते आते खुद को अकेला महसूस करने लगे....
खैर ये एक अंतहीन विषय है इसपर अपनी राय मैंने फेसबुक पर ही उनके स्टेटस पर दर्ज कराई थी यहाँ भी उसी कमेन्ट के साथ इति करना चाहूँगा....
वैसे विवाह सबका अपना एक निजी निर्णय होता है सिर्फ और सिर्फ उस कारण से विवाह कर लेना कि भाई हमें उसकी ज़रुरत (चाहे जैसी भी हो) पड़ेगी कहीं से भी उचित नहीं है लेकिन अगर किसी के पास एक हमसफ़र के रूप में कोई हो तो ना करने का कोई कारण नहीं है...
विवाह का अस्तित्व अनिवार्यता और ज़रुरत से परे ही देखा जाना चाहिए.... सिर्फ ज़रूरतों को पूरा किये जाने के लिए विवाह नहीं किये जाते...
Disclaimer:- सोचा था ये पोस्ट व्यंग्य के रूप में रखूंगा लेकिन अंत तक आते आते पोस्ट सीरियस नोट पर ख़त्म कर रहा हूँ... साथ में इससे पहले कि कुछ विद्वजन खुद को समझदार साबित करने की जुगत में लग जाएँ उनसे बस एक बात कहना चाहूंगा... सिर्फ इसलिए कि आप उम्र में मुझसे बड़े हैं या फिर आपके पास मुझसे ज्यादा डिग्रियां हैं आप मुझसे ज्यादा समझदार भी होंगे, मैं ये मानने से बेहद सख्त शब्दों में इनकार करता हूँ...
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9 comments:

  1. हमरे ओर से एक मुफ्त की एडवाईस-सीधी सी बात है...जिंदगी जीने के लिए एक साथी की जरुरत होती है...इसलिए नही कि किसी को समाज का हिस्सा बनना है या कोई आर्थिक कारण हों.. यह एक मानसिक जरूरत है |
    लिव-इन-रिलेशनशिप को अर्ध कानूनी मान्यता मिल चुकी है,इन सबके बावजूद शादी आज भी पहले की तरह एक आवश्यक पहलू है |

    बाकी तो आपका पोस्ट ज़बर है,हरियाणा वाला न्यूज़ के परिप्रेक्ष्य में |

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    1. अरे मन्टू, बतवा तो इहे न है कि शादी बियाह कोनो जरूरत नहीं हो सकता है... मतलब ई कोनो बात हुआ... कि लईकी का रेप हो जायेगा तो ऊ सादी कर ले या, उसको पैसा का कोनो दिक्कत है या उसको इहो देखना है कि कहीं मानव जाति विलुप्त न हो जाए... मतलब ई सब झोल झंझट में मेनवे मुद्दा सब खा गया कि अगर लईकी शादी करके खुश रहना चाहती है तो कर ले... मतलब ई बात हुआ कि सब अपना जरूरत के हिसाब से शादी करवा देना चाहता है लईकी का बस... उससे कोई नहीं पूछेगा कि उसको करना भी है या नहीं....

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  2. Hmmm... ab batao agar hum kuchh likhn ki haami bhar dete to tumhara ye samajhdaaro wala side dekhne se na reh jate kya?
    Waise.. waakai shandaar post.. specially last few lines which i saw on FB n those very lines forced me to read it.. :)

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  3. सही है विवाह एक बिलकुल पर्सनल निर्णय है...

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  4. हमारे समाज में हर समस्या को, चाहे वो स्त्रियों की ही क्यों न हो, पुरुषों के नजरिये से ही देखा जाता है. जैसे औरतों का अपना कोई अस्तित्व, अपनी इच्छा, आकांक्षा है ही नहीं. इसीलिये जब औरत ये बात कहती है कि उसे शादी नहीं करनी तो लोगों को समाज की चिन्ता हो जाती है. मुद्दा इस बात का है ही नहीं कि शादी ज़रूरी है या नहीं, इस बात का है कि एक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, यह अधिकार रखता है कि वह विवाह करे या न करे और करे तो कब और किससे करे. हमारे यहाँ लड़कों को तो ये अधिकार है, लड़कियों को नहीं. और सारे अधिकारों की तरह.
    मैं यही मानती हूँ कि विवाह चाहे कोई अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए करे या प्यार में पड़कर करे, या करे ही न, ये पूरी तरह उस पर छोड़ देना चाहिए. समाज को इसमें नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि इतना तो निश्चित ही है कि इंसान अकेले रहने वाले जीवों में से नहीं है, किसी साथ की ज़रूरत उसे पड़ती ही है और स्त्री-पुरुष को साथ रहने के लिए विवाह जैसी सामाजिम मान्यताओं की ज़रूरत है, इसलिए विवाह संस्था इतनी जल्दी मिटने वाली नहीं. बस ये प्रबुद्ध जन लड़कियों को उपदेश देना छोड़ दें, क्योंकि आजकल की लड़कियाँ पढ़ी-लिखी और समझदार हैं, उन्हें अपने जीवन के निर्णय लेने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए.

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  5. जिनके लिए लड़कियां/महिलाएं घर में जी का जंजाल और बाहर एक उपभोग की वस्तुएं रही हों , वो अगर १६ साल में शादी की उम्र या चाउमीन ना खाने जैसे बचकाने सुझाव देते हों तो उनपे तरस खाना भी व्यर्थ है |
    जिस राज्य, या मैं कहूं पूरी एक बेल्ट जिसमे हरियाणा, दिल्ली और उत्तर-प्रदेश के काफी हिस्से आते हैं, में गाने भी ऐसे गाये जाते हों, जिसमे औरत को गलत नज़रों से देखा जाता हो तो बाकी आगे क्या सोचा जाए | ये चाउमीन खाने पर तो बैन लगाने की बात कर सकते हैं , पर रात में दारू के ठेके किसी भी वक़्त तक खुले रहें , इन्हें कोई दिक्कत नहीं क्यूंकि दारू पीने के बाद भी इन्हें घर की और बहार की औरतों / लड्क्यों में अन्तर समझाने की सुध बनी रहती है | इनपे तो लानत ही भेजनी चाहिए | और इनके बारे में बहस करना भी दीवार में सर मारने जैसा है, चोट खुद को ही लगेगी |
    और शादी, वो तो हमारे देश में पता नहीं क्या है | भगवान जाने क्या बना दिया इसे | इसके बारे में आराधना जी के ब्लॉग पर भी काफी चर्चा हुई है |अरविन्द जी के ब्लॉग पर बात तो बहुत ही दूर तक चली गयी | पर मुझे लगता है बात ऐसे बनने वाली नहीं है | कल एक किताब में किसी महापुरुष की बात पढ़ी थी जो कुछ यूँ थी "भविष्य की ना सोच कर हमें वर्तमान में कुछ ऐसा करना चाहिए कि हम आने वाली पीढ़ी को कुछ ऐसा दे सकें जिसपर हमें गर्व हो" | अगर ऐसा हो सके तो आने वाले नस्ल चैन की सांस ले सके | और बाकी बातों पर भी ध्यान दे |
    मेरा अपना विचार ये है कि शादी करनी है , नहीं करनी है या किससे करनी है , इसका निर्णय लड़के या लड़की पर छोड़ दें | उसमे सहायता करें , पर अपने निर्णय थोपे नहीं |

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  6. व्यक्तिगत आकांक्षाओं का सदा ही स्थान रहता है समाज की संरचना में। अपवाद फिर भी बने रहेंगे।

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  7. स्त्रियों को मनुष्य सा कुछ समझने के लिए आभार. सच में अच्छा लगा.
    घुघूतीबासूती

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  8. अच्छा लगी पोस्ट किन्तु आप की बात पर गौर कितने करेंगे , कुछ पोस्टो पर बाद में की गई टिप्पणीयो को लगता है ध्यान से नहीं पढ़ा उन्हें पढ़ने के बाद आप को पता चल जाता की तथाकथित विद्वान लोग स्त्री और प्रेम को लेकर क्या नजरिया रखते है । मैंने अपनी पोस्ट पर भी इस मुद्दे के बारे में कुछ लिखा था (जिसे आप ने बाद में पढ़ने को कहा था )।

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