Thursday, November 15, 2012

हम मिडिल क्लास आदमी हैं...

ई पोस्ट अपना भासा में लिख रहे हैं काहे कि मिडिल क्लास का हिस्सा होने के साथे साथ ई भासा भी हमरा दिल से जुड़ा हुआ है...
हम सुरुवे से काफी खुलल हाथ वाले रहे हैं, मतलब पईसा हमरे हाथ में ठहरता ही नहीं है एकदम.... जब हम छोटा थे तो माँ-पापाजी के मुंह से हमेसा सुनते थे कि हम लोग मिडिल क्लास के हैं, हमलोग को एक-एक पईसा का हेसाब रखना चाहिए.... ऊ समय हम केतना बार पूछे कि ऐसा करना काहे इतना ज़रूरी है तब पापाजी कहते थे कि टाईम आने पर अपने आप बुझ(समझ) जाओगे... ओसे तो ज़िन्दगी में केतना बार ई एहसास हुआ कि पईसा केतना इम्पोर्टेन्ट होता है लाईफ के लिए, उसके बिना तो कोनो गुज़ारा ही नहीं है... लेकिन तयियो कभी भी पईसा बचाने का नहीं सोचे... सोचे जब ज़रुरत होगा तब देखल जाएगा...
पापा हमेसा से अपना कहानी हमको सुनाते थे, उनके बाबूजी यानी के हमरे दादाजी किसान थे, फिर कईसे उनके माँ-बाबूजी उसी समय गुज़र गए जब ऊ ढंग से स्कूल जाना सुरु भी नहीं किये थे, उनकी दादीजी थीं केवल.. ऊ भी कुछे साल तक रहीं... पापा को पढने का बहुते शौक था, लेकिन घर में अब कोनो(कोई) कमाने वाला नय था जो ऊ पढ़ पाते... सुरु सुरु में तो बचत पर काम चला लेकिन एगो किसान का बचत पूँजी केतना होता है ऊ तो आप लोगों से नहिएँ न छिप्पल है... जल्दिये पईसा कम पड़ने लगा, तब ऊ बगले में एगो चाची के हियाँ बीड़ी बाँधने लगे, 2oo बीड़ी बाँधने का ऊ समय १ रुपया मिलता था, इसी तरह करते करते ऊ मैट्रिक तो कर लिए लेकिन उनके गावं में इंटर कॉलेज नय होने के कारण उनको गावं छोड़ना पड़ा, लेकिन पढाई ज़ारी रखने के लिए पईसा तो चाहिए ही था सो धीरे धीरे गावं की ज़मीन बिकने  लगी, और पढाई चलती रही.... वहां से पापा ग्रैजुएशन भी कर लिए लेकिन तब तक लम्पसम पूरी ज़मीन बिक गयी थी, बाकी रहल-सहल कसर गंगा मैया ने पूरी कर दी, न जाने केतना ज़मीन गंगा मैया में समा गया....खैर ऊ कहते हैं न, मेहनत कहियो बेकार नय होता है... पापा का नौकरी लगिए गया, फिर सादी भी हो गया... और किस्मत देखिये, सादी के कुछ दिन बाद माँ का भी नौकरी लग गया... दुन्नु कोई सरकारी इस्कूल में शिक्षक... लेकिन अभियो ऊ मिडिल क्लास वाला दिन नय टला था, रहने के लिए कोनो घर नहीं था... तो जोन इस्कूल में माँ पढ़ाती थीं उहे स्कूल के एगो क्लास रूम में दोनों रहते थे, रात में क्लास का बेंच सब को जोड़ के चौकी(बिस्तर) बन जाता था, उहे पर बिछौना लगा देते थे, फिर भोरे भोरे सब फिर से अलग करके क्लास रूम तैयार... इसी तरह ज़िन्दगी चलते रही फिर हमरे दोनों भैया का पढाई... पापाजी उनके पढाई में कोनो कमी नय रखना चाहते थे, दोनों भैया को बचपने में होस्टल भेज दिए... फिर थोडा बहुत पईसा बचाके वहीँ पासे में एक ठो झोपडी बनाये, कहने को हमारा ठिकाना... हमारा घर... लेकिन ऊ तो सरकारी ज़मीन पर था, टेमप्रोरी... अपना ज़मीन खरीदकर उस पर एक कमरे का अपना घर बनाने में दोनों को 20 साल लग गए.. तब जाके 1989 में हम लोग के पास अपना एगो घर हुआ, एक कमरे का घर... हम उस समय ४ साल के थे, जादे नहीं लेकिन तनि-मनी हमको भी याद है... माँ-पापाजी दोनों केतना खुश थे.... फिर हम तीनो भाई बड़े हुए, तीनो इंजिनियर बने... ऊ भी बिना बैंक से एक्को पईसा क़र्ज़(जिसको आज कल मॉडर्न लोग लोन कहते हैं) लिए... पापा कहते हैं एक एक पईसा जोड़ के, संभाल के, बचा के रखे तब्बे आज इतना कुछ अपना दम पर बना पाए...
खैर, ई तो बात थी पापा की, लेकिन जब कुछ दिन पहले हमरा नौकरी लगा तो हमरे दिमाग में बचत जईसा कुछो नहीं था, लेकिन पहिला महिना का सैलरी आदमी का ज़िन्दगी में केतना बदलाव ला सकता है ऊ हम तब्बे जाने, नौकरी से पहिले हम सोचे थे कि पईसा मिलेगा तो ई करेंगे, ऊ करेंगे... लेकिन जब पईसा एकाउंट में था तो सोचे ऐसे करेंगे तो दसे दिन में पैसा ओरा(ख़त्म हो) जाएगा... फिर किससे मांगेंगे, अब तो अपना पूरा खर्चा हमको खुद को देखना है, अपना रहने का, खाने का... फिर कहीं आना जाना हुआ तो टिकट का.. बिमारी-उमारी तो आजकल आदमी को लगले रहता है... अब उसके लिए हम किसी से मांगने थोड़े न जायेंगे... फिर अभी तो आगे पूरा ज़िन्दगी पड़ा हुआ है, जब परिवार बड़ा होगा, घर का ज़िम्मेदारी बढेगा... उसके लिए भी तो आज से ही बचत करना पड़ेगा... तब जाकर ई बात का एहसास हुआ कि ये मिडिल क्लास आदमी क्या होता है...
मिडिल क्लास आदमी वो है जो मॉल में जाता है, वहां कोनो सामान देखता है तो बाकी कुच्छो देखने से पहले प्राईस टैग देखता है, पसंद-नापसंद तो बाद का बात है... जब भी ऑटो में बैठता है तो सोचता है, काश कि बस मिल जाए तो कुछ पैसे बच जाएँ, सामने से एसी बस गुज़रती है तो सोचता है अगर जेनरल बस में भी सीट मिल जाए तो उसी से चल चलेंगे... मिडिल क्लास आदमी एक-आध किलोमीटर तो ऐसे ही पैदल चल लेता है यही सोच कर कि चलो 15-20 रूपये रिक्शे के बचा लिए... ऐसे कितने ही 10-20 रुपये जोड़-जोड़कर एक मिडिल क्लास आदमी बनता है... एक मिडिल क्लास आदमी का कोनो बैकअप नहीं होता है कि महीना के अंत में अगर पैसा ख़तम हो गया तो फलाना से 1500 रुपया ले लेंगे, या फिर कोनो इमरजेंसी पड़ गया तो क्रेडिट कार्ड यूज कर लेंगे.. मिडिल क्लास आदमी अपना बचत के भरोसे जीता है, कोनो बैकअप के भरोसे नहीं... उसका बचत ही उसका पूँजी है, फ़ालतू में जाता हुआ एक भी रुपया उसको कई-कई बार सोचने पर मजबूर करता है...
नौकरी लगने के बाद हमको एहसास हुआ कि हम भी मिडिल क्लास आदमी हैं... ओसे मिडिल क्लास होना एक सोच है, जिसको हम बचपन से जीते आते हैं, अब अगर हम महीना में लाखो रूपया कमाने लगे न, तहियो हम मिडिल क्लास ही रहेंगे काहे कि इंसान सब कुछ बदल सकता है लेकिन अपना सोच नहीं बदल सकता...

Monday, November 12, 2012

मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझा था...

ये बिलकुल नया शहर था मेरे लिए, नए लोग, नया माहौल... मैं तो पहले से ही सोच कर आई थी कि यहाँ ज्यादा किसी से दोस्ती नहीं करूंगी, किसी से ज्यादा घुलूंगी-मिलूंगी नहीं... बस अपना कमरा, अपनी पढाई और अपना अकेलापन... पता नहीं क्यूँ मुझे अब इस दुनिया में काफी इनसिक्योरिटी होने लगी थी, बस किसी तरह सब से बचने की कोशिश करती थी... दूसरों से ही क्यूँ, अपने आप से भी...

लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी... मुझे हमेशा ऐसा लगता था ये ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और इसे जीने के लिए हमारे पास वक़्त बहुत कम, बस इसे जी भर के, जी लेने की हड़बड़ी काफी कुछ छूटता-टूटता चला गया... काफी देर बाद ये एहसास हुआ कि ये ज़िन्दगी बड़ी तो है, पर आज़ाद नहीं है, हर एक नुक्कड़ पर कांटेदार तारों के बाड़ लगे हैं, अगर हम ज्यादा हड़बड़ी में हो, तो ये बहुत बेरहमी से खुरच देते हैं ज़िन्दगी की उन पोशाकों को, जिन्हें हम लपेट चलते हैं... मैं इस छिलन को नज़रंदाज़ करके आगे बढ़ जाना चाहती थी, लेकिन धीरे धीरे हिम्मत टूटती चली गयी, इन पगडंडियों पर धीमे धीमे चलने के चक्कर में काफी पीछे छूट गयी, ज़िन्दगी आगे भागी जा रही थी... शुरुआत में बहुत बेबसी सी लगती थी, आंसुओं से भीगे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से ढांपे हलके हलके सिसकियाँ भर लिया करती थी...

लेकिन अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, उन सारे सपनों को ज़िन्दगी की अलमारी के सबसे ऊपर वाले खानों में रख कर चुपचाप इस नए शहर में आ गयी थी... खुश रहने या फिर बस दिखते रहने की कवायद ज़ारी थी... कभी कभी अपने आस-पास की लड़कियों को देखती थी, एकदम बोल्ड, सबसे बेखबर, खूब जोर जोर से हल्ला मचाते हुए, लड़कों की तेज़ चलती बाईक को भी ओवरटेक करते हुए तो सोचती थी कि क्या मैं ऐसा नहीं कर सकती... फिर जल्द ही अपने आप को मना लेती थी शायद ऐसा मुमकिन नहीं है अब...

क्लास में बैठे बैठे अपने बगल वाली ख़ाली चेयर को देखकर यही सोचती थी कोई न ही आये तो अच्छा है, लेकिन एक दिन तुम्हें वहाँ बैठा देखकर थोडा आश्चर्य हुआ... जितना हो सके तुमसे कम बातें करने की कोशिश करती थी, लेकिन बगल में बैठते बैठते फोर्मलिटी की बातों से होते हुए हम कब दोस्त बन गए पता ही नहीं चला... तुमसे बात करना अच्छा लगता था, तुम्हारे साथ काफी रिलैक्स महसूस करती थी, जैसे कोई डर नहीं... एक अच्छा दोस्त, जो तुममे देखने लगी थी... लेकिन फिर अचानक से तुम्हारे जाने की खबर सुनी, जैसे किसी ने खूब जोर से धक्का दे दिया हो ऊंचाई पर से... मुझे आज भी याद है तुम्हें अलविदा कहते हुए स्टेशन पर मैं कितना रोई थी, शायद ही कभी किसी के लिए इतने आंसू गिरे होंगे... मेरे बगल वाली चेयर फिर से खाली हो गयी थी... आदत भी एक अजीब शय है छूटते नहीं छूटती... पाने-खोने का गणित भी बहुत झोलमझोल होता है, उसके पचड़े में पड़ने का कोई फायदा भी तो नहीं है न...

उस वाकये को गुज़रे अच्छा ख़ासा वक़्त बीत चुका है, उसके बाद मेरी ज़िन्दगी कई नुक्कड़ों से होती हुयी आज काफी हद तक आज़ाद आज़ाद सी लगने लगी है... आज जब मैं इस शहर को छोड़ कर जा रही हूँ, और तुम यहीं हो, इसी शहर में... मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रही हूँ, नज़र बार बार सेल-फोन की तरफ जाती है... कि एक कॉल, एक मेसेज ही सही कुछ तो आये, जिसमे तुमने बस एक अदद "हैप्पी जर्नी" ही लिख भेजा हो... ट्रेन आ गयी है, मैं अब भी अपने मोबाईल की तरफ देखती हूँ, वहाँ कुछ भी नहीं है... फिर उसे अपनी जेब में रखकर, अपना लगेज उठाकर, धीमे धीमे क़दमों से ट्रेन पर चढ़ जाती हूँ... मैं जा रही हूँ इस शहर को अलविदा करके, साथ ही साथ उस रिश्ते को भी जिसे मैंने दोस्ती समझ लिया था...

Tuesday, November 6, 2012

तुम नहीं हो तो क्या हुआ, तुम्हारा एहसास तो है... An evening without you...

आज की शाम पिछले एक साल की हर शामों से थोड़ी अलग है, पिछले गुज़रे एक साल की पोठली बना कर जो तुम मेरे पास छोड़ गयी हो.. उस पोठली में कितना कुछ है, वो दिसंबर की सर्दी, जनवरी की घास पर पड़ी ओस की वो बूँदें, फ़रवरी की वो हलकी सी धूप, मार्च के पेड़ों से गिरते पत्ते, अप्रैल की चादर में लिपटा वो तुम्हारा इकरार, मई की शाखों पर लगे वो ढेर सारे गुलमोहर के फूल... और भी न जाने कितना कुछ... जैसे-जैसे इस पोठली के एक एक खजाने के साथ इस शाम का हर एक अकेला लम्हा गुज़ार रहा हूँ, उतना ही ज्यादा और ज्यादा खुद को तुम्हारे करीब पाता हूँ... पूरा शहर अपने आप में मगन है, वही गाड़ियों की आवाजें, कुछ बच्चे बगल वाली छत पर खेल रहे हैं, बीच बीच में कोई फेरीवाला भी आवाज़ लगा जाता है.. लेकिन इस सबसे अलग मैं इस शहर से कुरेद कुरेद कर तुम्हारी हर एक झलक को अपनी पलकों के इर्द-गिर्द समेटने की जुगत में लगा हूँ... इस शहर की हवाओं में बहुत कुछ बह रहा है, इन हवाओं में घुले तुम्हारे एहसास को अपनी साँसों में भर के एक ठंडक सी महसूस कर रहा हूँ... कई सारे लफ्ज़ हैं जो इन कागज़ के पन्नों पर उतरने के लिए धक्का-मुक्की मचाये हुए हैं, उन सभी लफ़्ज़ों को करीने से सजा कर एक ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल जान पड़ता है कभी न कभी कोई एक्स्ट्रा लफ्ज़ उतरकर इसे खराब किये दे रहा है...
छुट्टी का दिन बहुत शानदार होता है न, ज़िन्दगी की हर एक शय को हम फुर्सत में देखते हैं, आज भी अकेले यूँ बैठा बैठा उन कई सारे अँधेरे लम्हों को मोमबत्ती की लौ से रौशन कर रहा हूँ, तुम्हें लगता होगा मैं तुम्हें मिस कर रहा होऊंगा, लेकिन नहीं मैं तो उन बीते पन्नों को पढ़ पढ़ कर खुश हुआ जा रहा हूँ जहाँ से होकर गुज़रते हुए आज तुम्हारे लिए ये लम्हा चुराया है और ये ख़त लिख रहा हूँ...
सुनो, तुम्हें पता है जब भी अपने आने वाले कल के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे क्या नज़र आता है ? एक लॉन और उसमे लगा एक झूला, काफी देर तक उस लॉन में खड़ा रहता हूँ, फिर सामने की तरफ देखता हूँ तो एक घर, सपनों का घर... पीली-नीली दीवारें, हरी खिड़कियाँ, खिडकियों पर झूलती तुम्हारी पसंद के मनीप्लांट की लताएं... बालकनी में लगी वो विंड-चाईम... सिर्फ एक घर नहीं बल्कि उसके चारो तरफ लिपटे हमारे ढेर सारे सपने...
आने वाले आधे महीने के बीच हो सकता है न जाने कितने ही ऐसे लम्हें आयेंगे जब हम एक धागे के एक एक छोर को पकडे एक-दूसरे से दुबारा मिलने का इंतज़ार कर रहे होंगे, लेकिन मुझे यकीन इस बात का ज़रूर है कि जब हम मिलेंगे बहुत खूबसूरत होगा वो लम्हा...
खैर, बाहर का मौसम बहुत खुशगवार हो रहा है, हलकी बारिश और सर्द हवा... हवा चलती है तो जिस्म से हरारत सी पैदा होती है, फिर जल्दी से तुम्हारे यादों की चादर ओढ़ कर खुद को खुद में समेट लेता हूँ...
कैफ़ी आज़मी जी की एक ग़ज़ल याद आ रही है...

वो नहीं मिलता मुझे इसका गिला अपनी जगह
उसके मेरे दरमियाँ फासिला अपनी जगह...

तुझसे मिल कर आने वाले कल से नफ़रत मोल ली
अब कभी तुझसे ना बिछरूँ ये दुआ अपनी जगह...


इस मुसलसल दौड में है मन्ज़िलें और फासिले
पाँव तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह...


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