Friday, April 27, 2012

अक्सर इन दुनियादारी की बातों में घुटता रहता है प्यार ...

          ज़िन्दगी जीने का मकसद क्या हो सकता है किसी के लिए... नौकरी, पैसा, घर, गाडी... आखिर ऐसा क्या है जिसको पाकर इंसान इतना खुश हो जाए कि उसकी आखों से आंसू आ जाएँ... शायद इन सब में कुछ भी नहीं.... मैंने महसूस किया है एक प्यार ही है जो इंसान को सबसे ज्यादा खुश करता है.... ये प्यार कोई भी हो सकता है, माता-पिता का प्यार, भाई-बहन का या फिर पति-पत्नी का... लेकिन इंसान इन प्यार के एहसासों से दूर अपनी सारी ज़िन्दगी न जाने किस मृगतृष्णा के पीछे भागता रहता है और भूल जाता वो कुछ जिसके बिना वो वाकई में अधूरा है... 
          समय के इस चौराहे पर वो घर, वो रिश्ते बदलने लगे हैं क्या... अब जब सुबह उठने के साथ हम अपनों का चेहरा नहीं मोबाईल की स्क्रीन देखने लगे हैं... जब हमें अपनों की सेहत से ज्यादा शेयर मार्केट का हाल जानने में दिलचस्पी है... जब किसी से बात करने के लिए हमें इन बेजान मशीनों पर निर्भर रहना पड़ता है.... ये बातें सभी समझते हैं, सभी जानते हैं फिर भी हम खामोश हैं, मौन हैं... शायद कहीं मन ही मन में ये मान चुके हैं कि यही धारा है समय की, जो हमारे पहुँच से बाहर है... हमें लगता है सब ठीक है, सब समझदार हैं, सब समझ लेंगे... लेकिन शायद ऐसा हो नहीं पाता... धीरे धीरे सब दूर होते जाते हैं... महीने के अंत में हमारे पास पैसे तो जुड़ते जाते हैं लेकिन उनको खुशियों के साथ खर्च करने के लिए लोगों की भीड़ कम होती जाती है... शायद हम ये नहीं समझ पा रहे हैं कि इन रिश्तों से बाहर निकलने के साथ ही अगले मोड़ पर अंधकार है, एक गहरा अंधकार.... जैसे एक ब्लैक होल है जहाँ आके सब कुछ ख़त्म हो जाता है... जहां जीने का कोई मकसद नहीं... कुछ भी नहीं.... मौसम के बदलने पर पहाड़ हिंसक हो जाते है, जबकि सच्चा प्रेम दिलों में हमेशा एक सा बसंत बनाए रखता है और बाहर की बर्फीली हवाएं भीतर पहुंच नहीं पातीं... प्यार वह कंडीशनिंग है जो रिश्तों के पारे को थामे रहती है...
          ज़िन्दगी की इस बेतुकी सी दौड़ में जो कभी फुर्सत मिले तो पीछे पलट कर देखना वो जो हमारी ज़िन्दगी में सबसे ज्यादा ज़रूरी है वो कहीं पीछे छूट गया है... वो प्यार जिसके बिना जीना बेमानी है किसी का भी, वो प्यार धीमे धीमे घुट रहा है... हमारे ध्यान से कहीं दूर, और जब इन भटके हुए रास्तों पर दौड़ती हमारी ज़िन्दगी पलट कर देखती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है... पैसों के पीछे भागते इन मशीन बन चुके खोल को उतारकर इंसान बनने की कोशिश ज़रूर कीजिये और थाम लीजिये उन हाथों को जो अकेले हैं, तन्हा हैं हमारे प्यार के बिना...
             रिश्तों के अंतर्द्वद्व को समझने में निदा फाजली की ये पंक्तियां शायद कुछ मदद कर सकें...

‘जीवन शोर भरा सन्नाटा, जंजीरों की लंबाई तक सारा सैर-सपाटा।
हर मुट्ठी में उलझा रेशम, डोरे भीतर डोरा, बाहर सौ गांठों के ताले, अंदर कागज कोरा।

Wednesday, April 25, 2012

प्यार तो होना ही था न....

"ए पगली, नींद आ रही है क्या ??? सर सहला दूं... ?"
"हम्म्म्म....."
".... आओ, चलो सो जाओ.. !!!"
"अच्छा एक बात बताओ, तुम्हारा हाथ दर्द नहीं करता ??? यूँ घंटों मेरा सर सहलाते रहते हो, खुद तो एक मिनट के लिए भी नहीं सोते.... !!!"
"ऊंह हूँ......"
"क्यूँ ??? !!!"
"क्यूंकि, विकास अंशु को बहुत प्यार करता है.... और अंशु को इतने सुकून से, इतने प्यार से सोते देख कर उसे खूब ख़ुशी मिलती है...."
"अच्छा.... रियली ?? !!!...."
"ह्म्म्म..... अच्छा अब ऐसे मुझे देखना बंद करो, और आँखें बंद करो और सो जाओ..."
"....."  
"....."
"विकास ?????......"
"ह्म्म्म.... बोलो न...."
"अपना दूसरा हाथ लाओ न, मुझे तकिया बनाना है......"
"हा हा हा.. पगली कहीं की.... ये ले.... अब मुस्कुराना बंद करो और निन्नी कर लो...."
"....."
"....."  
"....." 
"....." 
"विकास, एक बात कहूं....!!!"
"कहो न... !!!"
"....अंशु भी विकास को बहुत प्यार करती है....."
"क्या कहा.... फिर से कहो... !!! ???.... ए अंशु ... सुनो न... क्या कहा.... मैंने सुना नहीं.... प्लीज कहो न.....एक बार और कहो न..."
"ऊंह हूँ......तुमने मिस कर दिया..." 
"अरे बोलो न.. प्लीज.... मैंने सच में नहीं सुना...."
"मैंने कहा..... आई लव यू...."
"सच्ची....??? सच सच कहो..... "
"ह्म्म्म...."
"कब से... कैसे....."
"पता नहीं... मुझे सच में नहीं पता...." 
"पहले क्यूँ नहीं बताया... पगली....." 
"मुझे खुद पता चलता तब न....."
"....."
"....."  
"....." 
"....."  
"विकास ???? ....."
"ह्म्म्मम्म......"
"क्या देख रहे हो...???"
"वो देखो आसमान में वो खूबसूरत से टिमटिमाते तारे, और चाँद देखो कितना सुन्दर लग रहा है... "
"तारे ??? चाँद ??? पागल हो गए हो क्या,  वो तो छत और वहां पंखा घूम रहा है..."
"ओफ्फ्फ हो... तुम देख नहीं पा रही हो अंशु, गौर से देखो... अरे ऐसे नहीं आखें बंद करके देखो... ठंडी हवा है, सामने कित्ती प्यारी सी नदी बह रही है... आवाज़ तो सुनो पानी की....."
"......हे भगवान्, क्या हो गया तुमको.....!!!"
"अरे रे ज्यादा मत सोचो, देखो न, चाँद कितने प्यार से हमें देख रहा है, उसकी इस ठंडी धूप को हम पर पड़ने दो न, तुम्हें पता है जब भी ये ठंडी चांदनी रिश्तों पर पड़ती है, तो अक्सर प्यार हो जाया करता है...."
"मुझे नहीं पता तुम क्या बोलते रहते हो, तुम राईटर लोग भी न, कुछ भी सोच कर कुछ भी बोलते हो और कुछ भी लिख देते हो.... "
"हा हा हा... पगली....ठीक है, चलो सो जाओ...."
"..............अब नींद कहाँ से आएगी बुद्धू..... ऐसे में नींद भी आती है क्या....."
"ये भी सही बात है.... "
"....."  
"....." 
"....." 
"विकास ???...."
"हम्म्म्म...."
"ये कहीं सपना तो नहीं....!!! मुझे सच में तुमसे प्यार हो गया क्या....???"
"हाँ रे..... तुझे तो सच में मेरे से प्यार हो गया.... लेकिन कैसे हो गया रे पगली... मुझे तो लगा था मैं अकेला ही रह जाऊँगा हमेशा...."
"क्यूँ नहीं होता आखिर, विकास अंशु से इतना प्यार करता है.... अंशु को भी एक दिन प्यार तो होना ही था न..... "

Thursday, April 19, 2012

इन लव विद गुलमोहर...

गुलमोहर तुम तब भी थे न,
जब जाता था मैं
माँ का आँचल पकडे
यूँ उन पक्की सड़कों पर
अपने स्कूल की तरफ 
और देखता रहता था तुम्हें
अपनी नन्हीं अचरज भरी आखों से...  

हर महीने के
मेरे इंतज़ार से बेखबर
आते थे केवल अप्रैल-मई में ही
और रंग देते थे सड़कों की छत
अपने इस लाल-केसरिये रंग से...

तुम तब भी थे न
जब धीमी धीमी बारिश में
तुम्हारे पेड़ के नीचे
छिप जाते थे हम
और तुम गिरा देते थे प्यार से
अपने फूलों का एक गुच्छा...

जाने तुमसे ऐसा कौन सा रिश्ता है,
बचपन से ही हर बार
अपनी अधखिली कलियाँ
मुझे दे जाते हो...
लेकिन मुझे एक बात बताओ
क्या तुम्हें वसंत और सावन 
कुछ भी पसंद नहीं 
जो इस सूरज की तेज़ गर्मी में आते हो....

कितनी ही बार महसूस 
किया है मैंने
हमेशा से ही आते हो
जब होता हूँ मुश्किलों में,
और जो हो जाते हो संग मेरे
बिखरते हुए मेरे अस्तित्व को
अजीब सा सुकून दे जाते हो...

कुछ तो कशिश है तुझमे
जो यूँ खिचा चला आता हूँ,
अपने प्यार की ये 
मनोहर कहानियाँ 
तुझसे बस तुझसे
बांटने लाता हूँ...

इन लाल-हरे फूल-पन्नों के बीच
रूप तुम्हारा गज़ब का
निखरता है,
इन दिनों मुझे आने वाले सपनो में
बस और बस
गुलमोहर बिखरता है..... 

Friday, April 13, 2012

ये कोई कहानी नहीं, एक सपना है आधा अधूरा सा...

एक जंग लगा पिंजरा, घर की चौखट से थोड़ी दूर झोपडी की छत से जुडी कड़ी में लटका हुआ है...
एक तोता है उसमे शायद, लेकिन उसका रंग बड़ा अजीब, भूरे भूरे सा...
छत के कोने में एक सुराख है, सुराख नहीं... बड़ा सा छेद... पिछली बारिश में शायद पेड़ की टहनी के गिरने से हो गया होगा...
तोता एकटक उस छेद से नीले आसमान की तरफ देख रहा है... ऐसे जैसे अभी मौका मिले तो अभी उड़ जाए...
नीचे कोने में एक खटिया पड़ी है, एक औरत लेटी है... औरत या फिर एक युवती, उम्र यही कोई २७-२८ के करीब होगी... चेहरा मुरझाया सा, जैसे अपनी उम्र से १०-१५ साल बड़ी लग रही हो... बीमार है शायद...
एक लड़की है छोटी सी ज़मीन पर खेल रही है, खेलते खेलते औरत के पास आती है, और अपनी माँ से इशारे से पानी मांगती है पीने को... औरत उठती है, लेकिन पानी का घड़ा तो खाली है...
दरवाज़े से निकलकर बाहर की तरफ देखती है तो तेज़ धूप, गर्म हवाओं के थपेड़े उसके चेहरे को जैसे झुलसा से देते हैं... अब इत्ती धूप में वो उस बच्ची को लेकर कहाँ जाए... हाथ में घड़ा उठाकर, उसे वहीँ खेलता छोड़कर... बाहर से दरवाज़े की कुण्डी लगाकर धीमे कदमो से पानी लाने शायद कहीं कुएं पर चल देती है... ज़मीन की सारी घास सूखी पड़ी है, औरत के पैर गर्म ज़मीन में तप रहे हैं...
थोड़ी देर तक लड़की के मासूम आखें अपनी माँ को खोजती हैं, फिर जैसे सब समझ जाती है... और खेलने में मगन हो जाती हैं... बाहर हवा और तेज़ हो गयी है, सूखे पत्तों के इधर उधर उड़ने की आवाज़ आ रही है... अचानक से तोता बेचैन हो जाता है... पिंजरे में इधर उधर छटपटाने लगता है... पिंजड़ा जोर-जोर से हिल रहा है...
लड़की डर जाती है, हैरान होकर तोते की तरफ देखने लगती है... शायद उसकी समझ के परे की बात होगी... वो रोने लगती है...
पानी लेकर लौटती उस औरत को दूर झोपडी से उठता धुएं का एक गुबार सा दिखता है, वो खूब जोर से चिल्लाती है... झोपडी में आग लग गयी है... वो तेज़ी से उधर की तरफ भागती है...
इधर आग की लपटें बढती जा रही हैं... छत कमज़ोर होती जा रही है, तोते का पिंजड़ा छत से गिर कर खुल जाता है, अब तोता बाहर आ गया है... लड़की अब भी रो रही है, तोता जी भर के खुले आसमान की तरफ देखता है, और उस लड़की के पास आकर खड़ा हो जाता है...
औरत भागते भागते थक कर रास्ते में बेहोश हो गयी है, झोपडी धीरे धीरे जलती जा रही है... तोता अभी भी नहीं उड़ा...

Friday, April 6, 2012

तुम अक्सर मेरी कविताओं में आती हो...

तुम अक्सर मेरी कविताओं में आती हो,
माटी के डिबिये की रौशनी में,
सकुचाती हो, शरमाती हो...
इस दुनियादारी के गणित में उलझे,
जो जिए हैं वो पल तुमने
उनसे जुडी ज़िन्दगी का इतिहास सुनाती हो...
अजीब ही पागल हो,
मेरी हर हंसी में,
ढूँढती हो जाने कितने अर्थ
और मेरे हर आंसू को व्यर्थ बताती हो...
तुम्हारी इन बातों के बारे में,
जब भी सोचता हूँ कुछ लिख दूं मैं,
पर खुद का जिक्र यूँ पन्नों पर पढ़कर
जाने क्यूँ मुझसे गुस्सा सी जाती हो...
अक्सर भेज दिया करता हूँ मैं
जो मेसेज तुम्हारे मोबाईल पर
उन्हें हर रोज पढ़कर,
हर रोज मिटाती हो...
सोचता हूँ छोड़ दूं मैं
ये कवितायें लिखना
पर क्या करूँ, इसी बहाने से ही सही,
तुम अक्सर मेरी कविताओं में आती हो...
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