Sunday, February 24, 2013

यादों का अंधड़...

मैं उदास हूँ, मन खंडित, तन निढाल... मैं इंसान की तरह नहीं, ठहरे हुए पानी की तरह नज़र आता हूँ.. जिसमे परछाईयाँ उभरती हैं फिर लहरों के साथ ओझल हो जाती हैं... अपनी दुनिया में खोया एक शख्स कितना अजीब लगता है.. इस दौर की दुनिया चाहती है सब एक जैसे हो जाएँ, सब एक जैसे सिपाहियों की तरह कदमताल करते रहे... वो भीड़ होकर खुद भीड़ में गुम हो जाएँ... इस दौर की दुनिया किसी को 'तथागत' नहीं होने देती, बाहर चकाचौंध बिछाती है और अन्दर वनवास...यह वर्तमान का दौर है, यहाँ स्मृतियों के लिए कोई जगह नहीं... अब लोग एल्बम नहीं देखते, एटलस देखते हैं और उनमे अपने कंक्रीट के जंगल बिछाने के लिए प्लाट देखते हैं... घर और मकान की परिभाशों से दूर उठकर फ़्लैट खोजने में व्यस्त इस भीड़ का शोर बढ़ता ही जा रहा है... अजीब बात है लोग वर्तमान के पीछे भागते हैं और उसी वर्तमान से डरते भी हैं... मुझे ये डर हर कहीं दिखता है.. मेरे कमरे के अकेलेपन में, मेरी बंद आखों की पुतलियों पर तैरता रहता है ये डर, मेरी जेबों में चिल्लर की तरह खनकता रहता है डर, डर मेरी सांस में भी मौजूद है तभी शायद सांस लेते समय मैं डरा हुआ लगता हूँ...
 
अकेले आदमीं की यही दिक्कत होती है... उसे समझ नहीं आता की खाली वक़्त का क्या करे ? यही दिक्कत मेरी भी है... अपने खालीपन से भाग निकलने की कोशिश में सड़कों पर भटकता रहता हूँ... ऐसे में सबसे मशरूफ़ दिखने वाला मैं, शहर का सबसे खाली इंसान होता हूँ... ये शहर वजूहात का शहर है, हर किसी के पास एक वजह है, ज़िन्दगी जीने की वजह... बस पकड़ने की मामूली सी वजह को लेकर भी लोग जीने का हुनर पैदा कर लेते हैं...
भटकते-भटकते एक दोराहे पर आकर खड़ा हो गया हूँ, सामने कबाड़ी की दुकान दिख रही है.... कबाड़ को देखकर मेरे चेहरे पर धीमी सी तिरछी मुस्कान उभर आती है... कबाड़ पता नहीं क्यूँ खराब लफ़्ज़ों में शुमार होने लगा, अगर आप कबाड़ को गौर से देखने लगें तो कबाड़खाने की एक एक शय, हमारी ज़िन्दगी का नक्श नज़र आती है... मैं खुद को यूँ सड़कों पर झोंक देना चाहता हूँ, लेकिन उस कमजोरी का क्या करूँ जो पैरों में चप्पल की तरह उतर आती है... फिर से अपने ऊपर लगायी सारी बंदिशों को तोड़कर उसी कमरे में दाखिल होता हूँ... कमरे में जाकर इस तरह खड़ा हो जाता हूँ जैसा किसी और का कमरा हो... चुपचाप !! बेआवाज़ !! हमेशा की तरह रौशनी आखों में चुभ रही है, बत्तियां बुझाकर मैं अँधेरे और ख़ामोशी का एहतराम करता हूँ...

स्मृतियों के संसार की खूबी ही तो यही है, न पासपोर्ट न वीजा, न प्रवेश शुल्क न टोलटैक्स... मेरा ये संसार ऐसा ही है, जो भी मुझे इसमें खोजने निकला वो खुद भी इसी में खो गया...

Friday, February 22, 2013

गुमगश्ता से कुछ ख़याल...

ज़िदगी तेज़ भागती है बहुत, बिलकुल बुलेट ट्रेन की तरह... हर रोज़ ज़िन्दगी में कई लोग मिलते हैं.. कुछ लोग तयशुदा होकर प्लेटफोर्म में तब्दील हो जाते है, वहां आकर ज़िन्दगी हर रोज रूकती है... यहाँ ज़िन्दगी को थोडा धीमापन मिलता है... और कुछ यूँ ही अपने खोखले लिबास में आते हैं बस थोड़ी देर के लिए और हमेशा के लिए खो जाते हैं.. ट्रेन की खिडकियों पर बैठकर सफ़ेद आखों से, होठों पर केवल एक सतही मुस्कान लिए उन्हें अलविदा कह देना ही अच्छा लगता है...

सुबह का अखबार
एक प्याली चाय
और हाथ में एक अधजली सिगरेट...
तुम्हारा यूँ मेरी ज़िन्दगी में होना
उस सिगरेट से कम नहीं
मैं तुम्हें जला देना चाहता हूँ
क्यूंकि तुम्हारा होना परेशान करता है
तुम आकर अटक गए हो
इन उँगलियों में...
जितना तुम्हें जलाता हूँ
मेरा फेफड़ा भी उतना ही जलता है
मैंने भी सोच लिया है,
अब ऐसा कभी न होगा
जल्द ही जला दूंगा
हम-दोनों के बीच बने इस रिश्ते को...
याद रखना
तुम मेरी ज़िन्दगी की आखिरी सिगरेट हो...

लोग जब मेरे कमरे में आते हैं, बत्ती जला देते हैं... जाने क्यूँ मुझे अँधेरा अच्छा लगता है, अगर रौशनी की बिलकुल भी ज़रुरत न हो तो बत्तियां बुझाकर बैठने का मन करता है... अंधेरों में आखों को तकलीफ नहीं होती और दिल को भी सुकून मिलता है.... रोशनियाँ आखों में जलन पैदा करती हैं, खुद के लिए ही कई सवाल खड़े कर देती है... इस उजाले में आखें अपने अन्दर छुपे सारे ख़याल छुपा लेती हैं... सब कुछ अन्दर ही अन्दर तूफ़ान मचाता रहता है... बहुत कठिन होता है उजाले और अँधेरे के बीच सामंजस्य बिठाना... आखों से ढुलकते उन एहसासों को जबरदस्ती बाँध लगाकर रोकते रहने की जुगत में कई बार खुद से ही चिढ होने लगती है....

कितना अजीब होता है
जब कोई न हो
आस-पास
उन्हें पोंछने को
और अगर कोई देख ले तो
बस ये कहना कि
" चला गया था कुछ आँखों में... "
ये कमबख्त आंसू भी अजीब होते हैं...

Wednesday, February 20, 2013

ज़िन्दगी की सुरंगों से झांकता एक दिन...

यूँ तो हर किसी की ज़िन्दगी एक कविता के सामान होती है... लेकिन हर कविता का रंग अलग अलग होता है, उनका छंद अलग होता है, उनका अंदाज़ अलग होता है... कुछ कवितायें आस-पास के थपेड़ों से ठोकर खाते-खाते अधूरी ही रह जाती हैं... यूँ बैठा सोचा के कभी अपनी आत्मकथा लिखूंगा, तो क्या लिखूंगा... कहाँ से शुरुआत होगी और किन पैरहनों को सीते हुए आगे बढूंगा.. और कहीं बीच में ही विचारों को कोई धागा चूक गया फिर... खैर इधर-उधर नज़र फेरने के बाद छत की और देखने लगता हूँ, और कुछ यूँ सोचता हूँ...

एक महल है बादलों का
उसी में रहता हूँ आजकल
उसमे कोई दरवाज़ा नहीं
खिड़की भी नहीं,
पिछली बारिश में
जो एक सीढ़ी बनायी थी तुमने
उसी पर बैठ के
बांसुरी बजाया करता हूँ...


कमरे में बैठा हूँ, हालांकि यहाँ ठण्ड नहीं है लेकिन शाम होते-होते इतनी हवा तो बहती ही है कि सीने में सिहरन पैदा कर सके... चुपचाप ब्लैंकेट के कोनों को पकडे खुद को उसमे ज्यादा से ज्यादा उतार लेने की जुगत कर रहा हूँ... आस-पास सन्नाटे गूँज रहे हैं, पता ही नहीं चलता कि शायद कोई बाहर पुकार रहा हो मुझे.. पता नहीं क्यूँ जब भी गुलज़ार को लगातार सुनने लगता हूँ मन किसी छल्ले में बंध कर उड़ान भरने लगता है, जैसे साबुन के बुलबुले बिना किसी मंजिल के आसमान की तरफ रुख करने लगते है... कई सारे बीती बातें याद आने लगती हैं, पुरानी तस्वीरें देखने का मन करता है... उन तस्वीरें में कई ऐसे लोग दिखते हैं जो समय के साथ-साथ कहीं खो गए... उनका कोई पता नहीं, कोई खबर नहीं...

कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने
धूप सूरज के पीठ की ...

बहुत आसान है उस गंध में
खो जाना जन्मों-जन्मों तक
और
भूल जाना अपने अस्तित्व को ,
गर अचानक से न उभर आये
ख्याल किसी खोह-खंदक से
कि कहाँ है उस शरीर की जान
कहाँ हैं आत्मा और मन,
पर व्यर्थ है उनको ढूँढना भी
वो दोनों तो हाथों में हाथ डाले
बीती रात ही निकल गए
हमेशा की ही तरह
किसी अज्ञातवास पर ...
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