Friday, September 27, 2013

माँ भूखी क्यूँ रहती है...

आज जिउतिया (जीवित पुत्रिका व्रत) है....  बड़ा अजीब त्योहार है जी... जब छोटा था तब शायद अच्छा लगता होगा, लेकिन अब ये सोच कर अजीब लगता है कि क्यूँ आखिर मेरी सलामती के लिए मेरी माँ उपवास करे... श्रद्धा या विश्वास का पता नहीं क्यूँ, लेकिन माँ से पूछने पर तो यही कहती हैं कि हमेशा से करते आए हैं, तो अब छोडने का क्या मतलब है...

कल जब उन्होने आज के बारे में बताने के लिए फोन किया था तो ऐसे उत्साह से बातें कर रही थीं जैसे आज पहली बार व्रत रखा हो... पता नहीं कहाँ से उनमे इतनी ऊर्जा आ जाती है ऐसे मौकों पर...

बड़े शहरों में
अपने घर से दूर बसे लोग, 
अक्सर ढूंढते हैं 
अपनी माँ के हाथों की रोटियाँ
उन्हें नहीं अच्छा लगता 
कहीं और का बना खाना...
फिर अगले पल उन्हें खयाल आता है
कि इन्हीं बाहर बनी 
रोटियों को कमाने की खातिर
वो अपना घर छोड़ आए हैं....

जब दिन भर की भागदौड़ के बाद
तमाम थकान से 
चकनाचूर होकर भी,
रात को नींद नहीं आती 
उन महंगे गद्दों पर
तब उन्हें फिर ये खयाल आता है
इन गद्दों की ही खातिर तो
वो माँ की गोद छोड़ आए हैं.... 

Tuesday, September 24, 2013

देह के खरीददार...

सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है...

ऐसे मंज़र देखकर किसी का भी दिल छलनी हो जाये... वो कहते हैं सरकार इनकी हालत में बेहतरी के लिए कई योजनायें चलाती रहती है.... और फिर हम NGO वाले भी हैं ही... साफ सफाई के तरीके समझाकर और दवाई-कंडोम बांटकर जितना हो सके हम मदद करने की कोशिश कर रहे हैं... मैंने उनसे पूछा अगर इनके हाल की इतनी ही फिकर है सरकार को, तो इस धंधे को बंद क्यूँ नहीं करवा देती... उनके चेहरे पर खामोशी की एक शिकन उभर आई, कंडोम के पैकेट समेटते हुये बमुश्किल अपनी गंभीरता को मोड़ते हुये उन्होने कहा, सरकार ये नहीं करा सकती... उसके बस में कुछ नहीं...आखिर समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... मैं निरुत्तर था, भले ही शायद मेरी उस उम्र की समझ के हिसाब से ये कोई दार्शनिक जवाब था, लेकिन मैं इसके पीछे इंसानी चमड़ी के अंदर छुपे भूखे भेड़ियों का स्वार्थ ज़रूर देख पा रहा था... वेश्या !!! एक ऐसा शब्द जिसको सुन कर सभी की नाक-भों सिकुड़ जाती हैं... एक घृणित नज़र, एक गंदी सोच, चलो कुछ संवेदनशील इंसान भी रहा तो कुछ पवित्र तो नहीं ही सोच पाता होगा....

खैर, हम कंडोम और दवाइयों का पैकेट उठाकर दूसरे कोठे की तरफ बढ़ गए... दरवाजे पे ही एक लड़की थी...  देखने से करीब 21-22 के आस पास...हमने उसे कुछ दवाइयाँ और कंडोम के कुछ पैकेट दिये... उसने कहा वो तो हर रोज़ दवाइयाँ खाती है... 
"कौन सी.... " 
वो अंदर गयी और एक दवाई की स्ट्रिप ले आई उठाकर...
"ORADEXON.... "' 
"ये कौन सी दवाई है ???"
"वो मेरे को नहीं पता, आंटी ये पैकेट देकर जाती है तो मैं खा लेती है... एक साल से खा रही है मैं .... "
मेरे एक साथी ने वहीं मोबाइल में गूगल पर सर्च करके जब दिखाया तो शरीर कांप गया था मेरा... हमने तुरंत पूछा...
"उम्र क्या है तुम्हारी ????"
"वो पता नहीं है मेरे को, लेकिन सब कहते हैं जभी "दिलवाले दुलहनियाँ ले जाएँगे..." आई थी न, तभी मुझे भी कोई छोड़ गया था इधर... " 
DDLJ मतलब 1995, यानि कि महज 14 साल... 
पता चला यहाँ कई लड़कियां 13-14 साल की उम्र से ही ये टैबलेट लेती हैं, इस टैबलेट की सप्लाई बांग्लादेश से आती है शायद...  
दरअसल ये टैबलेट कम उम्र की लड़कियों को भरा-पूरा बनाने के लिए यूज किया जाता है... जिससे वो लड़कियां बड़ी दिखने लगें... गोश्त बढ़ाने के लिए ताकि उन भेड़ियों को पसंद आए... उनकी सेहत के साथ इतना भद्दा खिलवाड़ उनके लिए जिनको सभ्य बनाए रखने की बात कुछ देर पहले मेरे साथी कर रहे थे...
"मुझे नहीं पता किस तरह के लोग वेश्याओं के पास क्या तलाशने जाते हैं, संवेदनहीनता की इंतिहा ही है ये... " और वो कहते हैं सभ्य बनाने के लिए... क्या उन लोगों को खुद के चेहरे पर थूक के छींटे महसूस नहीं होते.... मुझे तो कभी-कभी इंसान होने पर भी जिल्लत महसूस होती है...   

Sunday, September 15, 2013

तुम्हारे क़दमों के निशां...Some Random Drafts...

क्या करूँ, लिख दूं रोमांटिक सा कुछ !!! जबकि ये भी पता है कि तुम्हें भी उतनी ही बेसब्री से इंतज़ार रहता है... इंतज़ार किसी ऐसे लफ्ज़ का जो तार छेड़ जाए तुम्हारे दिल का... जानती हो इन दिनों एक सपना फिर देखने लगी हैं आखें... क्या कहूं, जाने दो.. इतना दिलनशीं सपना कागज़ पर उतारने का दिल नहीं कर रहा... किसी धुली हुए फ्रेश सी सुबह में मेरी आँखों में झाँक लेना... दिख जाएगा झांकता हुआ, वैसे उस ख्वाब को भी देखनी है तुम्हारी शक्ल, कमबख्त धुंधला दिखाता है तुम्हें...

ये रात है, सुबह है या फिर शाम... पता नहीं क्या है, जो भी है कुछ तो होगा ही... ज़िन्दगी के कई किनारों पे आकर खो सा जाता हूँ.... पर कितना भी उलझा रहूँ इन लहरों के बहाव में, तुम्हारे क़दमों के निशां मेरी ज़िन्दगी पे साफ़ दिखते हैं... तुमने तो मेरी ज़िन्दगी में रंग ही रंग बिखेर कर रख दिए... और मैं जाहिल, समेट ही नहीं पा रहा... सारी रंगीनियाँ देखता रहता हूँ... एक-टक... एक एहसान करोगी मुझपर ?? मैं ग़र कहीं भटक गया तुम्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तो मुझे बस इतना याद दिला देना कि ये रंग ही मेरी ज़िन्दगी हुआ करते थे कभी...

कभी सोचा नहीं था कि मेरी एक गुज़ारिश का लिहाफ़ तुमपर इतना फबेगा... मेरी ज़िन्दगी के पन्नों पर तुम्हारे क़दमों की चहलकदमी ने इसे इसे एक स्वप्न बाग़ सरीखा बना दिया है, जहाँ चारो तरफ गुलाबी-नीले-पीले फूलों की खुशबुएं तैरती रहती हैं... तुम्हारे साथ बीती हर शाम ज़िन्दगी में खुशनुमा एहसास के मोती पिरोती जा रही है... देखते ही देखते कितना वक़्त साथ गुज़र गया, बीती बातें किसी ख्वाब की तरह लगती हैं, एक खूबसूरत सा ख्वाब जिसे हमदोनों ने साथ साथ जीया है...

जब तुम मेरे पास होती ये वक़्त ठहर क्यूँ नहीं जाया करता... मैं बस तुम्हें ताउम्र देखते रहना चाहता हूँ, क्या इतनी सी ख्वाईश भी वाज़िब नहीं है... मेरी शामें आजकल खाली ही गुज़र जाती हैं, तेरी एक झलक पा लेने की चाहत करना किसी पहाड़ी मंदिर पर चढ़ने जैसा मुश्किल हो गया है...

मैं अचानक से जम्प लगा देना चाहता हूँ, उस सुबह के आँगन में जब तुम्हें अपनी बाहों में भर के फिर दो कप चाय बना लाऊंगा... तुम्हारे हाथों की लकीरों को निहारते हुए उसपर अपनी ज़िन्दगी की पटरियों को बढ़ते देखूँगा... लेकिन कमबख्त ये वक़्त की दीवार है न, जम्प ही नहीं लगाने देती... वो दिन आएगा न !!! कभी-कभी डर भी तो बहुत लगता है...

उछाल दी जो तस्वीर तुम्हारी, आसमां की तरफ,
जिद्दी थी तुम्हारी ही तरह, 


वक़्त बेवक्त दिख जाती है आसमां में भी....

Monday, September 9, 2013

प्रेम समझते हैं न आप... "Hachiko... A Dog's Story"

अभी कुछ दिन पहले अजित जी से बात हो रही थी... अभी जब Listen...Amaya के बारे में लिखा था तो मेरे ख्याल से पोस्ट पसंद आने के साथ-साथ उन्हें ये भी लगा कि मैं फिल्मों का चट्टन हूँ... (रश्मि दी की पोस्ट का शब्द अच्छा लगा तो उठा लिया...) सो उन्होंने भी लगे हाथों दो-तीन फिल्में देखने की सलाह दे डाली... बाकी सब तो हमारी देखी हुयी थीं लेकिन एक इंग्लिश फिल्म का भी नाम बताया... Hachiko A Dog's Story.... हमने तो नाम भी नहीं सुना था लेकिन थोडा अलग और अच्छा सा नाम लगा तो फ़ौरन डाउनलोड पर लगा दी... सामने तीन दिन का वीकेंड भी था... कुछ ख़ास काम नहीं था, वक़्त ही वक़्त था तो पूरा मूड बना हुआ था...

ये है Hachiko....
सन 1930 के आस पास की असली तस्वीर...
खैर चलिए अब आते है फिल्म के प्लाट पर, अगर आप केवल हिंदी पिक्चरें देख कर खुश हो जाने वालों में से हैं तब तो ऐसी फिल्म के बारे में आप सोच भी नहीं सकते... आपने जैकी श्रॉफ वाली तेरी मेहरबानियाँ ज़रूर देखी होगी लेकिन ये फिल्म उससे कहीं आगे की बात करती है... ये कहानी है, नहीं-नहीं कहानी नहीं ये तो एक सच्ची दास्ताँ है.. दास्ताँ है एक जापानी कुत्ते की... सन 1924 की सच्ची दास्ताँ... फिल्म शुरू होती है बच्चों के एक क्लासरूम से, जहां एक टीचर बच्चों को अपने अपने हीरो के बारे में एक छोटा सा essay बोलने को कह रही है, एक ८-९ साल का बच्चा आकर कहता है मेरा हीरो मेरे दादाजी का कुत्ता है "Hachiko..." सारे बच्चे हंस पड़ते हैं लेकिन वो अपनी कहानी ज़ारी रखता है... जी हाँ दरअसल Hachiko उस कुत्ते का नाम है... वो बताता है किस तरह उसके दादाजी को वो कुत्ता मिला या फिर ये कहें कि Hachiko ने उन्हें ढूँढ लिया... उस बच्चे के दादाजी संगीत के एक प्रोफ़ेसर थे जो हर रोज ट्रेन से दूसरे शहर जाते थे क्लास लेने... वहीँ से लौटते हुए उनकी नज़र पड़ी Hachiko पर जो ठीक उनके सामने आकर खड़ा हो गया... उनका भी उसपर दिल आ गया और उन्होंने उसे पाल लिया... Hachiko प्रोफ़ेसर के बिना एक मिनट भी रहना पसंद नहीं करता था, सुबह जब प्रोफ़ेसर ट्रेन पकड़ने जाते तो लाख मना करने के बावजूद वो उनके पीछे-पीछे आता और शाम में भी ट्रेन की सीटी की आवाज़ सुनते ही भाग के घर से आकर स्टेशन के बाहर खड़ा हो जाता... ये सिलसिला यूँ ही चलता रहता, हर रोज़ बिना रुके... वैसे प्रोफ़ेसर ने Hachiko को ट्रेन करने की भी कोशिश की मसलन कि अगर वो गेंद फेकें तो वो दौड़ कर जाए और उठा कर लाकर दे, जैसा अमूमन सारे कुत्ते करते हैं.. लेकिन वो ऐसा कभी नहीं करता... 

बात उस दिन की है जब Hachiko प्रोफ़ेसर को स्टेशन छोड़ने जाने को तैयार नहीं हुआ... भौंक-भौंक कर कुछ कहता रहा जैसे... लेकिन प्रोफ़ेसर को कुछ समझ नहीं आया, वो उसे छोड़कर ही स्टेशन को निकल लिए... थोड़ी देर बाद देखा तो वो पीछे पीछे दौड़ा चला आ रहा है... उसने मुँह में गेंद दबा रखी थी... प्रोफ़ेसर हैरान, आज इसे क्या हुआ... उन्होंने उससे गेंद लेकर दूर फेक दिया, वो दौड़ कर गया और उठा कर ले आया... उन्होंने फिर फेका, उसने फिर लाकर दे दी... थोड़ी देर उसके साथ खेलकर प्रोफ़ेसर अपने काम को निकल लिए... Hachiko अब भी खुश नहीं था, वो भौंकता रहा... 

अरे मैं तो भूल ही गया था कि किसी भी समीक्षा में पूरी कहानी नहीं लिखते.. तो फिल्म में आगे क्या हुआ ये तो मुझे नहीं पता, आप फिल्म देखें आपको पता चल जाएगा... अगर आप अच्छी फिल्मों के शौक़ीन हैं तो याद रखिये ये फिल्म देखिएगा ज़रूर... मैं आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करूंगा... इस पोस्ट की नहीं बल्कि इस फिल्म की...
आपकी सुविधा के लिए फिल्म नीचे ही जोड़ दी है यहाँ भी देख सकते हैं और चाहें तो यू ट्यूब पर से डाउनलोड भी कर सकते हैं...

चलते चलते...
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मुज़फ्फरनगर का हाल आपमें से किसी से छुपा नहीं है, किसने किया, दोष किसका है इस लफड़े में नहीं पड़ना चाहता... हाँ एक अपील ज़रूर है अगर आप भी "कुत्ते" शब्द को एक गाली की तरह इस्तमाल करते हैं तो मत कीजिये... यकीन मानिए वो हमसे बेहतर हैं और प्यार और ज़िन्दगी हमें इन बेजुबानों से ही सीखने की ज़रुरत है... चलिए बाकी बातें आपके ये फिल्म देखने के बाद...

Friday, September 6, 2013

मेरे मम्मी-पापा तो टीचर हैं... Happy Teacher's Life... :-)

करीब 7-8 साल पहले की बात है... पटना में रहता था, छुट्टियों में घर जा रहा था... उन दिनों पटना से कटिहार के लिए जनशताब्दी एक्सप्रेस चलती थी, चेयर यान होता था.. रिजर्वेशन काउंटर पर स्पेशल रिक्वेस्ट से विंडो सीट ली थी, बाहर के खूबसूरत मौसम का लुत्फ़ उठाने के इरादे से... बमुश्किल फतुहा स्टेशन क्रोस हुआ होगा कि सामने की सीट पर होते शोर से ध्यान भंग हुआ...
4-5 लड़के अपनी-अपनी डीगों की दूकान खोल कर बैठे थे... बात मोबाईल के टॉपिक से शुरू हुयी, उन दिनों किसी भी मोबाईल का होना अपने आप में ही स्टेटस सिम्बल था... 
दो शिक्षक मेरी ज़िन्दगी के...
"अरे हम नया मोबाईल खरीदे नोकिया 6600...."
"क्या बात कर रहा है ???? "
"हाँ बे इसमें कैमरा भी है, विडियो भी चलता है मस्त...."
"अबे दिखा न.."..
फिर एक-आध घंटे तक सब गाने और विडियो इंजॉय करते रहे... फिर उसके बाद सब अपने अपने खानदान के रुतबे के बारे में बात करने लगे.. किसी ने कहा मेरे पापा डॉक्टर हैं, कोई अपने चाचा को सरकारी अफसर बता रहा था तो कोई बैंक मनेजर... उनके सो काल्ड रिश्तेदारों की कितनी पहुँच और पहचान है वो भी बता रहे थे... किसी को पूरा गाँव जानता था तो किसी को पूरा जिला.. उन डीगों पे जाऊँगा तो पूरा पन्ना इसी में लग जाएगा... बस समझ लीजिये कि गुंडे-मवालियों से लेकर मंत्री तक से पहचान थी उनकी...
इसी बीच उनमें से  किसी लड़के ने दबी आवाज़ में कहा कि "मेरे पापा तो टीचर हैं... "
थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद एक लड़के ने कहा, मस्त है यार, जो भी हो यार मास्टरी में बहुत आराम है लेकिन... आराम से जाओ कोनो काम नहीं, दिन भर गप्पें मारो, स्वेटर बुनना है तो वो भी कर लो... बच्चों को दो-तीन ठो सवाल दे दो हल करने को और दिन खतम... 
फिर सिलसिला शुरू हुआ अपने अपने रिश्तेदारों के काम गिनाने का... 
"भई हमरे पापा को तो कभी कभी रात-रात को अस्पताल जाना पड़ता है..."
"अरे मत पूछ हमरे चाचा के घर में तो दिन भर कोई न कोई आता ही रहता है, रविवार को भी कोई छुट्टी नहीं..."
"अरे अभी क्लोजिंग चल रहा है न तो पापा तो बैंके में रहते हैं हमेशा..."
वो बेचारा लड़का चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था... और वो अपनी कहानियां सुनाये जा रहे थे... मेरा दिल किया मैं इस वार्तालाप में कुछ बोलूँ, लेकिन बेवजह फटे में टांग डालने का मन नहीं था मेरा...
इसी बीच बरौनी आ गया, उन दिनों वहां इंजन चेंज होता था तो करीब ४५ मिनट रूकती थी ट्रेन... सब नीचे उतरकर इधर उधर टहला करते थे... प्लेटफोर्म पर टहलते हुए मैंने उस लड़के को देखा, पता नहीं क्या मन हुआ उसके पास गया और बस इतना ही बोला...
"अरे टेंशन मत लीजिये, हमरे पापा भी टीचर हैं और ई सब लड़का लोग जानता नहीं है कि एकरा डॉक्टर, अफसर, मनेजर सब पढ़ा कोनो न कोनो टीचरे से है..."   
ये बोलकर मैं बिना उसका रिएक्शन देखे आगे बढ़ गया... जब ट्रेन में वापस आया तो वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था, शायद उसे अपने पापा की अहमियत समझ में आ गयी थी...

खैर ये तो था एक बीता किस्सा, लेकिन निजी तौर पर भी मुझे वाकई इस बात पर गर्व होता है कि मेरे माँ-पापा दोनों शिक्षक के रूप में सेवानिवृत हुए...

पता नहीं आपमें से कितने लोगों ने दो-दूनी चार फिल्म देखी हो... एक मिडल क्लास शिक्षक की कहानी है.. थोड़ी कॉमेडी भी है और थीम भी अच्छा है... आपको पसंद आएगी... :-)

चलते-चलते...
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ये पोस्ट देर से सिर्फ इसलिए पोस्ट कर रहा हूँ क्यूंकि वो सिर्फ एक दिन याद करने लायक नहीं है... वो तो हमेशा आपके साथ हैं जब भी आप ज़िन्दगी में किसी भी दिन कुछ भी कुछ हासिल करते हैं... :-)
याद रखिये, दुनिया में सिर्फ और सिर्फ शिक्षक के पास ही ऐसी जादुई क्षमता है कि एक अच्छे खासे इंसान को मुर्गा बना सके... एंड ऑन अ सीरियस नोट, एक गधे को इंसान बना सके...

Happy Teacher's Day Life... :)
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