Sunday, October 20, 2013

अधूरे खत....

सर में बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, लेकिन लिखना है... कुछ तो लिखना है ही... बाहर रात लगभग ठहर चुकी है, हाँ अंदर भले ही एक झंझावात से घिरा होकर लिख रहा हूँ... कई दिनों से ज़िंदगी के प्लेयर पर पौज़ बटन खोजने का दिल कर रहा है, आस-पास एक तरह का कान-फाड़ू संगीत बजता रहता है... इस सब से अलग मैं चाहता हूँ कि थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन मैं अतीतजीवी हो जाऊँ... या फिर बस थोड़ी देर ठहरकर उन बीती पगडंडियों को निहारूँ, कितना कुछ पीछे छूट गया... मैं कुछ भी पीछे नहीं छोडना चाहता था, लेकिन क्या कुछ समेट कर चलता... काश ऐसी कोई पोटली होती जहां सबको समेट लिए जाता... कई ऐसे लोग, ऐसी बातें हैं जो बहुत याद आती हैं... अब तो वहाँ नहीं लौट सकता कभी भी.... अतीत में जीए हुये लम्हें वर्तमान में आकर अरबी आयत में तब्दील हो जाते हैं, उससे पवित्र और कुछ भी नहीं लगता... 

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ज़िंदगी की कोई मंजिल नहीं होती, इन्फैक्ट मंजिल नाम की कोई वस्तु जीवन में होती ही नहीं... Exist ही नहीं करती, जो होता है बस रास्ता होता है, अगर आप ज़िंदगी के इन रास्तों पर हड़बड़ी मे गुज़र जाना चाहते हैं तो मंजिल पर पहुँचने के बाद उन रास्तों का हिसाब नहीं दिया जा सकेगा... बस इन्हीं रास्तों पर चलने का सुख लेना चाहता हूँ, सिर्फ तुम्हारे साथ... कोयले की धीमी धीमी आंच पर ज़िंदगी को पकाना चाहता हूँ... 

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कभी तुमसे वादा लिया था कि तुम साथ चलोगी हमेशा... बड़ी मिन्नत से वो प्यार का बीज इस रिश्ते की ज़मीन पे बोया था, आज तो ये इत्तू सा पौधा निकल आया है इश्क का... शायद अब इस पौधे को और ज्यादा खयाल की ज़रूरत होगी, यकीन मानों उस अतीत में जाकर झांक आया हूँ तुम्हारी आखों को, बला की सी खूबसूरत हैं.... वहीं अतीत के कुछ पन्ने पलटा तो ये नज़र आया कि कभी ये भी कहा था तुमसे... याद तो होगा ही तुम्हें न... 

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कभी कभी जी करता है, तुम्हें यहाँ इस भीड़ से कहीं दूर ले चलूँ, एक ऐसे जहाँ की तरफ जहाँ अक्सर तुम मेरे सपनों में आती हो.. एक ऐसी पगडण्डी पर जहाँ तुमने कितनी ही बार बेखयाली में मेरे हाथों में हाथ डालकर मुझे प्यार से देखा है... एक परिधि है जहाँ डूबते सूरज की आखिरी किरण मेरे इस प्यारे से चाँद को देखकर सकुचाते हुए दिन को अलविदा कर देती हैं, और एक हसीं सी शाम मेरे नाम कर जाती हैं... एक ऐसी आजादी है जब कलेंडर की तारीखें नहीं बदलती, जब दिन के गुज़र जाने का अफ़सोस नहीं होता... ये एक ऐसा जहाँ है जहाँ मुझे हमेशा से ही ये यकीन है कि मेरी इस गुज़ारिश का लिहाफ़ ओढ़े हुए एक दिन जरूर मेरे साथ चलोगी...

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कितना कुछ लिखने का सोचा तो था लेकिन, अभी बीते दिनों ही किसी ने मेरी इस तरह की पोस्ट्स को अधूरे खत का नाम दिया था, इसलिए इस पोस्ट को अधूरे खत की ही तरह अधलिखा छोड़ रहा हूँ.... ये पढ़ते हुये अपनी आखें बंद कर लेना, कई अनखुले-अधखुले जज़्बात तुम्हारी आखों पर मेरे होंठों के निशान छोड़े जाएँगे.. और हाँ परेशान मत होना ये पोस्ट लिखते-लिखते सर दर्द भी खत्म हो चुका है.... 

Tuesday, October 15, 2013

इन्सानों की बलि...

दृश्य 1
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गेंदे का पौधा आज बहुत उदास था उसने गुलदावदी से कहा यार तुम्हारी खुशबू मेरी खुशबू से अच्छी है क्या ??? गुलदावदी इतराते हुये बोली, हाँ और नहीं तो क्या.... गेंदे ने बुझे मन से अपना ऑफिस बैग उठाया और दफ्तर की ओर चल पड़ा... पीछे से गुलदावदी ने आवाज़ लगाई आज दफ्तर से जल्दी आना, शाम को मंदिर जाना है... आते वक़्त रास्ते से इन्सानों के कुछ अच्छे बाल तोड़ लाना.... घने देख के ही लेना... और उनमे डैंड्रफ और जुएँ भी न हों.... 
शाम को लौटते वक़्त गेंदे ने देखा सभी इंसान गंजे ही हैं...
"कमबख्त पूजा वाले दिन बालों की बड़ी किल्लत होती है, साले सब सुबह सुबह ही सारे बाल काट ले जाते हैं... "
बड़ी देर बाद खोजने पर एक 4-5 साल की बच्ची दिखी, गेंदे ने सोचा "यार बिना बालों के ये कितनी बेरंग दिखेगी, फिर सोचा अगर इसके बाल नहीं लिए तो आज की पूजा अधूरी रह जाएगी...
फिर फटाफट उसके छोटे-छोटे बाल तोड़कर वो घर की तरफ चल पड़ा... 
"ये बाल चढ़ाने से पूजा ज़रूर सफल हो जाएगी.... "

दृश्य 2
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लंच का समय है, कैंटीन की कुर्सियों पर बैठे बकरे, ऊंट और भैंस अपनी अपनी घास खा रहे हैं... भैंसे ने बात शुरू की,  "अरे दोस्तो  **** पूजा आ रही है, कैसे मनाना है, कुछ सोचा है ??? "
"सोचना क्या है..."
"अरे पिछली बार जो हमने **** जाति के इन्सानों की बलि चढ़ाई थी, सब बेकार हुआ... देवी माँ खुश ही नहीं हुईं... गजब सूखा पड़ा था, साली हरी घास खाने को तरस गए थे... इस बार तो **** की ही बलि चढ़ाएँगे, मैंने पढ़ा है वो इंसान की सबसे ऊंची ब्रीड है.... इस बार माँ जरूर प्रसन्न होंगी..."
बकरे ने बात आगे बढ़ाई,
"यार इस बार तो अपने त्योहार पर हमने करीब 10000 हाई ब्रीड इन्सानों को इकट्ठा करके बांध रखा है... "
"वाह, क्या बात है..."
"हाँ, इस बार **** जरूर खुश होगा, जन्नत नसीब होगी हमारे बकरों को...."
ऊंट के चेहरे पर गजब का तेज़ आ गया,
"भाईजान, हमने भी तो 10000 गोरे इंसान मंगवाएँ हैं विदेश से, सुना है उसकी बलि देने पर सारी मिन्नतें पूरी हो जाती हैं...."
"वाह इसका मतलब मरने के बाद हम सबको ही स्वर्ग मिलेगा..."
ये बोलकर तीनों ठहाका लगाते हैं, और पूरा कैंटीन उनकी हंसी से गूंज पड़ता है..

लेखक की चिप्पी ...
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क्या किसी भी धर्म में ऐसा कोई त्योहार है जिसमे धार्मिक कारणों से छायादार पेड़ लगाने, फूल-पत्तियों के पौधे लगाने, या फिर पशु-पंछियों को आज़ाद करने की रस्म हो ??? इंसान द्वारा किया गया कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना फूलों को तोड़े हुआ पूरा नहीं होता.... कई अनुष्ठानों में अलग अलग पशुओं की बलि देने की भी प्रथा है... मैं यहाँ किसी धर्म विशेष को उचित या अनुचित ठहराने के लिए नहीं आया, बस सवाल इतना सा है कि उस ऊपर वाले के नाम की धार्मिक गतिविधियों में हम इसे धरती का भला क्यूँ नहीं कर सकते.... धर्म की पूर्ति के लिए पर्यावरण विध्वंस क्यूँ ???

ये उस युग की बात हो सकती है जब पेड़-पौधे और पशुओं की प्रजातियों की सभ्यता ने विकसित रूप ले लिया होगा... सोचिए अगर भैंस, बकरे और ऊंट भी इतने ही विकसित और धार्मिक होते और वे अपने काल्पनिक इष्ट जनक को खुश करने के लिए इंसानों की बलि दिया करते तब इंसानों तुम्हें कैसा लगता ???
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