Thursday, May 22, 2014

गुबार है, निकल जाये तो बेहतर है....

मुझे नहीं पता इंसान धोखा देने पर या झूठ बोलने पर कब मजबूर होता है.... लेकिन जब ऐसा कुछ हो कि आपको बहुत गर्व हो कि आपने किसी को धोखा दे दिया तो याद रखना चाहिए कि सामने वाला मूर्ख नहीं बल्कि उसे आप पर भरोसा है, धोखा उसे ही दिया जा सकता है जिसे आप पर भरोसा हो.... खुद को उम्र मे बड़ा और समझदार बताने वाले कभी कभी ऐसी हरकत कर गुजरते हैं कि उनकी समझदारी दो कौड़ी की भी नहीं रह जाती... अब तक कई लोगों ने विश्वास तोड़ा है, मानसिक और आर्थिक दोनों तरीके से नुकसान पहुंचाया है शायद इसलिए कि मैं जल्दी ही किसी पर भरोसा कर लेता हूँ... लेकिन खुशी है कि उन लोगों में से सभी लोगों की नज़दीकियों से उबर गया हूँ, कुछ लोग कहते हैं कि असल बात तब हो जब वो लोग मेरे नजदीक रहते हुये भी मुझपर कोई प्रभाव न डाल पाएँ, लेकिन संभव नहीं हो पाता... हाँ, चाहूँगा ज़रूर कि ऐसा हो पाये भविष्य में, इसलिए कुछ अनचाहे लोगों को न चाहते हुये भी ज़िंदगी में रख छोड़ा है, देखते हैं नज़रअंदाज़ कर के भी...

ज़िंदगी की करवटें बहुत कुछ सिखाती हैं, कुछ करवटें ज़िंदगी के बिस्तर पर सिलवटें भी छोड़ जाती हैं... सिलवटें जितनी जल्दी सीधी हो जाएँ बेहतर है... पिछले डेढ़ साल इम्तहान के थे, कई मानसिक दवाब थे, बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जिससे चाहकर भी दूर नहीं भागा जा सकता था... लेकिन इतना यकीन था कि एक दिन कुछ न कुछ तो बदलेगा ही... ज़िंदगी की बैकफुट पर सही वक़्त का इंतज़ार कर रहा था...

आज जब बहुत वक़्त बाद ज़िंदगी ने शांति के कुछ पल सौंपे हैं, तो एक गहरी सांस लेकर खुले दिल से इसे एंजोय करना चाहता हूँ, फायनली खुशी और सुकून आ ही गया है हिस्से में... मैं ये नहीं कहता कि अब ज़िंदगी में सब कुछ अच्छा ही होने वाला है लेकिन कुछ बुरे हालातों और लोगों से उबरना अच्छा लग रहा है.....

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ना ही इस पोस्ट में कुछ साहित्यिक है और न ही कुछ पढ़ने लायक....  मन में एक गुबार था उसे बाहर निकाल देने की कोशिश है बस...

Saturday, May 3, 2014

रंग बदलते रहते हैं....

मुद्दतों बाद ज़िंदगी की किताब के कुछ पन्ने तिलमिला से रहे हैं... कहते हैं आप अपने दर्द को कितना भी जला दें उसका धुआँ साथ ही चलता रहता है, कभी भी घुटन पैदा कर सकता है... ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है जब गाढ़ी रूमानियत में डूबे कुछ लफ्ज रोपता रहता था सूखी पड़ी अलमारियों पे... यूं डूब कर लिखना तब शुरू किया था जब मेरी किताब के कुछ पन्ने हमेशा-हमेशा के फाड़ दिये थे तुमने.... न जाने तुम्हारे लिए कैसे इतना आसान हो गया, यूं मुँह फेर लेना... न कुछ समझ आया और न ही तुमसे कोई जवाब ही मांगा आज तक, कई सालों तक मेरे कमरे की अधखुली अलमारी में से वो तोहफा झाँकता रहा जो खरीद रखा था किसी खास दिन के लिए... एक दिन यूं ही जब नाहन* की नारंगी शामों के साये में मेरे मकान के पास वाले नुक्कड़ पर कभी एक पहाड़ी गीत सुन लिया था, समझ तो कुछ नहीं आया लेकिन इतना दर्द जैसे कोई बादल फट पड़ा हो किसी अंजान खाई के ऊपर... बर्फ की चादर पर कई सारी यादें तना दर तना उखड़ती चली गईं... 
वक़्त अब बीत चुका है, मैं बहुत आगे निकल आया और शायद तुम भी... हाँ कुछ लम्हों से आज भी कुछ यादें झरती रहती हैं, लेकिन सच बताऊँ तो विश्वास नहीं होता कि कभी तुम्हारे जैसा भी कोई था मेरी ज़िंदगी में... अच्छा ही हुआ तुमने उतार लिया अपने अस्तित्व का बोझ मुझपर से...
आज जब कनखियों से अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो तुम कहीं नज़र नहीं आती, बस एक चेहरा दिखता है जिसने अचानक से आकर ज़िंदगी को करीने से सज़ा दिया है... तुम्हें पता है हम अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं, बिना मतलब ही यूं ही... लेकिन इसी झगड़े के बीच हमारा प्यार बूंद-बूंद पनपता रहता है, हथेलियों से समेटने की कोई कोशिश नहीं... मुस्कुराहटें आती रहती हैं और इसबार उन उसकुराहटों का रंग अलग सा दिखता है... मैं खुश हूँ सच में बहुत खुश... जब भी गौर से उसकी आखों में देखूँ न तो बस लगता है मानो कह रही हों.... मुझे तुमसे प्यार है....
शायद यही ज़िंदगी है... शुक्रिया ज़िंदगी.... शुक्रिया मुझे यूं जगाए रखने के लिए, मेरी दुआओं को हर उस जगह पहुंचाते रहना जहां से मेरे लिए दुआएं निकलती रहती हैं....
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*नाहन: एक खूबसूरत सा शहर हिमाचल का
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