Tuesday, January 28, 2014

मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न...

अच्छा लिखने की पहचान शायद यही होती होगी कि किस तरह छोटे छोटे पहलुओं को एक धागे में पिरो कर सामने रखा जाये... मैं पिछले कई दिनों से कितना कुछ लिखता हूँ, जब भी मौका मिलता है शब्दों की एक छोटी सी गांठ बना कर रख देता हूँ,लेकिन इन गाठों को फिर एक साथ बुन नहीं पाता, दिमाग और दिल के चरखे इन  गांठ लगे शब्दों को संभाल नहीं पाते.... कई-कई ड्राफ्ट पड़े रहते हैं बिखरे बिखरे से....
शायद अच्छी ज़िंदगी भी इसी तरह बनती होगी न, छोटे-छोटे रिश्तों और खुशियों को आपस में पिरोकर !!! लेकिन मैं तो वो भी नहीं कर पाता, किसी को भी ज़िंदगी के धागे में पिरोने से डर लगता है, शायद वो इस बेढब खांचे में फिट न हो तो... एक अकेले कोने में यूं बैठा गाने सुनते रहना चाहता हूँ, सोचता हूँ, ज़िंदगी यूं ही निकल जाये तो कितना बेहतर है....

ज़िंदगी के कई सिमटे-सिकुड़े जज़्बात हैं जो यूं कह नहीं सकता...  अलबत्ता शब्दों की कई गाठें बिखरी पड़ी थीं, लाख कोशिश की पर जोड़ न सका तो कुछ को यूं ही रैंडमली चुन के उठा लाया हूँ....

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गरीबी सिर्फ सड़कों पर नहीं सोती,
कुछ लोग दिल के भी गरीब होते हैं
अक्सर उनके बिना छत के मकानों में
आसमां से दर्द टपकता है.... 

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हर सुबह एक बेरहम बुलडोजर आता है,
सपनों के बाग को रेगिस्तान बना जाता है... 

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सुन ए सूरज,
थोड़ा आलस दिखा देना इस बरस 
तेरे आगे आने वाले कोहरे में
गुम हो जाना है सदा-सदा के लिए...

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यहाँ हर किसी की अपनी व्यथाएँ हैं,
तभी शायद सभी को 
दूसरों का रोना शोर लगता है.... 

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कुछ कहानियाँ मैं बिना पढे ही
बीच में अधूरा छोड़ आता हूँ,
कुछ चीजें अधूरी ही बड़ा सुख देती हैं....

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जाने क्यूँ आज कांप रहे हैं हाथ मेरे,
तुम्हारे सपनों के बाग
डरा से रहे हैं मुझे,
कैसे इन रंग-बिरंगे सपनों पर 
मैं अपने गंदले रंग के खंडहर लिख दूँ... 

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मैंने तुम्हारे समंदर भी देखे हैं,
नीले रंग के
दूर-दूर तक फैले हुये,
कई लहरें आती हैं उमड़ती हुयी
और किनारों पर आकर लौट जाती हैं....
एक समंदर और है मेरे अंदर कहीं,
जो हर लम्हा हिलोरे मारता है,
उसका कोई किनारा नहीं,
उसकी सारी नमकीन लहरें
मैं भारी मन से पी जाया करता हूँ, 
मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न... 

Friday, January 24, 2014

कोई भी नज़्म तुमसे बेहतर तो नहीं....

हो जाने दो तितर-बितर इन
आढ़े-तिरछे दिनों को,
चाहे कितनी भी आँधी आ जाये,
आज भी तुम्हारी मुस्कान का मौसम
मैं अपने दिल में लिए फिरता हूँ...

तुम्हारे शब्द छलकते क्यूँ नहीं
अगर तुम यूं ही रही तो
तुम्हारी खामोशी के टुकड़ों को
अपनी बातों के कटोरे में भर के
ज़ोर से खनखना देना है एक बार...

ये इश्क भी न, कभी पूरा नहीं होता
हमेशा चौथाई भर बाकी बचा रह जाता है,

अपनी ज़िंदगी की इस दाल में
उस चाँद के कलछुल से
तुम्हारे प्यार की छौंक लगा दूँ तो
खुशबू फैल उठेगी हर ओर
और वो चौथाई भर इश्क
रूह में उतर आएगा.....

गर जो तुम्हें लगे कभी
कि मैं शब्दों से खेलता भर हूँ
तो मेरी आँखों में झांक लेना,

लफ़्ज़ और जज़बातों से इतर
तुम्हें मेरा प्यार भी मयस्सर है...

Tuesday, January 14, 2014

यूं ही करवट लिए कुछ सोचता हूँ मैं....

छत पे पड़े
कुछ सूखे पत्तों के ढेर की तरह
कुछ यादों को भी
फैला देना है इस बार
बीते साल की बारिश में सील गए है...


कुरमुरे सपनों को उड़ा देने का
मज़ा ही कुछ और होता है...

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भले ही वो सुंदर हों लेकिन,
कोई अपनी पहुँच का दायरा
आजमाता नहीं उनपर,
उस हरे रंग के कंटीले झाड के ऊपर
वो प्यारे से दिखते

लाल-लाल कैक्टस के फूल...

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खुद से बातें करते हुये
बाहर का कुछ देखना
मुझे गंवारा नहीं होता,

दो पल सांस लेकर

मैं अपने अंदर का
शून्य पी जाना चाहता हूँ....

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हर साल हम बिठाते हैं
कई-कई मूर्तियाँ,
हर भगवान को
हम मिट्टी में समेट लाते हैं,

फिर सोचता हूँ
कैसा हो अगर
उन मूर्तियों की तरह ही
हम कर दें अपनी बुराइयों का भी

अंतिम विसर्जन....

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मेरे दिल के आईने को
तुम्हारी आखें किसी
अलसाई भोर की मानिंद लगती हैं,

थोड़ी करवट लो तो
इनकी तलहटी में
अपने प्यार की
लाल धूप लिख देता हूँ...

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तुम्हारे प्यार की
सोंधी मिट्टी पर
आज लिखने बैठा हूँ
अपने दिल से अंकुरित होते
कुछ हरे हरे शब्द...

Sunday, January 12, 2014

बेवजह...

हथेलियों पर धान की कुछ
अधपकी बालियाँ उभर आई हैं,
जब पलटता हूँ उन्हें तो
वो बालियाँ अलफाज बन उतर आती हैं...
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एक गुलाबी सा शहर है
उसकी उल्टी-पुल्टी सड़कों पर
सपनों मे बेवजह की रेत लिखता हूँ
और उड़ा देता हूँ हर सुबह...
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आड़े-तिरछे खयालों में
ज़िंदगी के झरोखों से
कुछ नीली धूप आ जाती है,
उस धूप में पका देता हूँ अपने आप को....
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डूबते सूरज के पीछे
एक लंबी कतार देखता हूँ
ये भीड़ अगर थोड़ी जगह
मुझे भी दे तो
एक प्याला नारंगी रंग मैं भी कैद कर लूँ...
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कुछ-एक साल पहले
इक अनजानी सड़क के
नो-पार्किंग के बोर्ड के नीचे
अपने कुछ सपने पार्क कर दिये थे,
इसके जुर्माने में अपनी पूरी ज़िंदगी
चुका कर आया हूँ....


Monday, January 6, 2014

तसव्वुर-ए-ज़िंदगी...

आपका यहाँ यूं होना और मेरा लिखा पढ़ना किसी संयोग से कम नहीं... इस 7 अरब की दुनिया में आप मुझे ही  क्यूँ पढ़ना चाहते हैं, ऐसा क्या है यहाँ... यहाँ तो सबकी ज़िंदगी ही एक कहानी है, अपनी कहानियों से इतर दूसरों की कहानियों में इतनी दिलचस्पी क्यूँ भला... 50 करोड़ स्क्वायर किलोमीटर की इस धरती पर मुश्किल से 20 स्क्वायर फीट की जगह घेरा एक इंसान कंप्यूटर पर बैठा कुछ खिटिर-पिटिर कर रहा है, अपनी ज़िंदगी के पन्नों को उलट पुलट कर देख रहा है, उसे इस इन्टरनेट की दीवार पर बैठे बैठे झांकना क्यूँ पसंद है आपको... यहाँ तो आलम ये है कि मेरे घर का आईना भी मेरी शक्ल से ऊब सा गया लगता है, दीवारों की सीलन भी आंसुओं के रंग में नहाई लगती है... मेरे कमरे तक आने वाली सीढ़ियाँ हर रोज़ संकरी सी होती जाती हैं, जैसे किसी दिन बस यहीं कैद कर लेंगी मुझे...

ज़िंदगी एक नदी है, अपनी नाव उतार दीजिये... 
अगर आपको लगता है मैं कुछ अच्छा लिखता हूँ या अलग लिखता हूँ तो ये आपका भ्रम मात्र है, मैं यहाँ एक मुखौटा सा लगा कर बैठा हूँ.... इस ब्लॉग पर पड़ी एक परत सी है, कभी जो हो सके तो इस परत को उघाड़कर इसके अंदर बैठे मेरे स्वयं को देखने की कोशिश कीजिएगा.... मैं भी आपका ही अक्स हूँ जो आपकी ही तरह लड़ रहा है ज़िंदगी से, कोयले की सिगड़ी पर ज़िंदगी को सेक कर कुछ लज़ीज़ बनाने की जुगत में है....अब कहीं ऐसा न समझ लीजिएगा मैं किसी अवसाद में हूँ, मैं तो पूरी तरह से ज़िंदगी में हूँ... डूबा हुआ... ज़ोर से सांस भी लेता हूँ तो ज़िंदगी दौड़ी मेरी बाहों में सिमट आती है... ज़िंदगी को आप कसी ड्राफ्ट में सेव करके नहीं रख सकते, किसी EMI स्कीम से खरीद नहीं सकते... बस इसकी आँखों में आँखें डालकर इसका लुत्फ उठा सकते हैं.... 

किसी बच्चे का सीक्रेट झोला देखा है आपने कभी, उसमे वो हर कुछ डालता जाता है जो उसे अलग लगती है, सड़क के किनारे पड़े किसी गोल चिकने पत्थर को भी उसी मोहब्बत से देखता है जैसे उसी में उसकी ज़िंदगी बसी हो... बस यही तो है हमारी-आपकी ये ज़िंदगी भी, जो भी पसंद आता समेटते जाते हैं, कई चीजों का कोई मोल नहीं होता... बस यूं ही खुद की खुशी के लिए, खुद के साथ के लिए....

अगर आप मेरा लिखा लिखा पसंद करते हैं तो इस लिखे के पीछे की बिताई गयी उन नाम शामों में से मुझे तलाश कर लाना होगा जब मैं अकेला था और उस दर्द को तनहाई को कागज पर उतार दिया था... आपको आकर मेरी उन खुशियों में शरीक होना पड़ेगा जिन्हें बांटने के लिए मेरा पास कभी कोई न था....  तकिये में सर गोतकर बिताई गयी उन भींगी रातों का हिसाब तो मैंने नहीं मांगा और न ही दोबारा उस आवाज़ का साया मांग रहा हूँ जिसके सहारे नींद के आगोश में चला गया था, लेकिन कभी जानिए के ये सब कुछ लिखता हुआ शक्स भी आपकी तरह ही है... आपके दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती कुछ बेवजह की बातों को शब्दों की लकीरों में यहाँ उतार रहा हूँ.... मैं दरअसल मैं नहीं, आपका स्वयं हूँ... आप खुद को ही यहाँ पढ़ते हैं....
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