Friday, November 20, 2015

यूं ही सफर में सोचते-सोचते...

लोग कहते हैं इश्क़ और मेरे लबों पर तुम्हारा नाम अपने आप आ जाता है....

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बंगलौर में
दूधिया कोहरा नहीं पसरता है कभी,
लेकिन तुम्हारे दूर होने से
मेरे दिल पे जो
उदासी का कोहरा है
उसमे मुश्किल हो जाता है
ढूँढना खुद का ही वजूद....

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जब तुम्हारे हिस्से का
आसमान उदास होगा
तो मेरे कमरे के बादल
और घने हो जाएँगे,
उस अंधेरे में
मेरे दिल की
थमी सी धड़कन
पहचान लोगी न....


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चलो न कहीं वादियों में एक छोटा सा प्लॉट लेकर डालते हैं प्यार के बीज और उगाते हैं इश्क़,
दुनिया में प्यार कम हो चला है इन दिनों...

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समंदर की गहराई की कसम खाने वाले लोग अकसर तुम्हारी आँखें देखकर अपनी जान गंवा बैठते हैं....
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ज़िंदगी के हर मोड पर किनारा तलाशते तलाशते कुछ साल पहले मुझे तुम्हारी आँखों की पलकों का सहारा मिल गया था, ऐसा लगता है जैसे किसी पिछले जन्म की बात है.... 

Wednesday, November 4, 2015

किस्सा कुर्सी का और असमंजस वोटर का...

एक तरफ वो गठबंधन है जिसने अब तक मुखमंत्री तक डिक्लेयर नहीं किया है, जीत जाने के बाद आपस में ही मार काट मचने वाली है... बिना अच्छे नेतृत्व के बिहार को चलाना और आगे बढ़ाना, भैंस के ऊपर गीत गाने जैसा है... केवल मोदी के हवाई जुमलों के नाम पर यहाँ वोटर उनको वोट दे देगा ऐसी गलतफहमी तो उनको नहीं ही पालनी चाहिए.... महा प्रधान खुले आम अपनी जाति बघारते हुये और आरक्षण बढ़ाने की बात कर रहे हैं, उस आरक्षण के लिए उनके हिसाब से वो अपनी जान की बाज़ी लगा देंगे, हालांकि जाति प्रथा के ऊपर एक लाइन भी कहीं बोलते नहीं दिखे... ज़ाहिर हैं उनको जाति प्रथा बनाए रखनी है तभी तो आरक्षण की रोटी सिकेगी...
दूसरी तरफ महागठबंधन है, जिसके साथ ऐसे लोग खड़े हैं जिनका भूतकाल खंगाला जाये तो आपके दिमाग का बफर खत्म हो जाएगा लेकिन काले कारनामे खत्म नहीं होंगे... व्यापारी और शिक्षित वर्ग वो #गुंडाराज अब तक नहीं भूला होगा...

कई लोगों का कहना है मुख्यमंत्री तो नितीश होने हैं फिर क्या तकलीफ है, तकलीफ ये हैं कि नितीश कितना भी अच्छा बोलते हों(करते भी हों) लेकिन दोनों जेब में दो छुरी लेकर वोट मांगने आए हैं....

परेशानी ये भी है कि कोई भी बिहार का विकास नहीं करना चाहता, उनको पता है जैसे जैसे यहाँ के लोगों को बाकी दुनिया की पटरी से जोड़ने लगेंगे, यहाँ उनकी जाति वाली राजनीति दम तोड़ने लगेगी... इतना तो निश्चित है 80 प्रतिशत वोट तो इस बार भी जाति के आधार पर ही पड़ेंगे...

बिहार से जुड़े हजारों मुद्दों को छोडकर आजकल तंत्र-मंत्र-ज्योतिष पर जुमले फेकने का दौर है, जैसे हमारे पास और कुछ नहीं बचा हो बात करने को...

बिहार का वोटर असमंजस में है... पिछली कई सालों से लालू को एक सिरे से हटाने के कोशिश करने वाली भीड़ इस बार लालू(महागठबंधन) को ही वोट करेगी....

इन सब असमंजस से अलग मैं जा रहा हूँ कल वोट देने, जो भी मेरी नज़र में सबसे अच्छा और शिक्षित उम्मीदवार है चाहे वो निर्दलीय ही क्यूँ न हो... वोट तो डालना ही पड़ेगा, कीमती है मेरा वोट...

Sunday, August 30, 2015

मैं इश्क़ लिखूंगा तो पढ़ोगी न...

इस शहर में बरसों से कोई नहीं आया...
बस एक सुराख़ रख छोड़ा था आसमान में
जहाँ से धूप आती है सवेरे-सवेरे,
और कभी कभी बरसात भी वहां ठहर कर जाती है...
 
याद है तुम्हें, उस आसमान में जो एक सुराख छोड़ा था कुछ साल पहले, उसके नीचे अब बहुत बड़ा जंगल उग आया है.... अलग-अलग तरह के दरख़्त है उसमे, कुछ फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ भी अठखेलियाँ करती हैं... सबके अलग-अलग रंग, अजीब अजीब सी खुशबू ... इसको अलग अलग छांट नहीं सकते, किसी की कोई अलग पहचान नहीं सब गडमड सा, सुहाना... 

ये जंगल एकदम सपनों सरीखा है न, सपना ही तो है...  क्यूंकि हकीकत में आस-पास देखो तो अजीब ही माहौल है...
मुझे नहीं लगता ये सही वक़्त है प्रेम कवितायें लिखने का जब आस-पास नफरत है, आग है, बरबादी है... लेकिन एक आखिरी सत्य तो प्रेम ही है न, बाकी सब तो तीखा है जहर से भी तेज़.... प्रेम में अगर दर्द भी है तो खट्टा सा है, एक चुटकी सपनों का नमक डाल दो सब जन्नत है....

तेरा रंग उलझ गया है,
मेरी नींद में कहीं
जो आधी रात कभी खुल जाये नींद तो
आस-पास दिखता है
तेरे प्यार का इंद्रधनुष....

तो इस शहर में कितना भी धुंधलका हो मैं प्रेम ही लिखूंगा हमेशा.... 

वक़्त के दरख़्त से बने इस कागज पर
गर मैं इश्क़ लिखूंगा तो पढ़ोगी न..

Wednesday, July 22, 2015

खरोंच...

ज़िंदगी एक मिथ्या है,
ज़िंदगी में खुश रहना एक मृगतृष्णा...
खुशियाँ चिराग है एक रोशनी का,
और उसके ठीक नीचे छुपा है गमों का अंधेरा...

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तुम्हारी आखें एक झूला है,
जिसमे मैं ज़ोर ज़ोर से उड़ान भरता हूँ,
पर तुम्हारे हर एक आँसू के साथ
पलट कर ज़मीन पर गिर जाता हूँ...

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ये तन्हाई की खरोंच
दिल तक बहुत ज़ोर से छिलती है,
इस चुभन को निहारते हुये
क्या मैं रो सकता हूँ सुकून से दो पल के लिए...

Monday, July 20, 2015

ज़िंदगी खूबसूरत है, काश ये बात सच हो...

अपने देश से हर किसी को प्यार होता है... पर भारत के लोगों का प्यार थोड़ा अलग है, उन्हें साफ-सुथरा देश चाहिए लेकिन सफाई नहीं करना चाहते, रिश्वत से उन्हें सख्त नफरत है लेकिन कुछ रुपये देकर काम बन रहा हो तो ज़रा भी पीछे नहीं हटते, बचपन में जाति-प्रथा, दहेज-प्रथा पर निबंध किसने नहीं लिखे होंगे लेकिन पूरी ज़िंदगी इन सब चीजों के सहारे ही निकालते हैं... एक दूसरे को प्रेम करना सिखाते हैं(बस सिखाते हैं) लेकिन प्रेम विवाह का नाम आते ही बिना जाने-समझे पहला जवाब ना ही होता है, कुछ बेहतरीन जगहों पर तो प्रेमी जोड़े को इस दुनिया से ही मोक्ष दे दिया जाता है... पूजा में कुंवारी कन्यायों को देवी बनाकर पूजा करते हैं फिर उनका ही खुले आम शोषण भी करते हैं... बच्चों को सिगरेट न पीने की सलाह देते हैं लेकिन खुद छुपकर चैन स्मोकर कहलाने में कूल महसूस करते हैं...

अपने भातीय समाज का ये दोहरी चादर वाला प्यार देखकर मन परेशान हो चुका है, अब तो यहाँ से जड़ें जुड़ गयी हैं मेरी भी, चाहकर भी उड़ान नहीं भर सकता... यहाँ लोग अलग अलग तरीके से अपने भारतीय होने पर गर्व करते हैं, पर मुझे आज कल दुख ज्यादा होता है इस बात का...

मैंने अपनी मर्ज़ी से एक निर्णय लिया और न जाने कितने रिश्ते पल भर में बदल से गए, मेरे भी और उसके भी... समझ नहीं आता कहाँ जाकर अपनी खुशियों की दुहाई माँगूँ... मैं कमजोर नहीं पड़ रहा लेकिन इन बेफिजूल की बातों में हिम्मत दिखाने से खुद को भी चोट लगती है... 

इतनी बात तो पक्की है अगली बार भारत में तो जन्म नहीं लेना चाहता, ऐसी किसी भी जगह नहीं जहां इंसान अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी के फैसले न ले सके, उसके लिए उसे समाज की इजाजत लेनी पड़े... आपको ऐसा देश मुबारक, उसपर गर्व करते रहिए....

Saturday, July 11, 2015

जाने ये सिरफिरा कहाँ तक पहुंचेगा...

जाने इस सोहबत का असर कहाँ तक पहुंचेगा,
इस बज़्म में मेरी नज़मों का सफर कहाँ तक पहुंचेगा,

गर गुमनाम हो गयी हों इन आँखों में खामोशियाँ मेरी,
तो उन लबों में उलझे एक बोसे का असर कहाँ तक पहुंचेगा,

तेरी हर ज़िद पर नींद के बुलबुले हवा मे घुल से जाते हैं,
जाने मेरी हकीकत में तेरे ख्वाबों का घर कहाँ तक पहुंचेगा,

सजदे में झुक जाता है ये दिल तेरी मोहब्बत की इबादत में,
दुआएं लेकर निकले इन परिंदों का असर कहाँ तक पहुंचेगा,

समंदर रश्क किए बैठा है अपनी गहराई का लेकिन,
उसके एक कोने में बसा ये लावारिस शहर कहाँ तक पहुंचेगा...


Tuesday, July 7, 2015

टर्निंग 30...

खुशी एक नए पड़ाव पर पहुँचने की...
कहते हैं न, वक़्त को बीतते देर नहीं लगती... मैंने भी कहाँ सोचा था कि ज़िंदगी की धुरी पर घूमता ये वृत्त इतनी जल्दी इस मुकाम तक पहुँच जाएगा... कभी किसी रेडियो चैनल पे सुना था 30's. That's like real adulthood. क्या सच में !!! 

मुझे उस दौर के पीछे छूटने का कोई अफसोस तो नहीं है, जी भर के जिया उस वक़्त को...  

Previous decade was full of drama, fun, heartbreak, romance and many other things. I did many things right, screwed up plenty other things too and in that process I enjoyed a lot. Many things made me proud of myself, many were embarrassing. I can't say whether I am prepared for my 30's, but even I was not prepared for my 20's either. 

I don't how m gonna take up this new challenge to be as energetic as my previous era, but definitely I need to do it more. I need to buckle up for certain new challenges which are knocking the door for my next decade of life. (Will let you guys know, what I will be going through...)
समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ, किसको किसको शुक्रिया करूँ... मुझे जीवन देने वाले मेरे माँ-पापा से लेकर, मेरे हर हमसफर को, हर दोस्त-हर दुश्मन, हर सुख-हर दुख, हर ठोकर को, हर कांटे को उस हर एक शय को जिसने इस ज़िंदगी को समझने में मेरी मदद की... हर नुक्कड़, हर गली, हर सड़क जहां जहां अपने पैरों को घिसट कर ज़िंदगी की इस रेस में भागने लायक बना... हर बिस्तर, हर छत, हर घर जहां मैंने अपनी ज़िंदगी के लिए सपने देखे... मेरा लिखा हर एक पन्ना, मेरी ली हर एक तस्वीर जो मुझे मेरे होना का एहसास दिलाती है... कितना कुछ-कितने लोग, जाने कितने लोगों ने कितने तरीके से मेरी इस ज़िंदगी में अपना अपना अंश डाला है...

मुझे पता है अपने जन्मदिन पर इंसान के पास कहने को बहुत कुछ होता है लेकिन फिलहाल लोगों की शुभकामनाओं के बीच खुश महसूस कर रहा हूँ, न किसी से कोई शिकवा है न कोई शिकायत.. ज़िंदगी हमेशा खूबसूरत थी और हमेशा खूबसूरत ही रहेगी.... बस नज़रिये की बात है... और मेरा नज़रिया  उतार चढ़ाव पर ज़रूर रहे पर ज़िंदगी से मोहब्बत तो बढ़ती ही जाती है...

आज कल सोशल नेटवर्किंग का दौर है, लोगों के फोन भले न आयें दुआएं ज़रूर पहुँच रही होंगी यही उम्मीद है...

So regardless of what I feel today, I am thankful of everything, I have now more than ever.  am sure everything will fall on place where it supposed to be. Just because I am in my 30's that doesn't mean I have turned older.  I am still the same Guy with dreams in his eyes and wonder in the heart... 

Thanks everyone, Thanks Life... शुक्रिया, शुक्रिया ज़िंदगी...

Sunday, July 5, 2015

माँ, मैंने आपकी खामोशियाँ पढ़नी सीखी हैं...

वैसे तो कहा जाये तो हम तीनों भाइयों मे से सबसे ज्यादा वक़्त मैंने ही माँ के साथ बिताया है, लेकिन एक वर्किंग मदर अपने बच्चे को कितना वक़्त दे पाती है वो तो सबको पता ही है... उस कम वक़्त में भी जब माँ के पास कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता था, बस उनके चेहरे के हाव-भाव पढ़ने की ज़रूरत अपने आप महसूस हो गयी, फिर न जाने कब मैं इस काम में इतना दक्ष हो गया कि आज भी माँ कुछ कहे न कहे शब्द अपने आप बुनने लगते हैं... 

जब फोन करता हूँ उधर से आई एक हेलो की आवाज़ से सब कुछ पता चल जाता है... हो सकता है ये गुण सब बच्चे अपने हिसाब से डेव्लप कर लेते हों, और ऐसा कर लेने पर खुशी भी मिलती हो... 

आज भी आपको अपने प्रमोशन के बारे में  बताने के लिए फोन किया तो आपकी वो खामोश सी खुशी हौले हौले से मेरे दिल में उतर गयी... आपका कुछ कहना, न कहना कोई माने नहीं रखता क्यूंकी आपकी खामोशियों के शब्द तो तभी मेरे अंदर आ गए थे जब आप मुझे ये दुनिया दिखाने के लिए तैयार कर रही थीं... 

Tuesday, June 23, 2015

स्मोकिंग किल्स एंड सो डज दिस सोसाइटी...

लिखना न लिखना अक्सर मूड स्विंग पर निर्भर करता है, और थोड़ा बहुत वक़्त की उपलब्धता पर भी... लेकिन पिछले कुछ दिनों से ज़िंदगी के कई पहलू से गुजरते हुये आज वाकई निराश हूँ, इसलिए नहीं कि ज़िंदगी में कुछ अच्छा नहीं हो रहा, हम ऐसा कह भी नहीं सकते क्यूंकी शायद जब अच्छा हो रहा हो तो हम इसकी खुमारी में इतना खोए रहते हैं कि वो वक़्त कब गुज़र जाता है पता भी नहीं चलता...

ये निराशा या उदासी जो भी कह लूँ दरअसल इस बात पर ज्यादा है कि जो हो रहा है उसपर मेरा ज़ोर न के बराबर है, मैं चाह कर भी कुछ नहीं सकता सिवाय इस बात को लेकर रोने के कि ज़िंदगी के इम्तहान खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे... मुझे नहीं पता कि ज़िंदगी में इतना निराश और अकेला पिछली बार कब हुआ था, शायद तब जब तुम मेरी ज़िंदगी में नहीं आई थी... 

दुनिया से लड़ने की हिम्मत में मेरे अंदर कभी कमी ज़रूर रही हो लेकिन मैं किसी न किसी तरीके से वहाँ हमेशा पहुँच गया जहां पहुँचना चाहता था.... शायद इस बार भी पहुँच जाऊंगा, लेकिन हर बार इस लड़ाई में मेरा कितना वक़्त यूं ही जाया हो गया... ज़िंदगी की इस भाग दौड़ में अब मैं इतना समय भी नहीं निकाल पाता कि, ढंग से रुक कर दो सांस ले सकूँ, उदास होने पर थोड़ा रो सकूँ.. कहते हैं रोने से मन हल्का हो जाता है  लेकिन आज कल न रोने का वक़्त है न ही किसी बात पर दुखी होने का, ज़िंदगी बस एक रोबोट की तरह चली जा रही है....

सोचा था, कुछ बदलाव के झोंके तुम्हारे रूप में आएंगे तो ज़िंदगी शायद बदल जाएगी लेकिन अब हम दोनों के पास ही वक़्त नाम की शय कम ही गुजरती है...

बहुत दिनों बाद फ्रस्ट्रेट होकर कुछ लिखने बैठा हूँ, सिर्फ इसलिए कि किसी को कुछ कह सकूँ या अपना हाल बाँट सकूँ उतना वक़्त और भरोसा दोनों ही नहीं है आज कल...

उदास हूँ, निराश हूँ.... बस यही कि हमेशा सब ठीक ही हुआ है तो ये भी ठीक हो जाएगा....

Disclaimer:- मैं सिगरेट नहीं पीता क्यूंकी It can Kill me One day, लेकिन इस समाज का क्या जिसके  बेवकूफाना सवालातों की वजह से मैं रोज मरता हूँ... 

Tuesday, June 2, 2015

हमको कुछ नहीं आता है पर गाय हमारी माता है...

साहब- गाय हिंदुओं की माता होती है इसलिए हमें उसका सम्मान करना चाहिए, उसकी पूजा करनी चाहिए...

मैं-अच्छा साहब गाय कब से हमारी माता है, मतलब किसी वेद में किसी ग्रंथ में, कहीं ऐसा उद्धरण जहां से पता चले कि अगर हम गाय को माता न माने तो हम हिन्दू ही नहीं हैं... 

साहब- सब कुछ उद्धरित हो ये ज़रूरी तो नहीं, गाय हमारी माता है तो है, हमें उसका सम्मान करना चाहिए..... 

मैं- बराबर कह रहे हैं साहब, लेकिन फिर हम पिता, चाचा, मामा का सम्मान क्यूँ नहीं करते.... 

साहब(गुस्से में)- तुम हिन्दू हो या नहीं तुम्हें अपनी संस्कृति का मज़ाक बनाते शर्म नहीं आती....

मैं- माफ कर दीजिये सर, गलती हो गयी... अच्छा हम जो ये बेल्ट, पर्स, जूते पहनते हैं वो भी तो हमारी माँ की ही चमड़ी से बनता है, हम ये सब उपयोग क्यूँ करते हैं... आपके जूते भी तो उसके ही लग रहे हैं... 

साहब- --------------------

मैं- हमें तो ये सब रोक देना चाहिए.... 

साहब- हाँ क्यूँ नहीं हम ये सब बैन कर देंगे... 

मैं- क्या निर्यात भी बंद कर देंगे ???

साहब- ---------------------

मैं- अच्छा, जब हमारी माता सड़क किनारे कचरे में से पोलिथीन बीन कर खाती रहती है तब आप क्या करते हैं....

साहब- -------------------

मैं- अच्छा साहब, ये सब छोड़िए.... ये बताइये जो आपको असली माँ है जिसने आपको जन्म दिया है, दिन भर में कितने घंटे आप उसकी सेवा करते हैं.... 

साहब- -------------------

Wednesday, May 27, 2015

समानांतर धाराएँ...

दो दिन जो समानांतर हैं,
आपस में कभी मिल नहीं सकते,
लेकिन दिखते नहीं है ऐसे,
टेढ़ी-मेढ़ी सरंचनाएँ हैं इनकी,
मैं मिलता हूँ दोनों से
अलग अलग वक़्त पर...
सब कुछ वही रहता है, 
लेकिन मैं वो नहीं हूँ
जो मैं था आज के पहले
मैं बदलता रहता हूँ
गिरगिट के रंग की तरह...
फिर भी मुझे शंका होती है
मैं वही हूँ या
बदल जाता हूँ हर बार,
एक पूरा दिन
अकेला बिता लेने के बाद,
पता नहीं मैं हूँ या नहीं हूँ,
लेकिन जब था तब नहीं था....

Tuesday, May 5, 2015

क्रमशः...

मैं अंगारे सी धधकती
नज़्में लिखना चाहता हूँ
कि कोई छूए भी तो
हाथ झुलस जाएँ,
मेरे लफ़्ज़ों के कोयले से
आग को विशालतर कर
इस मतलबी दुनिया को
जला देना चाहता हूँ 
और बन जाना चाहता हूँ
इस ब्रह्मांड का आखिरी हिटलर...

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इंसान किसी और के गम में
या क्षोभ में नहीं रोता,
न ही रोना कमजोरी है कोई ...
रोना तो
बस जरिया है सेल्फ-डिफेंस का,
खुद को जंजीरों में कैद करने के बजाय
दूसरों के मन में दहशत बिठा देना,
आखिर सेल्फ-डिफ़ेंस मे की गयी
हत्या भी हत्या नहीं कहलाती...


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इंसान का खुश होना एक झूठ है 
और खुश न होना उससे भी बड़ा झूठ,
उसका दूसरा झूठ 
हमेशा पहले झूठ से 
बड़ा होता है, 
बढ़ता रहता है झूठ का व्याज
दिन-ब-दिन,
फिर वो एक झूठ बेचकर 
दूसरा झूठ खरीदता जाता है,
और इस तरह बन जाता है
झूठ का सच्चा सौदागर...

Sunday, April 19, 2015

बकासुर रसोई में...

एक वैबसाइट है JustEat, उनका स्लोगन है... Don't Cook, Just Eat... भई हमें तो बड़ी आपत्ति है इस स्लोगन से, क्यूँ न पकाएँ साहब !! जनाब ने स्लोगन तो रख दिया लेकिन खुदई को जब भूख लगती होगी तो अपने किचन की ही याद आती होगी... खुद के बनाए घर के खाने से भी स्वादिष्ट होती है कोई चीज भला, साफ-सुथरी जगह पर कम पैसों में बना लजीज खाना... अब जिनके हाथों में मेहंदी लगी हो वो खाएं होटल का खाना, 10 गुने दाम देकर वही खाना खाएँगे और फेसबुक पर चेक-इन दिखा के हीरो बन जाएँगे....

वैसे तो खाना बनाना कभी हमारा शौक नहीं था, हम तो शायर किसिम के आदमी थे... लेकिन जैसे शायरों की शायरी बिना दारू के बाहर नहीं निकलती, वैसे ही हमारे शब्द हमारे गुड़-मुड़ करते पेट के अंदर जमा रहते हैं.... खाना अंदर गया तो सारे जज़्बात ढुलक-ढुलक के बाहर आते हैं.... किसी भुक्खड़ ने कहावत भी हमारे जैसों के लिए ही लिखी हो शायद, क्यूंकी हमारे दिल का रास्ता बराबर हमारे पेट से ही होकर जाता है...  ऐसा भी नहीं है कि हमने कभी बाहर का खाना खाया ही नहीं, अब घर से निकले 13 साल से ज्यादा हो गए, हर जगह खाया लेकिन वो स्वाद कहीं नहीं मिला.... मिलेगा भी कैसे, जब खाना खुद के लिए और खुद की खुशी से बनाया जाये तब तो आएगा स्वाद...

अपन को अब भी याद है कि किचन में हमारी क्या मस्त धमाके के साथ हुयी थी, जब पहली बार चावल बनाया था तो प्रेशर-कुकर के सेफ़्टी वॉल्व ने 21 तोपों की सलामी दी थी, हम भी कहाँ हिम्मत हारने वाले थे ढक्कन खोल के बनाना शुरू किया, जितना भी पढ़ा था सारा फिजिक्स लगाने के बाद सही-सही चावल-पानी-समय का अनुपात निकालकर दोबारा ढक्कन बंद करने की हिम्मत दिखाई... थोड़े गीले ज़रूर बने थे लेकिन कसम से, इससे स्वादिष्ट तो कुछ नहीं खाया था इससे पहले.... खुद के बनाए खाने का स्वाद, ऐसा जैसे समुद्र मंथन करके अमृत निकाल लिया हो... ये बात अलग है कि वो अमृत हम किसी और को खिला देते तो वो भी "नीलकंठ" ही बन जाता...

हम पिछले एक साल से अकेले ही अपना फ्लैट लेकर रह रहे हैं, एकांत अच्छा लगता है न हमको... वैसे तो हम बहुत शांत गंभीर टाइप के इंसान हैं लेकिन जब भी खाना बनाने किचन में घुसते हैं तो बकासुर की आत्मा हमारे अंदर चली आती है, सोचते हैं जाने का-का बना लें कि दकच के खाने का मज़ा आ जाये... वैसे अगर आपको लगता है खाना बनाना कोनो आसान काम है तो आप बहुत सही सोच रहे हैं, बस आपके अंदर "फूड-स्विंग" होते रहने चाहिए....

चलिये अब आम जनता की बात करते हैं, बंगलौर में आधी से ज्यादा ऐसी जनता मिलेगी जो अपने हॉस्टल में मिलने वाले खाने से परेशान है... दिन भर का वही रोना, खाना अच्छा नहीं मिलता, अरे साहब तो बना लीजिये इसके लिए कौन सा हाथों में मशीन की ज़रूरत है....

वो तो भला हो हमारे कॉलेज के दोस्तों का कि उनकी संगत ने खाना बनाना सिखा दिया, और ऐसे दोस्तों का भी जिनके साथ रहे और उनको कुछ नहीं आता था, अब इससे एक अच्छी बात ये हो गयी कि हमें फुल एक्सपोजर मिल गया... वैसे भी ये ज़िंदगी में इतना तो समझ आ ही गया कि अगर सही समय पर एक्सपोजर न मिले तो इंसान पप्पू या गुड्डू बन के ही रह जाता है...

अब एक और बात है जो कीलियर करनी ज़रूरी है, जब भी हम खाने-वाने की फोटो फेसबुक पर डालते हैं तो हमारे जैसे कई बेचलर्स जल-भून के राख़ हुआ चाहते हैं और ये तक कह डालते हैं कि भई कभी बुलाओ खाने पे... ये साले फेसबुक ने भी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया है कि जब तक दस लोगों को जला न लो मज़ा नहीं आता.... खैर हम भी दाँत निकाल के कह देते हैं हाँ भई आओ और खुदई बना के खा लेना, हम भी कुछ मदद कर देंगे, अब साहब इनके हाथों में कोई मेहंदी लगी है या ये हमारे जमाई बाबू हैं जो इनको हम बना के खिलाएँ.... हाँ, अब कोई "खास" मेहमान हो तो बात अलग है....

आस-पास नज़र फिराने पर, खाने बनाने के और भी कई फायदे नज़र आ रहे हैं जो पर्सनल तौर पर शायद शादी के बाद पता चलें, अब अगर उस फायदे के बारे में ज्यादा बात किए तो जनता टांग खीचने लगेगी.... बाकी अपने देवांशु और PD भैया तो अपना जलवा दिखा ही रहे हैं बियाह के बाद...

चलिये बाकी बातें सीधे किचन से करते हैं, आज इतवार के शुभ अवसर पर हमने पूरी अय्याशी की, तड़ातड़ फोटो भी फेसबुक पर ठेल मारी... और जैसा यकीन था लोग-बाग मूंह बिसार के अपना लार समेटते रह गए... चलिये आप लोग भी ई बाजू वाला फोटो देखिये और (जो करना है कर लीजिये, हमको क्या.... )...

रात हो गयी और हम चले खाना बनाने, अगर आलस चरम पर है तो बाहर का खाना खाइये... और अगर किचन है तो जाइए खाना बनाइये और बोलिए 'बकासुर महाराज की... "जय..."

Tuesday, April 14, 2015

एकम एक, एक दूनी दो, एक तिया तीन...

आज की तारीख देख रही हो न.... तुम मानो या न मानो ये तारीख़ तो महज एक छलावा भर है... किसने कहा कि तुम्हें इसी दिन मुझसे प्यार हुआ था... क्या पता एक हफ्ते पहले हुआ हो, या एक महीने पहले या फिर सात जन्म पहले ही... हाँ बस ये तारीख ही है जो हमें याद है सलीके से, बाकी के जज़्बातों को तो तारीखों का जामा पहनाना मुश्किल ही है...
अजीब बात है न, हम ये तारीख ही तय नहीं कर पाते कि हमें प्यार हुआ कब था... अब प्यार कोई बाइनरि फ्लैग थोड़े न है, जो एक और सिफ़र के बीच ही सिमट जाये....
प्यार के इस analog सिग्नल को कितना भी ग्राफ में उतार लो पता कभी नहीं चलेगा कि आखिर किस Dimension पर दिल हाथ से निकल गया...

सुबह दफ्तर जाने की हड़बड़ी है और नींद ने भी आंखो में दस्तक दे दी है... बस एक इश्क़ का बटन ही है जो बंद होने का नाम नहीं ले रहा, उसपर ये बंगलौर का कातिल आशिक़ाना मौसम....

मैंने तुम्हारे लिए बहुत कुछ लिखा है, आगे भी लिखूंगा लेकिन क्यूँ न आज अपनी खामोशीयों को कुछ कहने दें.... आखिर उन लंबे सुहाने रास्तों पर टहलते हुये कई बार हमारी खामोशियों ने
भी बहुत कुछ कहा है एक दूसरे से....

Sunday, March 29, 2015

मेरी बातें अनछुइ सी रह जाती हैं इन दिनों....

आकाश में कुछ रंग बिरंगे फूल रोप दूँ तो,
तुम्हारी हर उदासी के ऊपर
फूलों की खुशबू गिरेगी ....
उस खुशबू से
तुम खुश तो हो जाओगी न....

****************

आसमां की झूलती खिड़कियों पे आईना है,
ठीक वैसे ही जैसे मेरी खिड़की पे लगा है...
तुम्हारी शक्ल आधी दिखे तो
तुम आईना नीचे कर लगा लिया करती हो,
कह दो तो आसमां भी झुका दूँ
कि देख सको
खिड़की के उस पार
तुम्हारी शक्ल के साथ इश्क भी है मेरा....

****************

धीमी सी आंच है इस दिल की सिगड़ी में,
इसमे जितनी तेरी याद जलेगी,
इश्क उतना ही कुंदन होगा....

****************

तुम्हारा चेहरा न गोल है न चौकोर
आकार बदलते हैं कुछ चेहरे
इस चाँद की तरह
होता भी है और कभी-कभी नहीं भी,
लेकिन जब नहीं भी होता
तब भी मुस्कुराता रहता है
छुप-छुप कर....

Wednesday, February 25, 2015

हर ज़र्रे से इश्क है मुझे....

प्यार कभी अधूरा नहीं होता,
वो हमेशा उतना ही पूरा होता है
जितनी कि
जिस्मों की जद्दोजहद के बाद 
उस आखिरी-क्षण की उत्तेजना...

****

मेरे शब्दों के कोई
सिर-पैर नहीं होते,
जब तक अंदर रहें
मन के कोने में
बिलबिलाते रहते हैं,
मैं इन शब्दों को पचा नहीं पाता
अपच से पीड़ित मेरे मन से निकले  
इन अनंत शब्दों के बीज से
उग आते हैं कई घने जंगल,
मैं उन जंगलों में बैठ कर
अपने अस्तित्व को नकार दिया करता हूँ....  

****

कभी-कभी सुबह खिड़कियों से आती रोशनी
अच्छी नहीं लगती
मैं रहना चाहता हूँ अंधेरे में
बस और थोड़ी देर,
इस अंधेरे को अपने अंदर
खीच लेना चाहता हूँ
सिगरेट के उस आख़िरी कश की तरह....

**** 

धरती खीच लाती है
हर रोज इस धूप को,
मैं खुद को रज़ाई में गोतकर
तैरना चाहता हूँ
इस गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ,
इस खिड़की से आती हुई
इस नुकीली धूप के सिरे को उधाड़कर
जला देना चाहता हूँ... 

Tuesday, February 17, 2015

तुम ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी,
तुम धारणा हो मेरी
अकेलेपन के जंगलों में
अचानक से मिले
इक कल्पतरु से छन कर
आती हुयी छांव हो मेरी...

गयी शाम
एक हल्का सा बादल
समेट रखा था,

एक शिद्दत से
जो बारिश की कुछ बूंदें
निचोड़ी उस बादल से,
लम्हा-लम्हा जोड़ कर जो की
तुम वो साधना हो मेरी...

तल्ख़ हुए हैं कई बार
शायद कुछ शब्द मेरे,
उसी तरह जैसे
कभी-कभी मैं झुँझला जाता हूँ
अपने आप से भी, 
खुद से लड़ते हुए
चलता हूँ जिसके साथ हमेशा
तुम वही ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी...
तुम साधना हो मेरी.... 

डिस्क्लेमर :- एक-दो पंक्ति सुनी थी उससे ही पूरा कुछ लिख डाला...

Monday, January 19, 2015

नींद जो ख़्वाब में आती है...

जागती आँखों के सपने
अक्सर मुझे परेशान करते हैं,

मैं सोना चाहता हूँ
हवा में औंधे मुंह किए
गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ,
चाहता हूँ कि
ख़्वाब में आए नींद का झरोखा कोई,
घड़ी का चलना भी
डायल्यूट हो जाये
मेरी साँसो की तरह...

खुद से लड़ते झगड़ते हुये
कई बातें जो मैं भूल चुका हूँ
उन बातों की अधूरी लिस्ट को भी
Shift+Delete कर देना चाहता हूँ,

अगर जो सुकून और खुशी
अब इन कंक्रीट के जंगलों में ही
मिलते हों तो,
डूबते हुये नारंगी सूरज का जो लम्हा
कैद है मेरी इन आँखों में 
उसे भी मैं इन ऊंची इमारतों के अंदर ही
जमा देना चाहता हूँ सीमेंट से
हमेशा हमेशा के लिए... 

Sunday, January 18, 2015

छोटा सा लम्हा...

कभी-न-कभी
हम कलैंडर के
उस पन्ने पर पहुंचेंगे
जब तकिये पर अटकी
उन आखिरी झपकियों के सहारे,
हम देख रहे होंगे
अपनी ज़िंदगी के कुछ आखिरी सपने,
हमारे सपने यहीं रहेंगे,
इसी धरती पर
चाहे हम रहें न रहें.... 

Saturday, January 17, 2015

मैं तब भी यहीं मिलूंगा...

क्या तुमने सोचा है कभी
कोई ऐसा दिन
जब मैं कहानियाँ कहता हुआ
खुद कहानी बन कर रह जाऊंगा,
जब ये रेंगता हुआ वक़्त
मुझे फांक कर निगल जाएगा,
जब मेरी उन साँसो की गुल्लक से
ज़िंदगी के सिक्के बिखर रहे होंगे,
चेहरे पर बढ़ती
सफ़ेद दाढ़ियों के पीछे से
झांकेंगी कुछ ढुलकती झुर्रियां... 

शरीर की बची हुयी गर्मी से
मैं ताप रहा हूंगा
कुछ बचे हुये पल...

उस क्षण में भी
मैं लिखते रहना चाहता हूँ
बस एक आखिरी कहानी,
क्यूंकी मुझे यकीन है
कि जब तक मैं लिखता रहूँगा
वो कहानियाँ मेरा होना सँजोये रखेंगी...

मैं ज़िंदा रहूँगा
और सांस लेता रहूँगा
इन्हीं कहानियों के पीछे... 

Thursday, January 15, 2015

बैकस्पेस ⬅

कीबोर्ड पर खिटिर-पिटिर करके
जाने कितने अफसानो को
हवा दी थी कभी,
कीबोर्ड का हर एक बटन
मेरे सुख-दुख का
साझीदार हुआ करता था...

वो बटन अब मुझे
दफ्तर में मिलते हैं
मैं उनसे अब न जाने
क्या-क्या लिखवाता रहता हूँ
उन टाइप किए शब्दों से अब
ज़िंदगी की खुशबू नहीं आती
कुछ बेजान से कोड और स्क्रिप्ट या फिर
कभी किसी एक्सेल पन्ने को भरते हुये,
मेरी ही तरह
इस कीबोर्ड को भी
घुटन तो होती होगी न...
ज़िंदगी के मेरे इन दो पहलुओं
के बीच "स्पेस" बटन जितना
फासला हो गया है...

फिर कभी जब खुद को फुसला कर 
बैठता हूँ कि
लिखूँ कुछ ज़िंदगी के बारे में
तो हर बार लिखकर
मिटा दिया करता हूँ,
अपने लिखे से
मैं खुद संतुष्ट नहीं हूँ आज-कल,
इन दिनों "बैकस्पेस" बटन से
दोस्ती कुछ ज्यादा ही गहरी हो गयी है...

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