Sunday, April 19, 2015

बकासुर रसोई में...

एक वैबसाइट है JustEat, उनका स्लोगन है... Don't Cook, Just Eat... भई हमें तो बड़ी आपत्ति है इस स्लोगन से, क्यूँ न पकाएँ साहब !! जनाब ने स्लोगन तो रख दिया लेकिन खुदई को जब भूख लगती होगी तो अपने किचन की ही याद आती होगी... खुद के बनाए घर के खाने से भी स्वादिष्ट होती है कोई चीज भला, साफ-सुथरी जगह पर कम पैसों में बना लजीज खाना... अब जिनके हाथों में मेहंदी लगी हो वो खाएं होटल का खाना, 10 गुने दाम देकर वही खाना खाएँगे और फेसबुक पर चेक-इन दिखा के हीरो बन जाएँगे....

वैसे तो खाना बनाना कभी हमारा शौक नहीं था, हम तो शायर किसिम के आदमी थे... लेकिन जैसे शायरों की शायरी बिना दारू के बाहर नहीं निकलती, वैसे ही हमारे शब्द हमारे गुड़-मुड़ करते पेट के अंदर जमा रहते हैं.... खाना अंदर गया तो सारे जज़्बात ढुलक-ढुलक के बाहर आते हैं.... किसी भुक्खड़ ने कहावत भी हमारे जैसों के लिए ही लिखी हो शायद, क्यूंकी हमारे दिल का रास्ता बराबर हमारे पेट से ही होकर जाता है...  ऐसा भी नहीं है कि हमने कभी बाहर का खाना खाया ही नहीं, अब घर से निकले 13 साल से ज्यादा हो गए, हर जगह खाया लेकिन वो स्वाद कहीं नहीं मिला.... मिलेगा भी कैसे, जब खाना खुद के लिए और खुद की खुशी से बनाया जाये तब तो आएगा स्वाद...

अपन को अब भी याद है कि किचन में हमारी क्या मस्त धमाके के साथ हुयी थी, जब पहली बार चावल बनाया था तो प्रेशर-कुकर के सेफ़्टी वॉल्व ने 21 तोपों की सलामी दी थी, हम भी कहाँ हिम्मत हारने वाले थे ढक्कन खोल के बनाना शुरू किया, जितना भी पढ़ा था सारा फिजिक्स लगाने के बाद सही-सही चावल-पानी-समय का अनुपात निकालकर दोबारा ढक्कन बंद करने की हिम्मत दिखाई... थोड़े गीले ज़रूर बने थे लेकिन कसम से, इससे स्वादिष्ट तो कुछ नहीं खाया था इससे पहले.... खुद के बनाए खाने का स्वाद, ऐसा जैसे समुद्र मंथन करके अमृत निकाल लिया हो... ये बात अलग है कि वो अमृत हम किसी और को खिला देते तो वो भी "नीलकंठ" ही बन जाता...

हम पिछले एक साल से अकेले ही अपना फ्लैट लेकर रह रहे हैं, एकांत अच्छा लगता है न हमको... वैसे तो हम बहुत शांत गंभीर टाइप के इंसान हैं लेकिन जब भी खाना बनाने किचन में घुसते हैं तो बकासुर की आत्मा हमारे अंदर चली आती है, सोचते हैं जाने का-का बना लें कि दकच के खाने का मज़ा आ जाये... वैसे अगर आपको लगता है खाना बनाना कोनो आसान काम है तो आप बहुत सही सोच रहे हैं, बस आपके अंदर "फूड-स्विंग" होते रहने चाहिए....

चलिये अब आम जनता की बात करते हैं, बंगलौर में आधी से ज्यादा ऐसी जनता मिलेगी जो अपने हॉस्टल में मिलने वाले खाने से परेशान है... दिन भर का वही रोना, खाना अच्छा नहीं मिलता, अरे साहब तो बना लीजिये इसके लिए कौन सा हाथों में मशीन की ज़रूरत है....

वो तो भला हो हमारे कॉलेज के दोस्तों का कि उनकी संगत ने खाना बनाना सिखा दिया, और ऐसे दोस्तों का भी जिनके साथ रहे और उनको कुछ नहीं आता था, अब इससे एक अच्छी बात ये हो गयी कि हमें फुल एक्सपोजर मिल गया... वैसे भी ये ज़िंदगी में इतना तो समझ आ ही गया कि अगर सही समय पर एक्सपोजर न मिले तो इंसान पप्पू या गुड्डू बन के ही रह जाता है...

अब एक और बात है जो कीलियर करनी ज़रूरी है, जब भी हम खाने-वाने की फोटो फेसबुक पर डालते हैं तो हमारे जैसे कई बेचलर्स जल-भून के राख़ हुआ चाहते हैं और ये तक कह डालते हैं कि भई कभी बुलाओ खाने पे... ये साले फेसबुक ने भी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया है कि जब तक दस लोगों को जला न लो मज़ा नहीं आता.... खैर हम भी दाँत निकाल के कह देते हैं हाँ भई आओ और खुदई बना के खा लेना, हम भी कुछ मदद कर देंगे, अब साहब इनके हाथों में कोई मेहंदी लगी है या ये हमारे जमाई बाबू हैं जो इनको हम बना के खिलाएँ.... हाँ, अब कोई "खास" मेहमान हो तो बात अलग है....

आस-पास नज़र फिराने पर, खाने बनाने के और भी कई फायदे नज़र आ रहे हैं जो पर्सनल तौर पर शायद शादी के बाद पता चलें, अब अगर उस फायदे के बारे में ज्यादा बात किए तो जनता टांग खीचने लगेगी.... बाकी अपने देवांशु और PD भैया तो अपना जलवा दिखा ही रहे हैं बियाह के बाद...

चलिये बाकी बातें सीधे किचन से करते हैं, आज इतवार के शुभ अवसर पर हमने पूरी अय्याशी की, तड़ातड़ फोटो भी फेसबुक पर ठेल मारी... और जैसा यकीन था लोग-बाग मूंह बिसार के अपना लार समेटते रह गए... चलिये आप लोग भी ई बाजू वाला फोटो देखिये और (जो करना है कर लीजिये, हमको क्या.... )...

रात हो गयी और हम चले खाना बनाने, अगर आलस चरम पर है तो बाहर का खाना खाइये... और अगर किचन है तो जाइए खाना बनाइये और बोलिए 'बकासुर महाराज की... "जय..."

2 comments:

  1. बकासुर महराज की जय एक अच्छी पोस्ट स्वाद औए सेहत से भरपूर. कुछ और सीखना बनाना हो तो नया ब्लॉग शुरू किया है खाने के ऊपर मेरे ब्लॉग से लिंक मिल जायेगा फ़ूड ब्लॉग की अभी शुरुवात ही है

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