Sunday, August 14, 2016

हर खाली दिन एक धीमा जहर है...


इन दिनों ऐसा लगता है जैसे मैंने अपना वजूद एक बार फिर से खो दिया है, चाहे कितना भी खाली वक़्त मिल जाये समझ नहीं आता कि क्या करना है... कितनी ही बार पूरा दिन ऐसे ही बिस्तर पर पड़े पड़े ही गुज़ार दिया है... पता नहीं क्यूँ मुझे कोई इतना अच्छा नहीं लगता कि उससे बात की जाये, लगता है अकेले ही वक़्त बिता लिया जाये तो बेहतर है... इतने सालों की जद्दोजहद के बाद जमापूंजी के रूप में बस कुछ खूबसूरत यादें हैं, अब तो उनको याद करके भी आँसू ही आते हैं... "डैडी" फिल्म में एक संवाद था न कि "याद करने पर बीता हुआ सुख भी दु:ख ही देता है...." मैं शायद उम्र के ऐसे दौर पर हूँ जब मूड स्विंग्स होते हों, लेकिन जिस रंज और दर्द के शहर में अपना वजूद तलाश रहा हूँ वो मुझे अपने ब्लॉग या डायरी में ही मिलता है.... कितनी अजीब बात है मेरे ब्लॉग का पता हर किसी के पास है अलबत्ता यहाँ कोई अपना दर्द पढ़ने नहीं आता, शायद कुछ लोग ऐसे होंगे जो इस दर्द में अपना दर्द तलाश कर दो आँसू बहा लिया करते होंगे... मैं भी तो कितनी ही बार निकलता हूँ इधर उधर के बेरंग पते पर खुद का दर्द तलाशते हुये... गम के खजाने तो हर किसी के होते हैं न, बस सबके सन्दूक का रंग अलग अलग होता है... मेरी सन्दूक का रंग स्याह सा पड़ गया है... कल सुबह से मुझे एक ही खयाल आ रहा है कि मुझे एक स्वेटर बुनना चाहिए, माँ खाली होती थी तो यही करती थी पहले... पर वो भी बुनू तो किसके लिए... 
 
कहते हैं, रोने से जी हल्का हो जाता है पता नहीं मेरा क्यूँ नहीं होता... हाँ जब रो चुकता हूँ तो किसी से मिलने का दिल नहीं करता, आईने के पास से भी गुज़रता हूँ तो वो चीख चीख कर मुझसे मेरा पुराना चेहरा मांगता है... ऐसे में बस एक ही चेहरा है जो मुझे सुकून देता है, बस उसे न ही कभी इस बात का इल्म होता है न ही होगा कभी.... काश कभी जैसे मैंने ज़बरदस्ती उसकी उदासी में खलल डाल कर उन्हें अपना बनाया था वो भी इसी तरह ज़बरदस्ती मुझे मेरे होने की याद दिला दे पर उसकी बेखबरी मेरे हर खाली दिन के ऊपर लिपटी हुयी होती है... 

वक़्त से बड़ा शिकारी कोई नहीं होता... जो सबसे बेहतरीन लम्हें होते हैं न वो उसका शिकार करता है, फिर उसकी खाल को सफाई से उतार कर अपने ड्राइंग रूम में सज़ा लेता है... हम उस खाल को देखकर उसपर गर्व तो कर सकते हैं है लेकिन उस लम्हों की खाल के पीछे के तमाम अतृप्त इच्छाएँ नहीं देख पाते... मैंने तो कभी किसी चाँद-सितारे की मन्नत भी नहीं मांगी बस कुछ ख्वाब थे जो दर-दर टुकड़े हो चुके हैं... काश वो ख्वाब मैं दोबारा देख सकता तो उसके ऊपर दाहिनी ओर छोटा सा स्टार लगा देता 'टर्म्स एंड कंडीशंस अप्लाई' वाला लेकिन वक़्त के पहियों में रिवर्स गियर जैसा कुछ नहीं होता... 

सुबह से मोबाइल सायलेंट करके उसे पलट कर रखा हुआ है लेकिन हर दो मिनट में पलट के देखता हूँ कि शायद उसके आने की आहट सुनाई दे जाये... लेकिन आज का दिन ऐसे गुज़रा जैसे किसी अंधे के हाथ की दूरबीन.... बेवजह, आज का दिन नहीं भी आता तो क्या फर्क पड़ता था....
बारिश का मौसम इस धरती के ज़ख़्मों पे मरहम सा लगता होता होगा न, लेकिन जलते हुये मांस पर पानी डाल दो तो उसके धुएँ में आस पास की सारी गंध खो जाती है... 


ऐसा लगता है जैसे ये ज़िंदगी कई करोड़ पन्नों का एक उपन्यास है जिसकी कहानी बस उसके आखिरी पन्ने पर लिखी है, बाकी सारे पन्ने खाली और हम सीधा आखिरी पन्ने तक नहीं जा सकते.... एक एक पन्ना पलटना ही होगा हमें.... 

Wednesday, August 3, 2016

कुछ लिखते रहना ज़रूरी है न, बस तुम्हारे लिए....

मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कहीं इधर-उधर के कई नुक्कड़ों पर थोड़ा थोड़ा सा छूट सा गया हूँ... मेरे द्वारा लिखा हुआ सब कुछ, मेरे उस वक़्त का पर्यायवाची है... मुझे पर्यायवाची शब्द शुरू से ही पसंद नहीं आते, जाने कितने ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ एक जैसे होते हैं लेकिन हर शब्द हर जगह उपयोग नहीं किया जा सकता... हिन्दी व्याकरण में मुझे अनेक शब्दों के एक शब्द बहुत पसंद था, तुम्हारा मेरी ज़िंदगी में होना भी अनेक शब्दों का एक शब्द है...   

तुमने जितने छल्लों में बांटकर मुझे ये वक़्त दिया है न, कलेंडर की कई तारीखों के कोनों में फंसा हुआ वो वक़्त टूथपिक से निकालना पड़ता है.. हो सके तो हर शनिवार इन छल्लों को मिलाकर एक पुल बना दिया करो न इस जहां से उस जहां तक... 

मैं तुम्हारी आखों को 
शब्दों में लिखता हूँ,

मेरी नज़मों में तुम
इश्क़ पढ़ती हो...

सच, तुम्हारी आखें ही इश्क़ हैं,

जिनमें खुद के गुमशुदा हो जाने की
रपट लिखवा दी थी मैंने पाँच साल पहले ही..
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