Monday, December 12, 2016

कांच के शामियाने... सिर्फ उपन्यास या किसी का सच...

ये उपन्यास जब आने वाला था तब ही सोचा था पढूंगा ज़रूर, जब आया तब थोडा उलझ गया निजी ज़िन्दगी के उलट फेरों में... इस बीच फेसबुक और ब्लोग्स पर समीक्षाएं आनी शुरू हुयी.... जब भी कोई फिल्म या किताब देखनी-पढनी होती है तो उसकी समीक्षा पढना अवॉयड करता हूँ... इससे पूर्वाग्रह बनने का खतरा रहता है इसलिए... लेकिन न चाहते हुए भी नज़र तो पड़ ही जाती है, तो एक आध झलक से ये समझ में आ गया कि नारीवादी उपन्यास है.... अलबत्ता ये "वादी" वाला फंडा मुझे आज तक समझ नहीं आया... ये वाद वो वाद... इतिहास-नागरिक शास्त्र में भी समाजवाद, पूंजीवाद से लेकर साम्राज्यवाद की परिभाषा याद करते करते "वाद" शब्द से ही नफरत हो गयी... और ये "नारीवादी" कहलाना अच्छी बात है या बुरी पता नहीं, कितनी बार तो मेरी माँ ही मुझे नारीवादी कह देती हैं और जिस तरह से कहती हैं उससे साफ़ लगता है कि उनको पसंद नहीं कि मैं नारीवादी बनूँ... इस बात का मैं क्या मतलब निकालूँ पता नहीं... 

खैर, वापस किताब पर आते हैं... "नारीवादी" उपन्यास सुखद तो नहीं हो सकता है इतना मुझे यकीन था तो मैंने इसे पढना कुछ दिनों के लिए टाल दिया, शायद उस समय मैं उदास होना अफोर्ड नहीं कर सकता था... २० अगस्त शनिवार की रात यूँ ही खाली बैठे बैठे उठा ली किताब पढने के लिए... बमुश्किल २० पन्ने पढने के बाद रश्मि दी को मेसेज किया कि बहुत डार्क उपन्यास लग रहा है पढूं या नहीं... उन्होंने मना कर दिया, मत पढो... अब मैं और गफलत में था, फिर नहीं पढने का फैसला किया... 
काफी देर तक आधी-उनींधी नींद में करवट बदलते बदलते फाइनली फिर से किताब उठाई.... करीब 2 बज रहे थे तो इतना यकीन था कि अगर पूरी पढ़ी तो सुबह तो हो ही जायेगी...

पूरी किताब पढ़ते बस खुद को यकीन दिलाता रहा कि ये बस एक कहानी है और कुछ नहीं... राजीव जैसे लोग नहीं होते और कोई जया नहीं है जो ये सब कुछ झेल रही है... गुस्सा, क्षोभ या बेबसी कुछ तो ज़रूर महसूस हुयी, बार-बार लगा कि किसी तरह इस कहानी में घुस जाऊं और जया की कुछ मदद कर सकूं.... पता नहीं ऐसे सामाजिक और पारिवारिक हालातों में कितनी औरतें जया जैसी हिम्मत दिखा पाती होंगी... कई महिलाओं ने आत्महत्या तक का कदम उठाया है, इतिहास इस बात का गवाह रहा है... "धोबी घाट" फिल्म में भी ऐसे ही एक हिस्से को डाला गया था, फिल्मों में-किताबों में हम इस तरह का कुछ पढ़ कर कितना भी दुखी हो लें लेकिन वास्तविक में अगर कहीं जया है तो उसे ये किताब पढने की ज़रुरत है ताकि वो इन हालातों से लड़कर बाहर आये, न कि घुट घुट कर जीते रहे... जब उपन्यास पढ़कर ख़त्म किया तो करीब सुबह के ५ बज चुके थे, नींद गायब थी पर थोड़ी करवट बदलते बदलते आ गयी आखिर... सबको ऐसे ही नींद आ गयी होगी ये पढ़कर वो मैं पक्का नहीं बता सकता.... 

"कांच के शामियाने" एक लड़ाई है जो सबको लड़नी आनी चाहिए.... हालाँकि ये लड़ाई इंटरवल के बाद शुरू होती तो शुरू का आधा उपन्यास बस टीस पहुंचाता है, लेकिन अन्दर रौशनी और उसको हासिल करने की हिम्मत जगानी है तो पहले अँधेरा दिखाना पड़ेगा...

ये किताब अभी भी मिल रही है वो भी बस 72 रुपये में... नहीं पढ़ी हो तो पढ़ सकते हैं... शैलेश जी के छापेखाने से नयी वाली हिंदी की इतनी अच्छी किताबें निकल रही हैं देखकर अच्छा लग रहा है... 

Monday, December 5, 2016

स्पोर्ट्स शूज़ पहनने वाली लड़कियां...


जूता भी मस्त चीज बनायी है इंसानों ने... मुझे लगता है इंसानी शरीर का सबसे मज़बूत हिस्सा पैर ही होता है लेकिन सबसे ज्यादा सुरक्षा भी पैरों के लिए ही ज़रूरी पड़ी... आखिर इस असमान ज़मीन को रौंदते हुए आगे बढ़ना ही तो ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा है... 

खैर, मेरा और जूतों का रिश्ता बड़ी देर से शुरू हुआ... हम ठहरे बिहार के एक छोटे से शहर के सरकारी बोर्ड के विद्यार्थी तो न ही कोई अनिवार्यता थी न ही कोई ज़रुरत... और तो और मुझे जूते पसंद भी नहीं थे, ऐसा लगता था जैसे बाँध दिया हो किसी ने पैरों को... जब पांचवीं में मेरा एडमिशन छोटे से अंग्रेजी स्कूल में कराया गया तो जूते की मजबूरी आन पड़ी, बड़ा मुश्किल दौर था... अकसर मैं क्लास में जूते उतार कर बैठता और पैरों को सांस लेने लायक हवा मिल जाती... अलबत्ता लडकियां जूतियाँ पहनती थीं, जो मुझे लगता था कि फीते वाले जूतों से ज्यादा आरामदेह होती होंगी.... वो चमड़े के जूतों का दौर था, स्पोर्ट्स शू नाम की चिड़िया ने शायद तब तक छोटे शहरों में सांस नहीं ली थी, बहुत हुआ तो कपड़े के PT शूज पहनते थे लोग... TV पर लोग दिखते स्पोर्ट्स शूज पहने हुए, एकदम चमक सफ़ेद भारी भरकम से.. देखने से ही ऐसे थे कि पहनने का कभी सोचा भी नहीं... 7वीं से हम फिर से सरकारी स्कूल में आ गए और फिर से हमने जूतों को अलविदा कह दिया... बिना जूतों के भी ज़िन्दगी मज़े में चलती रही... कभी कभार सर्दियों में बैडमिंटन मैच के लिए PT शूज पहनने की मजबूरी थी वो भी एक आध घंट एके लिए... 

इंजीनियरिंग में जब मैं हिमाचल रहने पहुंचा तो शायद पहली बार मैंने किसी लड़की को स्पोर्ट्स शूज पहने देखा... एक दो क्या लगभग सभी ने स्पोर्ट्स शूज ही पहने थे... हिमाचल की चढ़ाई-उतराई के लिए शायद वही जूते सही होंगे, उसपर से इतनी ठण्ड... लड़कियों के वो ज्यादातर गुलाबी या नीले स्पोर्ट्स शूज बड़े मस्त लग रहे थे, और जिस तरह से वो लडकियां एकदम आजादी के साथ तेज़ चलते हुए हिमाचल की पहाड़ी सड़कों पर चलती थीं ऐसा आत्मविश्वास मैं आज तक कभी किसी लड़की में नहीं देखा था... बिहार की लडकियां तो सलवार सूट पहने बाटा की सैंडल में धीमे क़दमों से चला करती थीं... 

मैंने भी उन्हीं दिनों अपने लिए स्पोर्ट्स शूज ख़रीदे थे, पहली बार पहना तो अक्कच जैसा लगा लेकिन जब एक दो दिन उसे पहनकर इधर उधर किया तो खुद के अन्दर भी आत्मविश्वास जैसा महसूस हुआ... उस दिन से जूतों की ऐसी आदत लग गयी जो आज तक नहीं छूटी...

तो क्या बस जूते भर पहन लेने से आत्मविश्वास आ जाता है, शायद नहीं... पर जहां तक मैंने Observe किया है, Regularly स्पोर्ट्स शूज पहनने वाली लड़कियों बाकी लड़कियों से ज्यादा confident होती हैं, कुछ तो मनोविज्ञान होता ही होगा... बहुत कम लडकियां हैं जो अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में जूते पहनती हैं, कारण कई हो सकते हैं... अभी पिछले साल की बात है जब Chembra Peak की ट्रैकिंग पर गया था वहां ज्यादातर लड़कियों ने सैंडल, फ्लोटर्स और कुछेक ने तो हील्स भी पहने थे... वो फिसलन भरी मुश्किल ट्रैकिंग करते वक़्त आस-पास कैसा नज़ारा होगा इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते.... क्या इतना मुश्किल होता है अपने Daily Routine में एक अदद जूते को शामिल करना, पता नहीं...

खैर, इसमें कोई दो राय नहीं कि वो लडकियां मुझे अलग से दिख जाती हैं क्यूंकि वो शूज उन्हें सर झुका कर छुईमुई झुण्ड में चलने वाली लड़कियों से अलग करते हैं... वो बिंदास चलती हैं, कैसे भी रास्तों पर बिना लडखडाये... ज़रुरत पड़े तो दौड़ भी लगाती हैं लिफ्ट को रोकने के लिए... दौड़ते वक़्त कमर सीधी होती है और हाथ भागते हैं यूँ आगे पीछे एक रनर की तरह.... स्कूटी की बजाय बाइक चलाना पसंद करती है और उन जूतों के साथ वैसे ही किक मारती हैं जैसे दुनिया को एक मेसेज देना हो, कैपिटल लेटर्स में... उनके कदम छोटे छोटे नपे तुले नहीं होते, ये लम्बे लंबे डग होते हैं उन लड़कियों के... वो स्पोर्ट्स शूज पहनने वाली लडकियां.... 
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