Sunday, September 3, 2017

वक़्फ़ा...

मुझे कटिहार का वो बचपन याद आता है, मासूम से थे वो दिन, मैं दुनिया समझने की कोशिश कर रहा था, मैं उन दिनों कहानियां पढता था... फंतासी वाली कहानियां.. परियों की कहानियां, जादू की कहानियां, सुपर हीरोज की कहानियां... उन कहानियों को पढ़ते-पढ़ते शायद मैं इतना ज्यादा खो गया था कि मुझे सालों तक ये लगता रहा कि शायद किसी दिन कोई परी आकर मेरे हाथों में मेरी छोटी बहन रख जायेगी, मैं बस उसे प्यार ही करता रहूँगा और यही है मेरा जीवन... उन दिनों मैं जम कर गलतियां करता था, बेवकूफों वाली गलतियां और अपनी ही गलतियों पर हंस दिया करता था.. बार बार एक ही गलती करता था... 

मुझे पटना का वो पागलपन याद आता है जब मैंने ज़िन्दगी को पहली बार अपने नज़रिए से देखना शुरू किया था... उन दिनों जैसे पैर ज़मीं पर ही नहीं थे, कितना कुछ नया हो गया था, सबसे मीठा वाला इश्क़... एकदम हरी दूब के टूसे जैसा कोमल जिसपर मैंने अपने सपनों को पानी की बूँद सरीखा सज़ा दिया था... उन दिनों ऐसा लगता था जैसे कभी कुछ गलत हो ही नहीं सकता, दुनिया में सब अच्छे हैं... एक दोस्त ने तब कहा था कि मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं आज तक बस अच्छे इंसानों से मिला हूँ और मुझे सब अच्छा ही अच्छा नज़र आता है... शायद बात सच भी उतनी ही थी, सब कुछ तो अच्छा था जैसे... बिना किसी शक वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे हसीं दिन थे... 

मुझे हिमाचल की सर्दियां याद आती हैं, उन सर्दियों में मैंने ज़िन्दगी का रुखड़ा सा हिस्सा भी चख लिया... दुनियादारी सीखी, सही गलत इंसानों का फर्क महसूस किया और फिर वो एक दिन... सब कुछ जैसे थम गया, पहली बार मैंने तन्हाई महसूस की... सपने-ख्व़ाब-परियां-इश्क़ सब कुछ राख़ में तब्दील कर दिया... भले ही 10 साल हो गए लेकिन कई-कई रातों तक भीगे उस तकिये की नमी आज भी मैं अपनी आखों में महसूस करता हूँ, उस राख के रेशे आज भी ख़्वाबों में भूले भटके आ ही जाते हैं... और अजीब बात ये कि उस वक़्त तो मुझे शिकायत करना भी नहीं आता था, बस खुद में घुट कर रह गया... मैंने तो अपने आस-पास बस फूल ही उगाये थे फिर जाने कहाँ से ये काँटा आकर इतना गहरा चुभ गया... फिर एहसास हुआ कि पर कुदरत की मूंगफलियाँ ज़मीं के नीचे दबी होती हैं और नज़र भी नहीं आती...

मैं भी दीवाना था न आखिर, मैंने सोचा अब अपने आस-पास कैक्टस ही कैक्टस उगा लेता हूँ... मेरी जिद थी कि अगर मेरे शरीर में कहीं भी दरारें पड़ी तो वो मेरी खुद की बनायीं गयी होंगी... मेरे आलावा और किसी को इतना हक ही नहीं दूंगा जो मुझे नुक्सान पहुंचा सके.. मैं अब भी इन्हीं कैक्टसों के बीच में हूँ, खुद को छिलता रहता हूँ... ये एक लड़ाई दरअसल खुद के ही साथ है... अब मुझे गलतियां बिलकुल भी पसंद नहीं आती, मुझे अपने खुद के ख्व़ाब बेमानी लगते हैं... मुझे अब यहाँ से बाहर निकलने में डर लगता है, मैं वल्नरेबल नहीं बनना चाहता फिर से... मैं कईयों के लिए गलत बन गया हूँ, उन्हें बस मेरे आस-पास के कैक्टस नज़र आते हैं... जिस इंसान को दुनिया में सब कुछ अच्छा नज़र आता था आज वो शायद खुद ही बुरा सा कुछ बन के रह गया है... 

दूर बादलों के पीछे एक गज़ब का तीरंदाज़ है, हम उसके निशाने से बच नहीं सकते... 
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