Saturday, March 26, 2016

कोने पे तनहाई...

इन दिनों मैं पेंसिल से लिखता हूँ
ताकि मिटा दूँ लिखने के बाद
और शब्दों को बचा सकूँ
इधर उधर ओझरा जाने से,
काश कि आस-पास उलझे हुये
यूं बेवजह लड़ते हुये
लोगों को भी मिटा पाता
किसी इरेज़र से
और उगा देता वहाँ
गुलमोहर और अमलताश के कई सारे पेड़....

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नीले आमों की गुठलियों पर
काले संतरे उगाने हैं
पर कमबख्त ये बैंगनी सूरज
अपनी हरी किरणें
पड़ने ही नहीं देता इन लाल पत्तों पर...
ये रंग भी अजीब होते हैं न,
ज़रा से इधर उधर हो जाएँ तो
अर्थ ही बदल देते हैं... 

*********
मैं इन दिनों
किसी खाली डब्बे सा बन के रह गया हूँ,
बिलकुल खोखला,
जो हर छोटी बात पर
ढनमनाता रहता है...
मुझे यकीन था
कि किसी न किसी रोज़
कोई मेरे इस बेवजह के शोर
की वजह तलाशता ज़रूर आएगा,
लेकिन अब मैं खुद बुतला गया हूँ
और खोजता हूँ अपने आप को,
एक खाली से डब्बे का भी क्या वज़ूद होगा भला...

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