Monday, November 3, 2025

बस इतने भर के लिए मिलना...

ना आँखों में पानी,
ना लफ्ज़ों में शिकवा…
बस एक ख़ामोश देख लेना है तुम्हें
जैसे रूह देखती है
अपना छूटा हुआ शरीर…

कभी वक्त ठहरे,
तो हवा को छू लेना —
शायद उसमें मेरी साँसों की कोई परछाई हो।
बारिश आए तो खिड़की खोल लेना —
कुछ नमी मेरी बातों की अब भी अटकी होगी वहाँ।

ना लौटना अब,
ना पुकारना मुझे,
हम बस यादों की दीवार पर
लटकी हुई तस्वीरें हैं —
जो मुस्कुराती भी हैं,
और थक जाती हैं मुस्कुराते-हुए।

मिलना है यूँ,
जैसे कोई पेड़
आख़िरी पत्ते के गिरने से पहले
एक बार और
आसमान को देखना चाहता हो...

मैं कुछ नहीं कहूँगा,
तुम भी मत कहना,
बस इतने भर के लिए मिलना —
कि मरने के बाद
कोई अफ़सोस न बचे
कि हम आख़िरी बार
ज़िंदा रहते हुए
एक-दूसरे को ज़िंदा न देख सके… 


Friday, October 31, 2025

थकान के उस पार...

थकान के उस पार एक ठहराव है,

जहाँ समय भी धीरे चलने लगता है।
न वहाँ सुबह की हड़बड़ी है,
न शाम की चिंता।
बस एक ख़ामोश हवा है —
जो माथे के पसीने को छूकर पूछती है,
"अब और कितना भागोगे?"

वहाँ न कोई लक्ष्य है,
न कोई इनाम की आस।
बस ज़मीन की ठंडक है,
जो याद दिलाती है
कि कभी तुम इसी मिट्टी से उठे थे —
और एक दिन यहीं लौटना है।

थकान के उस पार,
ज़िंदगी का मतलब बदल जाता है —
सफलता नहीं, सुकून असली मंज़िल लगती है।
लोग नहीं, लम्हे मायने रखते हैं।
और जो बात पहले बोझ लगती थी,
अब बस एक कहानी बनकर रह जाती है।

वहाँ कोई दौड़ नहीं है,
कोई प्रतिस्पर्धा नहीं —
बस एक शांत आत्मा है,
जो कहती है,
“अब बस रहो…
क्योंकि रुकना भी ज़रूरी है।” 

Monday, October 13, 2025

अक्टूबर की बारिश...

अक्टूबर की बारिश कुछ कहती नहीं,
बस धीरे-धीरे टपकती है छतों से,
जैसे कोई पुराना खत फिर से भीग गया हो।

हवा में नमी है, मगर बेचैनी नहीं,
जैसे मौसम ने खुद को समझा लिया हो

कि अब जाना भी है, पर अभी नहीं।

पेड़ों पर चिपकी पत्तियाँ
थोड़ी थकी-सी लगती हैं,
फिर भी हर बूँद को अपनाने से इंकार नहीं करतीं।

सड़कें चमक उठती हैं,
मानो उन्होंने भी किसी पुराने वक़्त को देखा हो,
जो लौटकर नहीं आएगा,
पर उसकी खुशबू अब भी मिट्टी में बसी है।

और मैं…
खिड़की के पास बैठा
कॉफ़ी की भाप में सुकून ढूँढता हूँ,
सोचता हूँ,
कितना अजीब होता है ये मौसम —
कुछ लौटाता नहीं,
पर सारे लम्हें
संजोये बैठा रहता है ... 

Thursday, October 9, 2025

सिगरेट पीती लड़की...

वो शहर की उस पुरानी बालकनी में खड़ी थी — वही बालकनी जहाँ से सड़क की लाइटें कभी पूरी नहीं दिखती थीं, और नीचे से आती गाड़ियों की आवाज़ें एक थकी हुई लोरी सी लगती थीं। रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे थे, हवा में अक्टूबर की ठंडी नमी थी, और दूर कहीं किसी पेड़ की शाखों से टपकती बारिश का पानी अब भी ज़मीन पर गुनगुना रहा था।

हाथ में सिगरेट थी — जली नहीं थी अभी तक। उसने उसे उंगलियों के बीच ऐसे थामा था जैसे कोई अपने ही दिल की धड़कन को पकड़ना चाहता हो।
थोड़ी देर तक वो उसे देखती रही — “कितना आसान है न किसी चीज़ को जला देना… पर मुश्किल तब होती है जब खुद में कुछ जलाना पड़े।”

उसने एक गहरी सांस ली, सिगरेट को होंठों तक लाया और एक धीमा सा कश लिया। धुआँ ऊपर उठा, फिर हवा में घुल गया — जैसे उसकी ज़िंदगी के वो सारे पल जो कभी लौटकर नहीं आने वाले थे।
कभी किसी ने कहा था उससे —
“लड़कियाँ सिगरेट नहीं पीतीं, ये अच्छी बात नहीं लगती।”
वो हँसी थी उस दिन —
“सिगरेट बुरी चीज़ है, पर लोगों के तंज़ उससे भी ज़्यादा जहरीले होते हैं।”

असल में, उसे सिगरेट पसंद नहीं थी — वो बस एक वजह थी खुद से मिलने की। दिनभर की हड़बड़ी, काम, रिश्तों के सवाल-जवाब, सब थम जाते थे उस छोटे से धुएँ में। जब तक सिगरेट जलती, उसे लगता, दुनिया रुक गई है थोड़ी देर के लिए।
वो धुएँ में अपने डरों को देखती थी — वो जो किसी ने नहीं देखे।
कभी किसी रिश्ते का टूटना, कभी अपने ऊपर बढ़ता सन्नाटा, कभी वो सवाल जो जवाब मांगते नहीं थे, बस चुभते रहते थे।

एक वक्त था जब उसे बारिश से प्यार था — भीगना अच्छा लगता था। पर अब, बारिश होते ही वो बस बालकनी में खड़ी हो जाती थी — जैसे डरती हो कि कहीं कोई याद फिर से भीग कर न लौट आए।
वो जानती थी कि ये सब गलत है — ये सिगरेट, ये देर रात की बातें, ये अपने आप से बहसें।
लेकिन उसे ये भी पता था कि जिंदगी की हर चीज़ सफ़ेद या काली नहीं होती। कुछ धुएँ के रंग की भी होती हैं, जो न पूरी साफ़ होती हैं, न पूरी गंदी — बस बीच में होती हैं, जैसे उसकी अपनी कहानी।

कभी-कभी सोचती — “काश कोई पूछे कि तुम क्यों पीती हो सिगरेट?”
वो कहती, “क्योंकि हर बार इसे बुझाते हुए मैं एक चिंता बुझाती हूँ, एक बोझ जलाती हूँ, और थोड़ी देर के लिए खुद को महसूस करती हूँ।”

उसने राख झटकते हुए देखा — रात और भी गहरी हो चुकी थी। नीचे सड़क पर दो बच्चे अपने स्कूटर से लौट रहे थे, हँसते हुए। वो मुस्कुरा दी — “अच्छा है, किसी की रात अब भी इतनी हल्की है।”

उसने सिगरेट का आखिरी कश लिया और धीरे से कहा —
“चलो, अब बस… आज के लिए इतना जलना काफी है।”

फिर उसने लाइट बंद की, पर्दा गिराया और खामोशी में लौट गई —
कभी की गई हर बात, हर मोह, हर शिकायत अब धुएँ की तरह उड़ चुकी थी,
बस एक खुशबू बाकी रह गई थी — राख की नहीं, खुद की पहचान की।

Saturday, October 4, 2025

रश्मि दी ... 💔

रश्मि दी से जान-पहचान ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों में हुई थी। करीब पंद्रह साल पहले। उस समय ब्लॉग सिर्फ़ लिखने की जगह नहीं था, बल्कि नए-नए रिश्ते बनाने का एक ज़रिया भी था। उन्हीं रिश्तों में एक रिश्ता रश्मि दी का भी था।

धीरे-धीरे बातों का दायरा बढ़ता गया। लिखने-पढ़ने से शुरू हुआ रिश्ता हर विषय तक पहुँच गया। नौकरी की खोज पर चर्चा, शादी की बधाइयाँ, कोविड के दिनों की बातें, गार्डनिंग के अनुभव, यहाँ तक कि बिल्कुल निजी उलझनों तक। वो हमेशा सुनने और समझने वाली थीं। उनके साथ बातचीत में कभी औपचारिकता नहीं रही, हमेशा एक अपनापन रहा।

मुझे याद है कोविड के दिनों में जब दुनिया ठहर-सी गई थी, हम लोग बगीचे और पौधों को लेकर बहुत बातें करते थे। वो अपने गार्डन की तस्वीरें साझा करतीं और कहतीं कि “पौधे भी इंसान जैसी संगत चाहते हैं।” उनके शब्दों में हमेशा एक सुकून होता था, जैसे कोई थकी हुई साँस को ठहरने की जगह मिल गई हो।

जब मैं नौकरी के उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था, तो उन्होंने सबसे पहले भरोसा दिलाया था कि “काम आते-जाते रहते हैं,” उस समय उनकी यह बात बहुत हिम्मत देने वाली थी। 

पिछले साल जब बीमारी की खबर मिली तो चिंता हुई। लेकिन उनकी हिम्मत देखकर लगा कि वो इस जंग को भी जीत लेंगी। धीरे-धीरे वो ठीक भी हो रही थीं। यहाँ तक कि बेंगलुरु भी आईं। हमने मिलने की योजना बनाई थी, पर हमेशा की तरह टालते रहे कि “अगली बार मिलेंगे।” अगली बार हमने तय किया था कि बर्ड फोटोग्राफी पर साथ चलेंगे।

दुर्भाग्य से वो अगली बार कभी नहीं आ पाई।

इस साल मैं सोशल मीडिया पर उतना सक्रिय नहीं था। कल अचानक उनकी वॉल पर गया और पता चला कि वो इस साल फरवरी में ही चली गईं। और मुझे अब जाकर खबर मिली। यह जानकर अंदर तक झटका लगा।

इतना लंबा रिश्ता, इतनी सारी बातें और यादें, और इतनी चुपचाप उनका जाना। यकीन करना मुश्किल है। मन बार-बार उसी अधूरे वादे पर अटक जाता है—एक मुलाक़ात, जो अब कभी नहीं हो पाएगी।

रश्मि दी सिर्फ़ बातचीत का हिस्सा नहीं थीं, वो हर उस छोटे-बड़े पल में मौजूद हैं जहाँ हमने कभी बात की थी। कभी नौकरी की चिंता में, कभी ब्लॉगिंग की चर्चाओं में, कभी बगीचे के फूलों की तस्वीरों में, तो कभी उन रंग-बिरंगे परिंदों की उड़ानों में।

अब लगता है कि उनसे किया हुआ हर संवाद, हर सलाह, हर हँसी मेरे भीतर ही रह गई है। वो चली गई हैं, लेकिन उनका अपनापन और उनका असर हमेशा बना रहेगा।

विश्वास ही नहीं हो रहा कि अब उनसे कभी बात नहीं होगी।
इतने सालों तक जब-तब बात हो जाती थी। कभी किसी पोस्ट पर कमेंट, कभी किसी मैसेज में हालचाल। वो अक्सर पूछ लेतीं — “सब ठीक है न?” और मैं बेफिक्र होकर लिख देता था “हाँ, सब ठीक।” आज वही साधारण-सा सवाल भी कितना कीमती लग रहा है।

अब न वो मुझे किसी फेसबुक पोस्ट में टैग करेंगी, न किसी फोटो पर हँसते हुए इमोजी डालेंगी, न किसी छोटी-सी लाइन से हौसला देंगी। उनकी उपस्थिति हमेशा सहज थी, बिना शोर-शराबे के, पर इतनी गहरी कि अब उनकी अनुपस्थिति असहनीय लग रही है।

मन कहता है कि कुछ लिख दूँ, कुछ कह दूँ… पर कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पर ख़त्म ?

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