Monday, November 2, 2020

सपने...

सबकी ज़िंदगी के अपने अपने लक्ष्य होते हैं, आज के बदलाव भरे समय में अगर कोई एक बात है जो सबकी नींदें उड़ा रही है तो वो है नए तरह के सपने... 

पहले के सपने भी लोगों की सोच की तरह ही mediocre होते थे, साधारण सी ज़िंदगी के साधारण से सपने...

शायद मेरे भी ऐसे ही थे, मैं अकैडमिक्स में बहुत एवरेज रहा हमेशा, तो लगता था कुछ mediocre ही कर पाऊंगा... 2010 में engineering ख़त्म करने के बाद भी मुझे यही लगता था कि साधारण सी नौकरी चाहिए बस... 

फिर जब बैंगलोर आया तो सपने देखने सीखे, लगा कि अब तक कुएँ के मेढक की तरह जी रहा था, ऐसे इंसानों से मिला जो मेरे से उम्र में छोटे थे लेकिन अपने दम पर कुछ बड़ा करने का जज़्बा कहीं ज़्यादा था, महज़ 21-22 साल की उम्र में अपने सपने, अपने पैसे से पूरे करने की भूख... चाहे लड़का हो या लड़की. Infact लड़कियाँ ज़्यादा desperate थीं career और जॉब के लिए... CDAC का कोर्स चल ही रहा था फिर भी सब interview और exam देते ही रहते थे... 

मैंने तो नहीं दिया, लेकिन ऐसे कई interviews और exam का हिस्सा रहा... 

अजीब सुख था वो, एक इंसान जिसे किसी भी क़ीमत पर अपने दम पर कुछ करना था, उसका support system बनने का सुख... 

इस पूरे वक्त में मुझे लगने लगा था कि शायद समय का पहिया घूम चुका है, और अब कोई टाइम पास नहीं करना चाहता, workaholic होना ही ट्रेंड है.. 

अभी भी कुछ लोगों से मिलता हूँ तो अच्छा लगता है, उनका जज़्बा देखकर अच्छा लगता है.. अच्छा लगता है अगर कोई आगे बढ़े, अपने सपने खुद पूरे करे... लेकिन उसके लिए पहले सपने देखने पड़ते हैं... अगर सपने नहीं हैं तो उन्हें पूरा करने की भूख भी नहीं होगी...

Sunday, September 20, 2020

मैं अँधेरा लिखता हूँ...

मेरी ज़िन्दगी है 
सफ़ेद सफ़हे में लिपटे 
मेरे कुछ बेतरतीब हर्फ़, 

और मृत्यु
मेरी वो किताब है
जो कभी नहीं लिक्खी गयी... 

मैं बवंडर हूँ 
तबाही मचाता हूँ 
उड़ा ले जाता हूँ 
सबके घर, सबके सपने,

मैं वो अग्नि हूँ 
जिसे बुझाया नहीं जा सकता... 

मैं अँधेरा हूँ 
जिससे डरते हो तुम 
अकेले में,

मैं वो काली रात हूँ 
जिसकी कोई सुबह 
सुनिश्चित नहीं... 

Friday, September 11, 2020

फकैती वाले दिन (2)...

जब व्यस्त था
वो मज़दूर
हमारे बीच एक
ऊंची दीवार बनाने में,
हमने बदल लिए थे बिस्तर... 

एक संदूक रख छोड़ा था 
तुम्हारे वाले हिस्से में, 
उस संदूक में 
जितनी मेरी याद बची है 
मैं उतना ही ज़िंदा हूँ.... 

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याद नहीं मुझे 
अपनी पहली मौत, 

मेरी आखिरी मौत से पहले 
मुझे एक बार और जला देना... 

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मुझे नहीं पता फर्क 
रेत और पानी का,
कवितायें लिखनी है 
मुझे इंसानों और मछलियों पर.... 

मुझे रहना है 
मछलियों के घर में 
अपने गलफड़ों से सांस लेते हुए, 
पकड़नी है मछलियां 
फेंककर रेत में जाले को...  

फकैती वाले दिन...

मुझे ये चाँद बेचना है,
पर सारे खरीददार मुझे
बिखरे हुए प्रेमी लगते हैं,  
चाँद खरीदना उनका अधूरा सा ख्वाब है 
जो वो खुद को बेचकर 
पूरा करना चाहते हैं... 

मैं ढूँढ रहा हूँ कब से 
कि मिले कोई 
जिसे रहा हो 
इस चाँद से सच्चा प्रेम... 

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मैं कविताएं लिखना चाहता हूँ 
तुम्हारी भाषा में,
वो भाषा जिसका अनुवाद
बस हम दोनों के पास है,

ये जो बेवजह 
मेरी नज़्मों का किनारा खो गया 
उसे अपनी मुस्कुराहटों की भाषा में 
इठलाते हुए पढ़ लेना... 

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मैं फिर से लापरवाह हो जाना चाहता हूँ 
कुछ भी लिखते वक़्त,
लगता है 
लबालब भर गया हूँ शब्दों से,

मुझे धकेलना है इन शब्दों को 
किसी कूड़ेदान में 
और हो जाना है  
बिलकुल खाली... 

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एक चिंगारी है
मेरे तलवे के नीचे,
वो सिगरेट जो फेक दी किसी ने
आखिरी कश लेने से पहले,

मेरे पास माचिस भी है
और पानी भी  
मैं बुझता भी हूँ तो 
आखिर फिर से जलने के लिए.... 

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Monday, August 10, 2020

Wonder... A Wonderful film....

कहते हैं फिल्म समाज का आईना होती हैं...

पर सवाल है किस समाज का, पृथ्वी पर करोड़ों तरह के समाज हैं, सबकी मान्यताएं अलग-अलग हैं... हम अपने आस-पास के समाज को तो जानते ही हैं, और अधिकतर लोग उसी को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं..

मैं हमेशा से ऐसी फिल्में देखना पसंद करता हूँ जो ऐसे समाज से अवगत कराती हों, मैं जिसका हिस्सा नहीं हूँ... कॉलेज के वक़्त ईरानी, पर्शियन, कोरियन ये सारी फिल्में देखीं, कुछ एक तो बिना Subtitles के भी...

कई सारी फिल्मों को देखते हुए जाना कि हम एक भारतीय के तौर पर जिन संस्कार और संस्कृति की बात करते हैं वो कमोबेश बाकी देशों में भी ऐसे ही हैं, कुछ-एक जगह शायद हमसे बेहतर भी... खैर सर्वश्रेष्ठ कहलाने की इस लालसा के बारे में फिर कभी...

आज बात एक फिल्म की, "Wonder"...

ये फिल्म है एक बच्चे की(Auggie) जो Treacher Collins syndrome से जूझ रहा है और लोगों की घूरती नज़रों से बचना चाहता है, ये फिल्म है उसके माता-पिता की जो उसे सामान्य ज़िन्दगी और सामान्य समाज का हिस्सा बनाना चाहते हैं, ये फिल्म उसकी बड़ी बहन की भी है जो ये जानती है कि उसके भाई को, उसके पेरेंट्स की ज्यादा अटेंशन चाहिए... फिर भी वो उन्हें मिस करती है कि काश वो उससे भी उतनी ही बातें करें जितना वो उसके भाई से करते हैं...

ये फिल्म है एक और लड़के की जो उसका दोस्त नहीं बनना चाहता, फिर बनना चाहता है लेकिन बाकी दोस्त क्या कहेंगे उससे भी डरता है...

ये फिल्म एक लम्बी लड़ाई है सभी किरदारों के लिए, लड़ाई किसी "एबनॉर्मल" से इंसान को "So called Normal" समाज का हिस्सा बनाने के लिए...

हम खुद इंसान हैं लेकिन इंसानी रिश्तों को समझना और उसे फिल्मों में उतारना शायद उतना मज़बूत Genre नहीं है... लेकिन इसपर जितनी फिल्में बनी हैं वो सभी कुछ न कुछ सिखाती ही हैं...

फिल्म के आखिरी में Auggie कहता है.... "Be kind, for everyone is fighting a hard battle. And if you really want to see what people are, all you have to do is look".

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फिल्म कहाँ देखें... अगर आपके पास एयरटेल मोबाइल कनेक्शन है तो https://www.airtelxstream.in/movies पर लॉगिन करके.. 

Wednesday, July 22, 2020

मैं यहीं हूँ, कहाँ जाऊँगा,

मैं यहीं हूँ
कहाँ जाऊँगा, 
एक प्रेमपत्र हूँ 
उड़ता हुआ सा
आँधियों में, 
ग़र बारिश हुई 
यहीं गिरकर
भींग जाऊँगा... 

मैं यहीं हूँ 
कहाँ जाऊँगा... 

हर्फ़ हूँ मैं 
आख़िरी ही सही, 
हर सफ़हे पर
नज़र आऊँगा 
मैं यहीं हूँ 
कहाँ जाऊँगा... 

लाख ठोकरें 
हज़ार पत्थर 
दुत्कार दिया जाऊँगा, 
पर बदहवास प्रेम हूँ 
कहीं न कहीं 
ज़हन में रह ही जाऊँगा... 

मैं यहीं हूँ 
कहाँ जाऊँगा...

Monday, July 20, 2020

बैठे-ठाले...

"बेहतर ज़िन्दगी क्या है.... "
"जो हम जी रहे हैं वही सबसे बेहतर है... "
"तो क्या हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए ??"
"नहीं, हमें इसे बेहतर बनाना है, लेकिन अगर मुश्किल आये तो इसका मतलब ये नहीं कि उदास होकर बैठ जाएँ..."
"लोगों को मूड स्विंग क्यों होते हैं, और उसे क्यों नहीं होता था...."
"हर इंसान अलग होता है, कुछ लोगों को हर ३ दिन में हो जाता है और किसी को 7 साल में एक बार भी नहीं... "
"हम्म्म, पता है दिक्कत क्या है... दिक्कत ये है कि ये मूड स्विंग की ढाल लेकर हम उन लोगों को हर्ट कर देते हैं, जिनसे बात करके मूड सही होना चाहिए... "
"कुछ इंसान कितने अजीब होते हैं न, ज़िन्दगी का क्या दुःख नहीं देखा उसने, पर एक अजीब सा सुकून रहता है उसके चेहरे पर... एकदम शांत, एकदम निर्मल... कोई शिकायत नहीं, कोई उदासी नहीं, जैसे ज़िन्दगी को उसी तरह जीना जैसे-जैसे ज़िन्दगी के सफ़हे खुलते हों... "
"पता है बमुश्किल 23 की होगी वो जब मैं उससे मिला...  कोई इतनी कम उम्र में इतना mature कैसे हो सकता है लेकिन... "
"कितनी आसानी से उसने हर चीज को हैंडल किया, कैरियर, फैमिली, प्रेम... सब कुछ... "
"काश !! मैं भी उतना ही mature होता उस वक़्त..."
"पता है, इन दिनों मैं उस जैसा होना चाहता हूँ... "
"वैसा इंसान मुझे शायद फिर कभी न मिले... उसने कितना कुछ सिखाया मुझे..."
"हर कोई कुछ-न-कुछ सिखा के ही तो जाता है... "
"आज कल मुझे बहुत हंसी आती है पता है, लगता है कुछ चीजें कुछ लोग टीनएज में ही सीख जाते और कुछ लोग बुढ़ापे तक भी नहीं... "
"जो जितनी जल्दी ज़िन्दगी में जितना कुछ देखता है, वो उतनी जल्दी सीखता है..."
"बिना दुनिया देखे, बिना हज़ार तरह के लोगों से मिले कोई क्या ही सीखेगा... "
"कुछ लोग सीखना भी तो नहीं चाहते... ज्ञान बोलकर मज़ाक उड़ा देते हैं... "

Monday, July 6, 2020

One more year and another shade of life...

बचपन में जन्मदिन मनाने का कोई ख़ास दिल नहीं किया, मेरे घर पर कभी किसी का जन्मदिन मना नहीं और न ही कभी किसी को कोई खास फर्क पड़ा... 


पहला जन्मदिन मना 2001 में, कोई केक वगैरह नहीं बस चिप्स और मैगी की पार्टी.. कुछ ख़ास दोस्तों को मेरे जन्मदिन में इंटरेस्ट आने लग गया था और शायद मुझे भी... अच्छा लगने लगा था लोगों का विश करना, लगता था पूरी साल में ये एक दिन सिर्फ मेरा है... 2003 का जन्मदिन भी ख़ास था बहुत, पहला केक और लाइफ का पहला सरप्राइज... 

खैर कई सारे जन्मदिन यूँ ही गुज़रे, कभी न कभी किसी न किसी ने ख़ास बना ही दिया है इस दिन को... 
बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ, जैसे हर एक जन्मदिन से जुडी याद... लेकिन समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं, कैसे लिखूं... 

Lockdown में अकेले बैठे बैठे मन उचटता सा जाता है... लगता है ऐसे में अगर पूरा ही अकेले होता तो क्या होता, पर अक्सर ज़िन्दगी से हम कुछ ज्यादा ही शिकायतें कर बैठते हैं, कहीं न कहीं ज़िन्दगी की झोली में खुशियों के सिक्के होते ही हैं, बस उन्हें खोजने की ज़रुरत है... कम से कम मोबाइल पर ही सही, लोग जुड़े तो हैं... 


और आखिर गुल्लक है ज़िन्दगी, उससे वही निकलेगा जो हम उसमे डालेंगे...

समंदर की बहुत याद आ रही, शाम को सूरज को देखने का दिल कर रहा है, उस शान्ति में बैठे बस वो लहरों की आवाज़ सुननी है... 

ज़िन्दगी की कई तहरीरें होती हैं, कुछ समझ में आती हैं कुछ नहीं... पर हमेशा की ही तरह, शुक्रिया ज़िन्दगी....

I am thankful of everything whatever life has given to me, I am still the same Guy with dreams in his eyes and wonder in the heart and no situations can take these away from me.....

Friday, May 8, 2020

मेरी कहानी का एक किरदार...

उसकी ज़िंदगी की सोच और उसे जीने का ढंग अलग अलग वक़्त पर अलग अलग टाइप का रहा... 2001 से पहले वो बहुत ही डरपोक, दब्बू और ख़ामोश सा रहने वाला इंसान था, फिर ज़िंदगी बदली और मैंने उसे दुनिया से लड़ते, सीखते, अपने ख़्वाब तलाशते देखा.... वो अब ग़लत बात के लिए विद्रोह करता था, चीजें नहीं मिलने पर झगड़ता था... उसने ज़्यादा इंसान नहीं बनाए, जो बनाए भी वो अलग होते चले गए... उसका बेबाक़ीपन किसी को नहीं सुहाता था, कई लोग ये भी बर्दाश्त नहीं कर पाए कि उसे ज़िंदगी के बारे में इतना सब कुछ कैसे आता है... पर इस अचानक आए बदलाव और सफलता ने उसे कहीं ना कहीं एक ग़ुरूर दे दिया था, वो किसी का लिहाज़ नहीं करता, उसने और झगड़े किए उनसे भी जो शायद उसकी ज़िंदगी के सबसे अहम लोग थे... पर उसका भी जवाब था क़िस्मत के पास, उससे धीरे धीरे वो सब कुछ छिनता गया जिसका उसे गुरुर था, वो भी अचानक से, एक झटके में... अब उसे फिर से डर लगने लगा है, कि कहीं बाक़ी जो बचा है और जो नया कुछ भी मिल रहा है वो भी न छिन जाए... डर इंसान को कमजोर बनाता है, मैं उसे हिम्मत देता हूँ... उसे कहता हूँ कि उसने बस एक गलती की... पर उस गलती का नाम नहीं बताया... दरअसल वो गलती थी भी नहीं...
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वो अक्सर अपनी बीती बातों को अपना अतीत कहता है, मैं उसे समझाता हूँ कि अतीत जैसा कुछ नहीं होता, जो भी हुआ या हो रहा है उसका असर वर्तमान और भविष्य में रहेगा ही रहेगा... अब उसका असर हम सकारात्मक रखते हैं या नकारात्मक वो हमपे निर्भर करता है.... मैं उसे बचपन से जानता हूँ, ये भी जानता हूँ क़िस्मत उसके साथ थोड़ी बेरुख़ी से पेश आयी है, पर उसमें मुझे ग़ज़ब की जिजीविषा नज़र आती है... उसे बस थोड़ी सी हिम्मत दे दो और वो फिर से उठ खड़ा होता है.... जतिन कहते हैं, इंसान को सेल्फ़ मोटिवेटेड होना चाहिए... लेकिन इस "चाहिए" और "है" के दरम्यान बहुत गहरी खाई है... कहना जितना आसान है, उसे अपने काँधे पर उठा के चलना उतना ही मुश्किल... मैं और वो घंटों बातें करते हैं, वो मुझे हर उस शहर की कहानी सुनाता है जहां से उसे इश्क़ हुआ था... वो शहर से हुए इश्क़ की कहानी तो सुनाता है, लेकिन इंसानों से हुए इश्क़ की कहानी बहुत सफ़ाई से छुपा ले जाता है... पर वो कहानियाँ, उसकी आँखों में साफ़ नज़र आती है... मैं पूछता हूँ कि अगर मैं उसे अपनी कहानी का किरदार बनाऊँ तो उसका नाम क्या दूँ, वो आसमान की तरफ़ देखता और कहता है मुझे किसी नाम से मत बुलाना... नाम अक्सर धोखा देते हैं....
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उसे समझ नहीं आता कि वो ज़िंदगी में कहाँ सही रहा, कहाँ ग़लत... वो अक्सर शिकायत के लहजे से आसमाँ की तरफ़ देखता है, लेकिन उसे पता कुछ शिकायतों का कोई मतलब नहीं होता... वो शिकायतें बारिश की बूँदों के साथ ज़मीन में मिल जाने वाली है... मैं उससे बातें करते हुए अक्सर भूल जाता हूँ कि वो दुखी है, वो चेहरे से दुखी नहीं दिखता. ना ही उसने सपने देखने छोड़े हैं, पर मुझे उसकी आँखों में अब अजीब सा डर दिखायी देता है.... हो सकता है इंसान सपने देखना ना छोड़े लेकिन, उसे देखते हुए डरने ज़रूर लगता है... वो मुझे बीती रात आए सपने के बारे में बताता है, कि कैसे उसे कोई कोस गया था सपने में, ये कहते हुए कि ये सब कुछ जो भी हुआ उसमें बस उसकी गलती थी... वो मुझसे पूछता है कि सच में उसकी गलती थी क्या, मुझे इसका जवाब नहीं पता...



मैं भी एक शिकायत भरे लहजे में आसमाँ की तरफ़ देखता हूँ...
शाम हो चुकी है और हमेशा की तरह, बैंगलोर बारिश की बूँदों से भीग चुका है...
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मैं हमेशा अपनी हर पोस्ट में एक तस्वीर लगाता था, लेकिन तस्वीरें भी झूठ बोलने लगी हैं इन दिनों... 

Sunday, April 26, 2020

रुकना क्यूँ है...

स्याह रातें आएँगी,
खूब डराएँगी
पर रुकना क्यूँ है...

होगा अंधेरा घना
अनजानी आवाज़ें आएँगी
पर रुकना क्यूँ है...

बंजर हो ज़मीन
रेत जलाएँ पग को
चुभें भले काँटे
लथपथ हो रक्त से
पर रुकना क्यूँ है...

पिछले रास्ते कैसे थे
आगे के कैसे हों
डर कितना भी हो मन में
पर रुकना क्यूँ है...

मुमकिन है कि
मंज़िल ना मिले
चलने से भी
क़िस्मत तेरी राख हो भले
आग पे चल कर भी
पर रुकना क्यूँ है...

Saturday, April 25, 2020

रैंडम नोट्स इन द टाइम ऑफ़ कोरोना....

मैं बार बार खुद से यही सवाल पूछता हूँ कि क्या मैं अतीतजीवी हूँ, और जवाब हमेशा ना ही आता है, अतीत में क्या हुआ उससे मुझे शायद ही फ़र्क़ पड़ता हो... लेकिन उस अतीत जी सीख आगे काम आती है... अतीत में आए बवण्डरों ने भले ही इन गंदले खंडहरों में कुछ नहीं छोड़ा लेकिन इन खंडहरों के आँगन में एक पौधा मैं हमेशा उगाता रहा हूँ... मुझे इन ओस की बूदों से अब भी उतना ही प्यार है जितना पहले था, मैं आज भी पहाड़ों को अपना दिल दे बैठता हूँ, आज भी मुझे दूसरों के ख़्वाबों में ही रंग भरने का शौक़ है... फिर ये भी है कि आख़िर क्या बदला है, और इसका उत्तर मुझे भी नहीं पता... बदलने को तो कुछ नहीं बदला, कुछ नहीं बदलता... इस लॉक्डाउन ने ये भी सिखाया कि कैसे हमें नए रूप-रंग के यूज़्ड टू होने में नहीं के बराबर वक़्त लगता है... यही सामान्य लगने लगता है... मैं तो जैसे बहुत कुछ भूल चुका हूँ, अगर कुछ याद है तो बस मेरी पुरानी कहानियों के दो किरदार... 
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मेरे पास एक शहर है, उस शहर के बाहर बस रेत ही रेत है, कभी दिल करता है उसमें जाकर अपने कुछ ख़्वाब रोप दूँ... भले ही ख़्वाब अधूरे हों लेकिन इस बंजर रेत से बेहतर तो वो अधूरे ख़्वाबों का जंगल ही होगा... जब कभी बारिश होगी तो उस जंगल का मुहँ पलट कर रख दूँगा, पेड़ों की फुनगी पे पानी बहेगा और जड़ों में बादल अटक ज़ाया करेंगे... उल्टे-पुल्टे ख़्वाबों का हश्र भी उल्टा ही होना तय किया था मैंने कभी....
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काला एक बेहद खराब रंग है, खामोशी एक खराब शब्द, sad songs खराब टैस्ट और उदासी एक खराब सा दौर... मैं इस बाबत हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहा हूँ... लोगों के सवाल मेरे जानिब आते रहते हैं कि मैं इतना उदास सा क्यूँ लिखता हूँ, मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होता... मुझे भी नहीं पता कि मैं इतने उदास रुत का लेखक क्यूँ हूँ... ऐसा नहीं है कि मैंने इश्क़ पर नहीं लिखा, या खुशमिजाजी बिलकुल ही गायब रही हो मेरे सफहों से... पर उदास सा कुछ सोचकर उसे लिखते हुये मैं बहुत गहरे उतर जाता हूँ, इतना गहरा कि जैसे खुद वो सब कुछ जी रहा हूँ... मेरी इस उदास सी शै के बीच मैं खुश भी होता हूँ... उदास सा लिख कर भी खुश होता हूँ, और जब हद्द से ज्यादा खुश हूँ तो फिर उदास सा कुछ लिखता हूँ.... उदासी, तनहाई मेरी ज़िंदगी में आती रही है, हर किसी के ज़िंदगी में आती होगी.... बस मैं उसे कुछ घड़ी रोक कर उसे अपनी diary में उतार देता हूँ.... मेरी उदासी सिर्फ मेरे हर्फ में है, ज़िंदगी से उसे हमेशा दूर करता रहा हूँ मैं....

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बारिश... बैंगलोर की बारिश... एक एक टपकती बूँद से इश्क़ हुआ था कभी... पहली बार जब कुछ दिनों के लिए आया था तो अप्रैल का महीना ही था शायद, चिलचिलाती गर्मी के बीच शाम को हुई उस बारिश ने जैसे किसी मोहपाश में जकड़ लिया और हमेशा के लिए यहाँ आ गया... 2011 से 2020 तक का ये सफ़र, ऐसे जैसे कल ही की बात है... इस बीच कितना कुछ हो गया, लगता है अभी सो के उठा हूँ और वो सब कुछ शायद ख़्वाब था, जैसे कोई भ्रम... अभी एहसास हुआ कि गुलमोहर खिल गए होंगे, पर इस बार देख पाऊँगा या नहीं पता नहीं.. अब गुलमोहर में उतना इंट्रेस्ट रहा भी नहीं... बैंगलोर और उसकी बारिश, मुझे मालूम है ताउम्र ये बारिश अपनी सोन्धी ख़ुशबू के साथ बहुत कुछ याद दिलाती रहेगी... कुछ लोगों के मिलने से लेकर उनसे बिछड़ने तक का सफ़र...

Thursday, March 19, 2020

लव इन द टाइम ऑफ़ कोरोना....

शहर परेशान सा है, और मन्नु को बार बार नीरू की फ़िक्र हो रही है, वो ठीक तो होगी ना, अपना ख़याल तो रख रही होगी ना... उसे अपना ख़याल रखना आता भी तो नहीं था... वो बार बार मोबाइल उठाता है, सोचता है एक कॉल कर ले लेकिन बस उसका लास्ट सीन देखकर फ़ोन रख देता है... मन्नु जिसने कभी भगवान से ज़्यादा कुछ माँगा नहीं वो बस आज कल नीरू की सलामती माँगता है... जानता है वक्त अब पीछे नहीं जाएगा, कभी भी नहीं...

बैक्ग्राउंड में जज़्बा फ़िल्म का वो डायलोग चल रहा है...

"तुमने जाने दिया..."
"मोहब्बत थी इसलिए जाने दिए, ज़िद होती तो बाहों में होती...."

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“मुबारक हो, शादी की तारीख़ पक्की हो गयी...
“हाँ....”
“अच्छा ये बीमारी जो फैली है उसके कारण कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगा...”
“पता नहीं, ना हो तो अच्छा है... वरना...”
“वरना क्या...”
“वरना ना, हम भाग के शादी कर लेंगे, कितना यूनीक होगा ना...”
“हाहा, हाँ....”
“अख़बार की लाइन बनेगी, करोना से परेशान लड़के लड़की ने भाग के शादी की...”
“हाहा, अरेंज्ड मैरिज में ऐसा कौन किया होगा भला....”
“सच में..”
“लेकिन अगर सच में तारीख़ आगे बढ़ गयी तो...”
“पता नहीं, लेकिन तुमसे अब दूर रहना मुश्किल है बहुत....”
“सच्ची.....”
“मुच्ची...”

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मोहब्बत पर कई सारी फ़िल्में बनी हैं और बनती रहेंगी...

2004 में एक फ़िल्म आयी थी रेनकोट, उस वक्त शायद वो फ़िल्म उतनी अच्छी नहीं लगी थी या कहूँ समझ ही नहीं आयी...

आज गुजरे वक्त के साथ लगता है प्यार पर इससे बेहतरीन फ़िल्म नहीं बन सकती.... धीमी चलती है फ़िल्म लेकिन जिस तरह अजय देवगन और ऐश्वर्या के किरदार खुद अपनी ज़िंदगी में तकलीफ़ में होते हुए भी एक दूसरे के सामने खुद को अच्छा बतलाते हैं और जाते-जाते एक दूसरे की मदद किए जाते हैं, यही तो है प्यार...

प्यार के लिए साथ होना ज़रूरी है लेकिन अगर साथ ना भी हों तो एक दूसरे की फ़िक्र में जब मन बरबस पलट के एक दूसरे की तरफ़ देखता है तो वक्त उसी समय थम जाता है...

Thursday, January 23, 2020

एग्जामिनेशन सेंटर...

उन दिनों शायद
मेरा एक ही मक़सद हुआ करता था
कि किसी तरह पता चले
तुम्हारा कहीं कोई
इग्ज़ाम तो नहीं,
या कोई इंटर्व्यू ही हो,

और ज़िद करूँ
तुम्हारे साथ चलने की
तुम्हारे एग्जामिनेशन सेंटर तक,
कि जब तक तुम देती रहो इग्ज़ाम
मैं इंतज़ार करूँ तुम्हारा
वहीं कहीं बाहर
किसी चबूतरे पर बैठे हुए
या किसी पेड़ के नीचे,

बाहर के किसी ठेले से
खायी वो दो बेस्वाद इडलियों
का स्वाद घुलता रहे
इग्ज़ाम के ख़त्म के होने के इंतज़ार में...

फिर पूछूँ तुमसे कि कैसा हुआ सब कुछ,
तुम सुनाओ उन सवालों को
और कैसे तुमने हल कर दिया उन्हें,
और फिर वापस चल पड़ें
हॉस्टल की तरफ़
बस में बैठकर,
ऐसे ही किसी लाल एसी बस में
बैठे बेखयाली में
तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था,
तो चौंक गयी थी न तुम...

उन दिनों बस तुम्हारे साथ ही
दिल करता था रहने का,
अब जब बातें वो बीत गयी
तो लगता है
इतना मुश्किल था क्या
साथ निभा जाना उस इंसान का,
जिसने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा था
एग्जामिनेशन सेंटर में भी नहीं...

Saturday, January 18, 2020

सीधी-सादी कविताएं...

उसे पसंद है सीधी-सादी कविताएं
जिनमें शब्दों के जाले न बुने गए हों
जिनमे बस बदहवास
प्रेम लिखा और कुछ नहीं
न उर्दू अल्फ़ाज़ों से खेला हो मैंने
न ही कोई विम्ब ऐसा
जो उसे समझ न आये
जिसमें भाव के अंदर
कोई और भाव न छुपा हो
इन्सेप्शन की तरह..

मैं उठाता हूँ अपनी डायरी 
खोजता हूँ कि 
लिखा हो शायद 
कुछ ऐसा आसान सा 
फिर लगता है जब 
ज़िंदगी ही कभी इतनी आसान न थी
तो लिखता कैसे... 

अब आसान सा लिखूँ 
तो झूठ लगता है,
उतना ही झूठ 
जितनी कुछ बीती बातें 
लगने लगी हैं आज कल... 

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