Friday, April 19, 2024
वो एक दिन और उसकी याद...
Monday, March 18, 2024
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा...
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा,
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से,
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…
कैसे नापूँ आसमान मैं,
कैसे स्वप्न सजीले देखूँ
तूने ही जब राह फेर ली
कैसे अब उन रस्तों की चाल लूँ...
कैसे भूले राधा को कृष्णा,
कैसे विरह का गीत सुनाये
जो प्रेम अपूर्ण है मन के अंदर ,
कैसे उसको पूर्ण बताये...
बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…
कैसे उड़ूँ मैं रोशनियों में
जब जुगनू सारे थक के गिर गए,
कैसे देखूँ उन चेहरों को
मेरे लिये वो कबके मर गये...
कैसे फिरसे बरसे बादल
कैसे भींगूं फिर बारिश में मैं,
कैसे ये शहर हो फिर स्वर्ग सरीखा
कैसे हवा हो ठंडी-ठंडी ...
बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…
Wednesday, March 13, 2024
अधूरी दास्तानें (2)...
दुनिया में बचा है ना प्रेम,
या विलुप्त हो रहा धीरे-धीरे
ओज़ोन की परत की तरह ..
मुस्कुराते हुए…
अधूरी दास्तानें ...
हम अभी अभी ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ अवसाद जैसा कुछ नहीं होता… दुःख होता है जो वक्त के साथ ख़त्म हो जाता है… हम ये बात मानने से इनकार करते हैं कि कुछ लोग हैं, जो इतने सेन्सिटिव होते हैं कि वक्त का मरहम भी उनके घाव नहीं भर पाता… कई बार तो उन्हें खुद एहसास नहीं होता कि वो अवसाद में है…
एक मनोचिकित्सक जब तह तक जाकर सवाल पूछता है तब एहसास होता है अंदर सब टूटा टूटा सा है…
सकारात्मक होना ज़रूरी है, लोगों को सकारात्मक होने को कहना भी ज़रूरी है लेकिन कभी कभी ये रास्ता एकतरफ़ा हो जाता है… ऐसे में अगर मरहम लगाने वाला कोई ना हो तो आसान से आसान रास्ते मुश्किल लगते हैं…
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कलम पकड़ता हूँ तो उससे ख़ाली डब्बे की आवाज़ आती है, मेरी सोच जिसने अनंत सम्भावनाएँ लिखी हैं और हज़ारों पढ़ने वालों के मन को उकेरा है अब उस सोच की परतें जैसे जम गयी हैं...
लिखने को इंसान कुछ भी लिख सकता है, पर मुझे पढ़ने वाले जानते हैं कि मेरा फ़ेवरेट genre फ़लसफ़ा रहा है, जिसे लिखते और पढ़ते वक्त ज़िंदगी के कई सफ़हे खुलते हैं.
2019 में की गई इतने देशों की यात्रा और फिर उसके बाद अचानक से घर में क़ैद हो जाने के दरम्यान बहुत कुछ है जो मैं नहीं लिख पाया... उन कहानियों और संस्मरणों में सौंदर्य था, ज्ञान था, बोझिलता भी थी, कुछ नज़्मों के सिरे अलग हुए, कुछ ग़ज़लें रूठ गई, कुछ नए दौर आए... इन सारी हो रही घटनाओं के बीच एक लेखक ने लिखना छोड़ दिया...
इस कोरोना काल में जब दुनिया रुकी है, हर दूसरे दिन किसी न किसी का जाने का समाचार सुन रहा हूँ तो, ज़िंदगी से दोस्ती गहरी करनी ज़रूरी है...
इसलिए खुद का ही लिखा पढ़ना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी...
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Tuesday, March 12, 2024
लापता मुसाफिर...
वही, हमेशा की तरह
उसी पार्क की उसी बेंच पर.
देर से ही सही,
मैं आऊँगा ज़रूर.
मैंने किया इंतज़ार पर
तुम लौट गयीं अपने गाँव,
तुम्हें पता है,
तुम्हारे जाने के बाद
हर पार्क में गया
अकेले बैठा हर उस बेंच पर
जहां हम कभी बैठ जाया करते थे.
हंसा या रोया पता नहीं,
बस बैठा रहा घंटों तक.
एक बात कहनी थी,
हमारे उन सारे वादों की क़सम है तुम्हें,
तुम उदास मत होना
मुझे छोड़ देने के बाद.
मुझे मालूम है
हम मिलेंगे कभी,
कहीं ना कहीं
शायद मरने के बाद
शायद अगले जन्म से पहले,
या फिर शायद अगले जन्म में.
अगर जो ना मिल पाएं तो,
ये मत सोचना मैं अटका हूँ कहीं,
मैं निकल गया हूँ
वहाँ से बहुत दूर
बस दिल का एक कोना पीछे छूट गया है.
Thursday, January 25, 2024
मैं इश्क़ लिखता हूँ, तो तेरी याद आती है...
सादे खत लिखता हूँ,
शब्द जैसे इस रूखी धूप में
सूख से जाते हैं...
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देखा है तुमने कभी
मार्च की हवाओं का गुलदस्ता,
भरी है कभी पिचकारी में
मेरी साँसों की नमी...
कहो तो इस नमी में भिगो के लिए आऊं
तुम्हारे लिए कई सारे छोटे-छोटे चाँद....
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मैं दोषी हूँ उन शब्दों का,
जिन्हें मैंने पेन्सिल से लिखा
और मिटा दिया
नटराज के इरेजर से...
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जब कभी कोई कहता है मुझे
"तुम इश्क़ बहुत अच्छा लिखते हो..."
मैं याद करता हूँ तुम्हारी मुस्कान
और दोहरा देता हूँ मन-ही-मन
"तुम बहुत प्यारी लगती हो मुस्कुराते हुए..."
क्या करूँ,
मैं इश्क़ लिखता हूँ तो तेरी याद आती है...
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मेरी लिखी हर नज़्म
एक कचिया है,
हर शाम की तन्हाई के खेत में
हर सुबह...
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मैं ऊब जाना चाहता हूँ
इस दुनिया से हमेशा के लिए
पर ऊब नहीं पाता...
मैं डूब जाना चाहता हूँ
कहीं किसी समंदर में
पर डूब नहीं पाता...
ऐसी चाहतें
ट्यूबवेल के नीचे लगे पत्थर
पर जमी कजली है...
मेरे सपने, मेरी ज़िन्दगी के शीशे पर तुम्हारी परछाईं का आपतन बिंदु है....
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मेरे बालों में कहीं-कहीं आई ये सफेदी एक नज़्म है जो मैंने तुम्हारे इंतज़ार में लिखी है....
Tuesday, January 2, 2024
सुकून...
लड़ाई लंबी थी, लेकिन अब वो दोनों हार चुके थे...
अंशु ने नई मंज़िल चुनने से पहले कहा कि उसे बस अब सुकून चाहिए.
विकास ने कई बार मुझसे पूछा कि ये सुकून क्या होता है. मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ, शायद मुझे भी सुकून नहीं मिला सालों से. याद नहीं आता आख़िरी बार कब मिला था.
मैंने विकास से पूछा कि ये पहली बार उसे कब लगा कि ये सबसे सुकून वाला पल है. उसने कहा जब पहली बार अंशु का इंटरव्यू निकला और उसने मुझसे आकर मेरी राय ली कि क्या वो जॉइन कर ले. जबकि उस वक़्त हमें एक दूसरे को मिले ज़्यादा अरसा भी नहीं हुआ था, मुझे लगा अचानक से मैं कब किसी का इतना अपना बन गया पता ही नहीं चला.
फिर कई बार इसी तरह की फीलिंग आई, जब वो उदास होकर बस स्टॉप पे मेरे गले लग कर रोयी थी, मुझे लगता है ऐसा अपनापन मुझे इससे पहले कभी नहीं लगा और शायद अब कभी लगेगा भी नहीं. वो वक़्त कुछ और था, वो प्यार कुछ और था... अब बस एक खाना पूर्ति ही है कि खुश होना है.
विकास बात करते करते कई बीती बातों का रुख़ मेरी और मोड़ देता है, मेरे पास किसी बात का जवाब नहीं होता. वो कहता है कि मरने के बाद तो मौक़ा मिलता होगा ना कुछ सवालों के जवाब भगवान से मानने का. मेरे पास इसका भी कोई जवाब नहीं, जवाब भी भला क्या हो मैं तो भगवान को ही नहीं मानता.
मैं उसे उदास देखता हूँ तो मेरा दिल बैठ जाता है, एक वक़्त था जब वो अपनी कहानियाँ हर किसी को सुनाना चाहता था, अपने प्रेम को चाँद पर लिख देना चाहता था. अब वो प्रेम लिख ही नहीं पाता, अब वो सुकून की परिभाषा खोजता है और उसे वो भी नहीं मिलता. ना सुकून, ना ही सुकून की परिभाषा.