Friday, March 3, 2023

खुद को भुला दिया हमने ...

न फूलों से रगबत है न काँटों से रंजिश
ताबीर बाग़ की थी, बस बाग़ बना लिया हमने...

शिकस्ता से कुछ ख्वाब मेरे तकिये के नीचे पड़े थे, 
फिर अगली रात उसे आँखों में सजा लिया हमने 

फ़रागत में बैठेंगे तो सेकेंगे कुछ लम्हें मोहब्बत के
आज तो जल्दबाजी में सब कुछ जला दिया हमने... 

आईने में जो दिखे वो मानूस सा लगता है 
वरना तो खुद के चेहरे को कबका भुला दिया हमने... 


Sunday, February 5, 2023

स्टैक में फँसे ख़्याल…

कभी लगता है तुम्हें बहुत ज़ोर से आवाज़ लगाऊँ, लेकिन कहते हैं कि मन से याद भी करो तो आवाज़ पहुँच जाती है तुम तो परेशान हो जाती होगी न मेरी इन आवाज़ों से, सोचती होगी अगर इतनी आवाज़ें पहले लगाई होती तो शायद आज ये नौबत भी नहीं आती… 

सबसे कठिन वक़्त वो है जब कुछ कहने का दिल करे और सुनने वाला कोई ना हो, जब कुछ लिखो और पढ़ने वाली आँखें कहीं और खो गयी हों… 

ऐसा नहीं है कि ऐसा लम्हा आया नहीं कभी, पर जाने कैसे ये मन अकेले इतने सारे बवंडर को अपने अंदर समेट ले गया… एक, सिर्फ़ एक इंसान भी उस वक़्त मिला होता तो शायद आज इतना भारी भारी सा नहीं लगता सब कुछ… 

तुम कहती हो कुछ नया लिखो, नयी ज़िंदगी के बारे में लिखो लेकिन ये जो इतना पुराना लिखने को बचा है उसका क्या करूँ… एक स्टैक में जैसे फँस के रह गए हैं मेरे ख़याल, जब तक पुराने ख़याल नहीं निकलेंगे, नया कुछ लिख नहीं पाऊँगा… 

और अगर जो पुराना लिखने बैठ गया तो पढ़ते पढ़ते ये सारा जन्म ख़त्म हो जाएगा… 

तो रहने देते हैं, इस क़िस्से को… ये फ़साना समझो कि बह गया… जब बिना रोए पढ़ सकने की हिम्मत आ जाए तो बता देना, पुराना कुछ पढ़ाऊँगा तुम्हें, इतना पुराना जितने पुराने अब वो टूटे ख़्वाब हैं मेरे… 


Friday, December 16, 2022

तीन सालों का सारांश...

हमने कई बार ये सुना है कि सपनों का हक़ीक़त से कोई वास्ता नहीं होता, लेकिन अगर मैं ये कहूँ कि कभी-कभी सच्चाई का भी हक़ीक़त से कोई वास्ता नहीं होता, क्यूँकि सच भी पुराना हो जाने के बाद झूठ या किसी सपने से कम नहीं लगता...

अभी जैसे कुछ तस्वीरें याद ही नहीं आती कि कब ली गई थी, आगे-पीछे का जैसे सब धुंधला हो गया हो, कई रास्ते जिसपर घंटों यूँ ही आज-कल की बातें करते हुए गुजर ज़ाया करते थे, उसके मोड़ जैसे रेत बनके हवा हो गए... 

एक क़िस्सा याद आता है जब नई जगह शिफ़्ट होने के बाद पहले-दूसरे दिन रास्ता भटक गया था कोई, अब लगता है अगर वापस वहाँ गया तो बिना मैप देखे कहीं निकल ही नहीं पाऊँगा, हर चौराहा कहीं मुझे वहीं दफ़्न ना कर दे...

वक़्त भी जैसे बुलेट ट्रेन में बैठकर कहाँ से कहाँ आगे निकल गया, कई खूबसूरत शहर बस एक तयशुदा प्लैट्फ़ॉर्म के नाम भर बन कर रह गए  जब ट्रेन तेज चल रही हो तो पेड़ों के पीछे जाना का भ्रम होता पर सच यही है कि हम ही आगे भागे जा रहे हैं, वो तो वहीं के वहीं हैं जहां हमेशा से थे... 

वक़्त को जाते हमेशा देखा पर, 
वो मुहँ पलट के आता ज़रूर है…   

अपने सारे हिसाब वापस करने… 

कुछ रास्ते जिनके मोड़ से गुजरना होगा ये कभी सपने में भी नहीं सोचा था, उससे हर रोज़ गुजरता हूँ आस-पास कितना भी सन्नाटा हो  कान के पर्दों पर जैसे कुछ आवाज़ें चस्प हो गयी हों, चाह के भी नहीं हटती...   

मुझे अँधेरा अच्छा लगता है, अगर रौशनी की बिलकुल भी ज़रुरत न हो तो बत्तियां बुझाकर बैठने का मन करता है... अंधेरों में आखों को तकलीफ नहीं होती और दिल को भी सुकून मिलता है.... रोशनियाँ आखों में जलन पैदा करती हैं, खुद के लिए ही कई सवाल खड़े कर देती है... इस उजाले में आखें अपने अन्दर छुपे सारे ख़याल छुपा लेती हैं... सब कुछ अन्दर ही अन्दर तूफ़ान मचाता रहता है... बहुत कठिन होता है उजाले और अँधेरे के बीच सामंजस्य बिठाना... आखों से ढुलकते उन एहसासों को जबरदस्ती बाँध लगाकर रोकते रहने की जुगत में कई बार खुद से ही चिढ होने लगती है....

दर्द को धीरे धीरे कुरेदकर कागज पर उड़ेलते रहने से मन हल्का हो जाया करता था एक वक्त, लगता है अब कुरेदने को कुछ बचा ही न हो, कितनी बार एक ही बात कहूँ, एक ही बात लिखूँ...     

बातों का क्या है,  
कितनी भी करो अधूरी रह ही जाती है… 

ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही समझ लीजिए…

Wednesday, September 21, 2022

मैं अब भी सोचता हूँ...

जानता हूँ, अब पहले की तरह न सोच पाऊंगा, न ही लिख पाऊंगा लेकिन टूटे-फूटे ख्यालात तो आते ही रहते हैं... 

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ठंड के वक़्त,
रज़ाई में दुबक कर
लिखी गयी कविताएँ
अक्सर गर्मियों में
पिघल जाया करती हैं…
 
इसलिए
मैंने लिखी हैं कुछ नज़्में
जिनके अंदर छिपी हैं
मेरे दिल की चिंगारियाँ…

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जब रात को बहुत तेज नींद आती है न, तो मैं चाय में चाँद घोर कर पी जाया करता हूँ…

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मैं चुपचाप हूँ,
इसलिए नहीं कि
कहने को कुछ नहीं,
बल्कि इसलिए कि
कुछ कहे-सुने
के दरम्यान
मेरी धड़कनें खो जाती है….

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इन दिनों ज़िंदगी में धूप बहुत ज्यादा है, सूरज को पीठ दिखाता हूँ तो सीने तक उसकी जलन महसूस होती है...

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लिखना कोई काम नहीं है, बस एक सफ़र है… उन रास्तों से गुजरने जैसा जहां बैठे बैठे मन कई ख़याल बुनता है…
कुछ ख़याल हवा हो जाते हैं, कुछ कुलाँचे भरते हुए दूसरों के मन को भी अपने साथ लिए चलते हैं… मेरे शब्दों के साथ चलने वालों का कारवाँ बहुत पुराना है… जो लोग मेरे साथ नए जुड़े हैं और मेरा लिखा नहीं पढ़ा कभी उन्हें ये किसी लतीफ़े से कम नहीं लगता…
 
मेरे मन के नुक्कड़ पर,
तुम भी तो लिखो कुछ नज़्में
जो मेरी पलकों के सिरे को
थामें और ले चलें कहीं और,
जहाँ चाँदनी हो, समंदर हो,
तितलियाँ हो, और हों मेरे सपने..
 
जाने क्यूँ,
उदास सा है मन,
बिना कुछ लिखे,
बिना कुछ पढ़े….

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मेरे बटुए में सबसे ज़्यादा
शनिवार के सिक्के हैं,
खनकते हैं और पुराना वक़्त
छितरा के गिर पड़ता है…
 
ये सिक्के बटोरते बटोरते
जाने कब मेरी ज़िंदगी
बुधवार हो गयी…

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सबने सोचा तो होगा कई बार न
कि काश पीछे जाकर
सही कर सकते कुछ चीज़ों को,
अब जब के पीछे नहीं जा सकते,

चलो आगे चलें…

Saturday, January 16, 2021

पलायन...

"तुमने लिखना क्यों छोड़ दिया... "
"पता नहीं... शायद अब लिखने को कुछ बचा नहीं.... और अब मैं कुछ लिखना भी नहीं चाहता, अनजाने लोगों के दिल के तार छेड़ने के लिए इंसान कब तक लिख सकता है... पता है, मेरे पास पढ़ने वालों की कभी कमी नहीं रही.. लेकिन अब शायद वक़्त आ गया है कि ज़िन्दगी के इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाए... " 
"लेकिन तुम तो कहते थे कि लिखना कभी नहीं छूटना चाहिए, ये लाइफलाइन है...."
"हम्म्म्म... लाइफलाइन तो थी, लेकिन अब वो बेचैनी नहीं होती कुछ लिखने की... "
"फिर लेखक बनने का ख्वाब ?? "
"लेखक तो मैं आज भी हूँ, हमेशा रहूंगा... हाँ... एक किताब का क़र्ज़ है, वो लिखूंगा ज़रूर कभी जब लहरें शांत हो जाएँ आस-पास... और छोटा-मोटा तो लिखता ही रहूंगा, बस इस उम्मीद में कि वो पढ़कर कहीं कोई WOW कहके मुस्कुराते हुए ताली बजा रहा होगा... "
" ..... "
" और एक बात, अब मेरी लिखाई और फोटोग्राफी में वो पहले वाली बात नहीं रही,  बहुत कोशिश करने के बाद भी I am not able to create a masterpiece anymore... "
"पर, पलायन करना तो उपाय नहीं है ना..."
"पता है, कल ही एक फ़िल्म देख रहा था 'तृभंग', उसमें अरविन्दो कहता है कि जो हुआ वो होना निश्चित था, जो हो रहा है वो लिखा हुआ है और जो होने वाला है वो होकर ही रहेगा, तो वक्त को बेहतर करने की कोशिश ज़रूरी है लेकिन उसे जस के तस मान लेना पलायनवाद नहीं है... तो अगर और लिखना, अवश्यम्भावी होगा तो लिखूंगा ही..."

मैं इस बहते पानी के पन्ने पर,
लिखना चाहता हूँ, 
उसी तरह जैसे 
पहले हवाओं और ओस की बूँदों पर 
लिख दिया करता था... 
बेख़याली में भी लिखे शब्दों की 
क़समें खाकर 
आशिक़ आह भरा करते थे... 

पर मेरी कविताएं 
कमज़ोर हो गई हैं इन दिनों,
अब इन कविताओं के फेफड़ों में,
उन साँसों की खुशबू नहीं आती.... 
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