Thursday, August 7, 2025

मुझे नहीं आया प्रेम साबित करना...

तुम्हारे माथे पर
एक हल्की सी शिकन देख ली थी उस दिन,
उसके बाद से
हर शाम थोड़ा जल्दी लौट आता हूँ—

शायद यही मेरा "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ" है। 

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प्यार बहुत किया है,
गवाही नहीं दी,
क्योंकि इश्क़ अगर सच हो
तो अदालत नहीं, धड़कनें काफी हैं...

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तुमने पूछा, कभी क्यों नहीं कहा,
मैं मुस्कुराया —
"जो हर वक़्त महसूस हो
उसे साबित थोड़ी किया जाता है..."

मैं हर रोज़ लिखता हूँ तुम्हें,
बिना नाम, बिना पते के,
प्यार तो लफ़्ज़-लफ़्ज़ टपकता है,
पर तुम्हें भेजना नहीं आता...

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मुझे नहीं आता
प्रेम को सबूतों में बाँधना,
मैं तो बस हर रोज़
तुम्हें अपनी साँसों में रख लेता हूँ...

"मुझे नहीं आया 
प्रेम साबित करना,
बस आया प्रेम करना..."

प्यार बहुत करता हूँ,
बस जताना नहीं आता,
तुम हवा बनके रही पास
और मैं साँस बनके भी कुछ कह न सका...

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शायद इसलिए
हर बार तुम्हें पाने की जगह
मैंने तुम्हें होने दिया —
जैसे चुपचाप
कोई दीपक रख आता है
मंदिर की देहरी पर
बिना मन्नत माँगे।

मैंने नहीं पूछा कभी
कि तुम क्यों दूर हो,
क्योंकि नज़दीकी मापने का हुनर
मेरे प्रेम में था ही नहीं।

जो भी था —
वो उसी तरह बहा
जैसे नदी अपने किनारों से
सिर्फ मिलने की उम्मीद में टकराती है,
ना कोई सवाल,
ना कोई सबूत।

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प्रेम मेरे लिए कोई तर्क नहीं था,
वो बस एक आदत थी —
तुम्हें हर दिन महसूस करने की।

मैंने कभी नहीं माँगा
तुम्हारा नाम अपने नाम के साथ,
पर हर दुआ में
तुम्हारी छाया रख दी थी—
जैसे धूप में कोई
किसी पेड़ को याद करता है।

जो तुमसे कहा नहीं
उसे कई बार
अपनी ही नींद से चुरा कर
कविताओं में रख आया हूँ,
ताकि जब पढ़ा जाए
तो लगे —
कि कोई चुपचाप
तुमसे प्रेम कर रहा है… तब भी...

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