कुछ चुप्पियाँ
इतनी घनी होती हैं
कि उन्हें पढ़ने के लिए
शब्दों को भी
कहीं और से आना पड़ता है..
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मैंने अपनी सबसे सुन्दर कविता
तुमसे नहीं कही —
ताकि तुम मेरे साथ रहो हमेशा
मेरा बेस्ट सुनने के लिए ...
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हर बार जब मैं
तुम्हारे नाम की आख़िरी मात्रा पर रुकता हूँ —
एक नज़्म वहीं से
उदास होकर लौट जाती है...
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वो जो एक चाय का कप
तुमने अधूरा छोड़ा था,
अब उसमें
मैं अपने दिन की तन्हाई घोलता हूँ...
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इश्क़ अब भी है,
बस वो अब
नज़्मों में नहीं,
दोपहरों की खिड़कियों में
कभी-कभी सूखता मिलता है...
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इंतज़ार एक ऐसी चुप्पी है, जिसे सिर्फ वही सुन सकता है जिसे तुमने कभी अलविदा नहीं कहा...
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मैंने खुद को उस वक़्त सबसे ज्यादा समझा
जब कोई समझने वाला नहीं था...
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जिन शब्दों को किसी ने नहीं पढ़ा, वही मेरी सबसे ईमानदार कविता थी...