जो आँगन में खेलते बच्चे को चूम लेती थी…
अब वही धूप चुभने लगी है,
जैसे कोई नाराज़ हो गई हो,
बहुत दिनों से बोले बिना, बस तप रही हो।
हवाएँ भी अब कहानी नहीं कहतीं,
बस थककर बहती हैं ...
जैसे किसी ने उनके रास्ते पर
बहुत बोझ रख दिया हो।
पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है,
पर अफसोस , दिलों की नहीं।
समंदर ऊँचे हो रहे हैं,
पर इंसान की नीयतें और नीची।
हमने तरक्की के नाम पर
धरती की साँसें गिरवी रख दीं,
पेड़ों की जगह टॉवर लगाए,
फूलों की जगह एसी की हवा सूँघी,
और अब हैरान हैं कि बारिश रूठी क्यों है।
कभी-कभी लगता है,
धरती अब बोलना चाहती है,
कहना चाहती है कि “बस करो,”
पर हम मीटिंग्स, डेडलाइन्स,
और प्रॉफिट ग्राफ़्स में इतने उलझे हैं
कि उसकी खामोशी भी
हमारे लिए बस background noise बन गई है।
शायद एक दिन,
जब धूप जलाने लगेगी,
जब समंदर निगल लेंगे किनारे,
जब पंछी लौटेंगे ही नहीं,
तब हम समझेंगे,
कि ये सज़ा नहीं,
सिर्फ़ धरती का बदला हुआ अंदाज़ है।

पर्यावरण असंतुलन पर जितना कहा जाए कम हैं बेहद महत्वपूर्ण विषय पर सजग करती अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
-----
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ दिसम्बर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Wahhh...
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर रचना
सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDelete