वैसे तो ज़िंदगी कई सारे सपनों के इर्द-गिर्द बुनी है, कुछ सपने पूरे होते हैं, कुछ अधूरे रह जाते हैं. कई सारे अधूरे सपनों के बीच जब एक प्यारी कोंपल झांकती है तो अचानक से ज़िन्दगी के पूर्ण होने का एहसास पनप जाता है...
ज़िंदगी के बलखाती वसंत पड़ाव में कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा पिछले एक साल से. एक दौर था जब दस-एक साल पहले बरसाती बूंदों को ज़मीन में मिलते हुए देखा करता था खिड़कियों से, अब ये खिड़कियाँ ज्यादा क्यूट दिखती हैं. ये रंग-बिरंगे चिन्नू-मिन्नू से कपड़े जैसे ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं.
इस एहसास के बारे में कितना भी सोचूँ, कुछ ख़ास लिख नहीं पा रहा हूँ, पहली बार बार ऐसा लग रहा जैसे शब्दों के ख़त्म हो जाने में भी एक संतोष है...
जब साँस तुम्हारी आती है,
या जब हौले मुस्काती हो,
शब्द वहीं ठहर से जाते हैं
और मैं मुकम्मल हो जाता हूँ...