मैं अब कोरे कागज को,
कोरा ही छोड़ देता हूँ
तुम्हारी फिक्र और कुछ खयाल
ड्राफ्ट में सेव कर छोड़े हैं...
*******
मैंने देखा था
उसके आखिरी समय में उसे
उसकी आवाज़ उसका शरीर छोड़ दे रही थी...
आज सुबह उसकी रूह ने,
आवाज़ लगाई है मेरे सपनों में
रूह से भला उसकी आवाज़ को
कौन जुदा कर पाया है आज तक..
*******
ज़िंदगी के रंग को जाना है कभी,
कभी देखी है
उन गुलाबी-पीले फूलों के चारो ओर
लगी लोहे के कांटे वाली नुकीली बाड़...
कोरा ही छोड़ देता हूँ
तुम्हारी फिक्र और कुछ खयाल
ड्राफ्ट में सेव कर छोड़े हैं...
*******
मैंने देखा था
उसके आखिरी समय में उसे
उसकी आवाज़ उसका शरीर छोड़ दे रही थी...
आज सुबह उसकी रूह ने,
आवाज़ लगाई है मेरे सपनों में
रूह से भला उसकी आवाज़ को
कौन जुदा कर पाया है आज तक..
*******
ज़िंदगी के रंग को जाना है कभी,
कभी देखी है
उन गुलाबी-पीले फूलों के चारो ओर
लगी लोहे के कांटे वाली नुकीली बाड़...
बहुत कम शब्दों में बहुत ख़ूबसूरती से कह दिया है सब कुछ...बेहतरीन...।
ReplyDeleteलिखते रहो यूं ही...।
v.nice
ReplyDeleteऐसे ख़याल ड्राफ्ट से निकलने ही चाहिये .... बहुत अच्छा लगा .....
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन अमरीश पुरी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeletebhadhiya
ReplyDeleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeletevery encouraging poetry:) thanks
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteतुम्हारी संजीदगी एक डायरेक्ट कॉनटैक्ट बनाती है... ऐसा लगता है अपने दिल की बात हो. तुम्हारे आलेखों में, संसमरण में या इस तरह की छोटी छोटी नज़्मों में.. जब भी तुम्हें पढा है (या तुम्हारी चर्चा की है) एहसासों से भरा पाया है! जीते रहो. यही तुम्हारी सबसे बड़ी ताक़त है!!
ReplyDelete