Tuesday, April 26, 2016

लिख दिया है कुछ, यूं ही आँखें बंद किए हुये....

कभी कभी मुझे लगता है मेरे अंदर अंधेरा भरा हुआ है, तिल-तिल कर भरा हुआ अंधेरा.... और उसके भीतर एक छोटा सा चिराग छुपा है आधा जागा-आधा बुझा सा.... कभी कनखियों से झाँकते उस चिराग की रोशनी में मुझे खुद का चेहरा दिखाई देता है... ये रोशनी मेरे भीतर थोड़ी गर्मी तो पैदा करती हैं लेकिन साथ ही एक भूकंप भी आता है और मेरे वजूद को थोड़ा हिला कर चला जाता है....

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मैं सालों से लिख रहा हूँ, लिखता ही चला रहा हूँ... पता नहीं लिख रहा हूँ या बस अपनी कलम से कागज पे पड़ी ये सिलवटें हटा रहा हूँ... कोरे पन्ने खाली से लगते हैं मुझे, जैसे चीख चीख के कोई धुन तलाश रहे हों, उनपर अपनी स्याही उड़ेलकर उन्हें एक अधूरापन सौंप कर आगे बढ़ जाता हूँ.... शायद उन अधूरे-अधलिखे लफ्जों और धुनों की गिरहों को खोलकर कोई खोज ले अपना वजूद और बना दे अपने प्यार से भरा संगीत.... 

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कैब में बैठ के ऑफिस से घर जा रहा हूँ, काफी दिन से गर्मी की उठा पटक के बाद बाहर हलकी हलकी बारिश हो रही है... गाडी में FM पर धीमे आवाज़ में कोई गाना बज़ रहा है... अचानक से ड्राईवर एक गाने पर ज़ोर ज़ोर से गुनगुनाने लगता है, और गाने की आवाज़ बढ़ा देता है... गाना है, "मौसम है आशिकाना, ए दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना"...
यकीन मानिए मैं बंगलौर में हूँ, और ड्राईवर भी दक्षिण भारतीय ही है...

ये लिखते लिखते गाने की आवाज़ और तेज़ हो गयी है, "ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी ये बरसात की रात"....

5 comments:

  1. शेखर जी आपने अपनी जो अपने मन की इच्छाएँ व्यक्त की है वह बहुत ही मनमोहक हैं बारीस के मौसम का आनंद कुछ अलग ही होता है आप इसी तरह से
    शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं जिससे यह और भी पाठकों तक पहुँच सके .........

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  2. बहुत खूब जिंदगी की कहानियाँ ऐसे ही बनती है

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