पर इस बार वक़्त इतना बेरहम न था, उस ख़ुशी ने दस्तक दे दी, और आज कल दिन-रात सुबह-शाम बस उसी के इर्द-गिर्द घूम रही जैसे ज़िन्दगी.
जानता हूँ, अब मेरे लिखे में वो साहित्यिक टच नहीं रहा जिसे पढ़कर कुछ आखें चमक जाया करती थी, कुछ दिल तड़प जाया करते थे, कुछ आखें गीली हो जाया करती थीं.
इसलिए तो अब नहीं लिखता, या ये कहूँ कि नहीं लिख पाता... फिर भी...
इसलिए तो अब नहीं लिखता, या ये कहूँ कि नहीं लिख पाता... फिर भी...
इक नदी आयी है मेरे आँगन में,
खिलखिलाती है तो
उसकी लहरें जैसे
किलकारियां मारती हैं,
बिलकुल मासूम सी...
इस नदी के किनारे पे
बैठा मैं
बस एक-टक निहारा करता हूँ....
दुनिया की सारी
कविताओं के रूठने के बाद,
मेरी खुद की एक मुकम्मल नज़्म
अब मेरे पास है....