Wednesday, March 13, 2024

अधूरी दास्तानें (2)...

“प्यार तो सबसे बेसिक ज़रूरत है ना जीने के लिए."
“है तो….”
“फिर ? “
“फिर क्या ?”
“कुछ नहीं.”
“प्यार है ना, बहुत है… प्यार अब तक है तभी तो ज़िंदा हूँ…”
“………..”

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मुझे लगता है दो बिछड़ जाने वालों के बीच एक कोड वर्ड होना चाहिए, जो सिर्फ़ वो दोनों समझ सकें. जब भी ये कोड वर्ड बोला जाए तो दूसरे को ये एहसास हो जाये कि सामने वाला कमज़ोर पड़ रहा है....

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वक़्त के साथ कैसे मायने बदलने लगते हैं. पहले जो अपना घर था जाने कब बिटिया का दादी-घर बन गया. चाहे कुछ भी कह के पुकारा जाए, ये तो अपना ही घर रहेगा हमेशा. क्योंकि न ये सुकून कहीं है और न ही बड़ों का हाथ सर पे होने का विश्वास, फिर चाहे भले ही अब वो शारीरिक तौर पर हमारा सहारा न बन सकें. सुबह जब खिड़की से पहली रौशनी कमरे में आती है तो अलग सा एहसास है, पता नहीं क्यों ऐसा एहसास बैंगलोर में नहीं आता. पिछले बाईस सालों में जाने कितने ठिकाने बदले और हर बार हर शहर पुराना हो गया. पता नहीं भगवान ने मुझे ये वरदान


दिया है या अभिशाप कि एक बार मैं अगर कहीं से आगे बढ़ जाता हूँ तो वापस कभी उस चीज को मिस नहीं करता. फिर चाहे वो कोई जगह हो या इंसान. हाँ जब तक वो साथ हो, पूरी शिद्दत से साथ होता है, इसलिए इससे पहले कि ये शहर भी सिर्फ़ अनछुई याद बन के रह जाये, यहाँ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिता लेने चाहता हूँ. आख़िर ये शहर भी वैसा ही बन जाएगा कुछ सालों बाद....

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मैंने नहीं लिखा प्रेम कई सालों से,
दुनिया में बचा है ना प्रेम,
या विलुप्त हो रहा धीरे-धीरे
ओज़ोन की परत की तरह ..

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कितने भी साल बीत जायें,
कानों में एक आवाज़ है
जो भुलाए नहीं भूलती.
मन करता है पूछूँ,
कैसी हो तुम
ठीक हो न,

फिर लगता है
कहीं तुमने भी
यही सवाल पूछ लिया तो,
तो क्या कहूँगा.
झूठ बोल नहीं पाऊँगा और,
सच बोला नहीं जाएगा. 

इसलिए बिना पूछे,
बता दो ना,
कैसी हो
क्या बिलकुल वैसी
जैसी मिलती थी मुझे हर सुबह

मुस्कुराते हुए…

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