Monday, November 3, 2025

बस इतने भर के लिए मिलना...

ना आँखों में पानी,
ना लफ्ज़ों में शिकवा…
बस एक ख़ामोश देख लेना है तुम्हें
जैसे रूह देखती है
अपना छूटा हुआ शरीर…

कभी वक्त ठहरे,
तो हवा को छू लेना —
शायद उसमें मेरी साँसों की कोई परछाई हो।
बारिश आए तो खिड़की खोल लेना —
कुछ नमी मेरी बातों की अब भी अटकी होगी वहाँ।

ना लौटना अब,
ना पुकारना मुझे,
हम बस यादों की दीवार पर
लटकी हुई तस्वीरें हैं —
जो मुस्कुराती भी हैं,
और थक जाती हैं मुस्कुराते-हुए।

मिलना है यूँ,
जैसे कोई पेड़
आख़िरी पत्ते के गिरने से पहले
एक बार और
आसमान को देखना चाहता हो...

मैं कुछ नहीं कहूँगा,
तुम भी मत कहना,
बस इतने भर के लिए मिलना —
कि मरने के बाद
कोई अफ़सोस न बचे
कि हम आख़िरी बार
ज़िंदा रहते हुए
एक-दूसरे को ज़िंदा न देख सके… 


7 comments:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  2. उदासी भरी रचना

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  3. सुंदर प्रस्तुति

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    1. This comment has been removed by the author.

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  4. आपकी कविता सीधा दिल के अंदर कहीं बहुत शांत जगह पर जा के बैठ जाती है। समें कोई शोर नहीं, कोई ड्रामा नहीं—बस वो धीमी, गहरी कसक जो हम टालते रहते हैं।

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