तो सिर्फ़ पेड़ नहीं जलते —
किसी चिड़िया का घोंसला जलता है,
किसी हिरन का रास्ता,
किसी बूंद का सपना।
आग लगती है कहीं दूर,
पर राख हवा के साथ
हर इंसान की साँस तक चली आती है।
फिर भी,
हम उसे सिर्फ़ “न्यूज़” कहते हैं।
कभी उन पेड़ों की छाँव में
धरती ने भी चैन की साँस ली थी,
आज वही धरती धुआँ ओढ़े बैठी है —
जैसे किसी बूढ़ी माँ ने
अपने बच्चों को खुद से दूर जाते देखा हो।
आग सिर्फ़ जंगल नहीं खाती,
वो भरोसा भी जलाती है —
कि कल भी हवा में हरियाली होगी,
कि पंछी लौटेंगे अपने घर,
कि धरती अब भी ज़िंदा है।
और अजीब बात यह है —
ये आग पेड़ों ने नहीं लगाई,
हमने लगाई थी…
अपनी ज़रूरतों, अपनी जल्दी,
और अपने अहंकार की तीली से।
अब जो जल रहा है,
वो जंगल नहीं —
हमारी अपनी इंसानियत है।
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हम जंगल की आग को बस खबर समझकर आगे बढ़ जाते हैं, पर असल में वहाँ किसी चिड़िया का घर जलता है, किसी जानवर की राह टूटती है। आपने बहुत साफ़ दिखा दिया कि नुकसान सिर्फ़ पेड़ों का नहीं होता, हमारी साँसों, हमारी धरती और हमारी इंसानियत का भी होता है। हम ही जल्दी और लालच में आग लगाते हैं, और फिर वही धुआँ वापस हमारी ही ज़िंदगी में भर जाता है।
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteअब जो जल रहा वो जंगल नहीं....
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण सर।
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ नवंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteअंतस को झकझोरता
ReplyDeleteयही विचार मन को तड़पाता है, जब कहीं दूर दो देश आपस में लड़ते हुए आधुनिकतम परमाणु हथियारों से धरती के पैरहन को जलाते हैं या फिर अंधपरंपरा का हवाला देकर ज्ञानी लोग भी पटाखे के रूप में बारूद जलाते हैं .. शायद ....
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत खूब!
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