वो ज़िंदगी बेहतर थी,
जब जेब में पैसे कम थे,
पर वक़्त ज़्यादा था।
जब बातें लंबी थीं,
और मतलब छोटे।
अब सबकुछ है,
सुविधा, सुरक्षा, स्क्रीन पर मुस्कुराते चेहरे,
पर शायद वो “सच्ची मुस्कान”
कहीं पुराने दिनों की जेब में रह गई है।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या हमने तरक़्क़ी की है,
या बस अपने सवालों को
महंगे पर्दों के पीछे टाँग दिया है?
वो ज़िंदगी जिसमें सपने
साइकिल के पैडल के साथ भागते थे,
और ये ज़िंदगी,
जहाँ कारें हैं, पर मंज़िल नहीं।
शायद हम बेहतर जी रहे हैं,
पर महसूस कम कर रहे हैं।
वो पुराने दिन सादे थे,
पर सुकूनदार,
ये आज के दिन चमकदार हैं,
पर थके हुए।
कौन सी ज़िंदगी बेहतर थी,
शायद दोनों ही नहीं।
बेहतर तो बस वो पल था,
जब हम सोच नहीं रहे थे
कि कौन-सी बेहतर है।

अच्छा है लिखना | पढ़ना भी चाहिए |
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