मुझे इन पन्नो पर मत ढूँढना,
यहाँ तो केवल मेरे कुछ पुराने शब्द पड़े हैं
वो शब्द जो मैं अक्सर
इस्तेमाल कर किया करता था,
वो शब्द जो कभी बयान करते थे
मेरी खामोशियाँ, मेरी तन्हाईयाँ...
वो अब पुराने पड़ चुके हैं
अपना वजूद खो चुके हैं...
मुझे इन हथेलियों पर मत ढूँढना,
यहाँ तो बस
कुछ आरी-तिरछी लकीरें हैं मेरी
जिनके सहारे कभी
मेरा नसीब चला करता था
ये लकीरें अब धुंधली पड़ चुकी हैं
उनसे मेरा अब कोई जुड़ाव नहीं....
मैं तुम्हें कहीं नहीं मिलूंगा,
मैं तो कब का निकल चुका हूँ
अपने अकेलेपन को ज़मीन के किसी कोने में दबाकर,
अपनी इस उदास सी रूह को समेटकर
इस बेदिल दुनिया से बहुत दूर,
किसी निर्जन स्थान पर...
यहाँ तो केवल मेरे कुछ पुराने शब्द पड़े हैं
वो शब्द जो मैं अक्सर
इस्तेमाल कर किया करता था,
वो शब्द जो कभी बयान करते थे
मेरी खामोशियाँ, मेरी तन्हाईयाँ...
वो अब पुराने पड़ चुके हैं
अपना वजूद खो चुके हैं...
मुझे इन हथेलियों पर मत ढूँढना,
यहाँ तो बस
कुछ आरी-तिरछी लकीरें हैं मेरी
जिनके सहारे कभी
मेरा नसीब चला करता था
ये लकीरें अब धुंधली पड़ चुकी हैं
उनसे मेरा अब कोई जुड़ाव नहीं....
मैं तुम्हें कहीं नहीं मिलूंगा,
मैं तो कब का निकल चुका हूँ
अपने अकेलेपन को ज़मीन के किसी कोने में दबाकर,
अपनी इस उदास सी रूह को समेटकर
इस बेदिल दुनिया से बहुत दूर,
किसी निर्जन स्थान पर...
ufff.............. kehna kya chahte ho..... tumhe dhoondhe ya nahin dhoondhe?
ReplyDeletemat dhoondhna... :-/
Deleteraah bhul gayaa ho use dhundhaa jaa sakataa hai ,dhundhanaa bhi chahiye ....
Deletejo chhipane kaa koshish kare use dhundhanaa bebkuphi hai (*_*)
अब तो निर्जन भी कहीं नहीं ... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteशानदार!!!
ReplyDeleteमुझे मत ढूँढना...
ReplyDeleteI Liked very Much Yaar......
And shared it on FB also
बहुत खूब
ReplyDeleteसादर
मैं जब स्वयं खो जाता हूँ तो सोचता हूँ कि कहाँ खोजूँ।
ReplyDeleteबहुत भावमयी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteभावमयी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteपगला गया है का रे ????
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteकल 26/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मैं तो कब का निकल चुका हूँ
ReplyDeleteअपने अकेलेपन को ज़मीन के किसी कोने में दबाकर,
अपनी इस उदास सी रूह को समेटकर ...
bahut sundar...
मैं तुम्हें कहीं नहीं मिलूंगा,
ReplyDeleteमैं तो कब का निकल चुका हूँ
अपने अकेलेपन को ज़मीन के किसी कोने में दबाकर,
अपनी इस उदास सी रूह को समेटकर
इस बेदिल दुनिया से बहुत दूर,
किसी निर्जन स्थान पर...
फिर ये शब्द , हमारी दुनिया में क्यों उत्पात मचा रहे हैं ?
हमारी शांत जिंदगी में हलचल क्यूँ पैदा की ?
शब्द ही तो हैं .. नादान हैं बेचारे... उनकी तरफ से माफ़ी ... :-/
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteनमस्ते
ReplyDeleteहैलो, यहाँ ब्राजील से अपने ब्लॉग अभिवादन का दौरा
गलतियों की भाषा के बारे में खेद है
ReplyDeleteप्रबल भाव ...
ReplyDeleteअच्छी रचना ...
शुभकामनायें...
जब मैं ना रहूँ, तो मेरी कब्र पर (आग से बहुत डर लगता है मुझे, जीती जी भी और मरने की बाद तो और भी) ये नज़्म लिखवा देना.. तुम्हारे सलिल चचा को ये सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी- An Epitaph!!
ReplyDeleteवैसे तो ये कमेन्ट अपने आप में एक बेहतरीन तारीफ है इस बेकार सी नज़्म की, लेकिन ऐसे बातें मत किया कीजिये... इस नज़्म को ऐसे ही लपेट कर भिजवा दूंगा आपके जन्मदिन के दिन... लव यू....
Deleteउफ़ ………इतना दर्द , इतनी संजीदगी, इतनी निर्लेपता
ReplyDeleteइंसान उन्ही पन्नों में उन्ही शब्दों में मिलता है ... वो कहीं जा नहीं पाता उनसे पीछा छुडा के ... एहसास में डूबी रचना ...
ReplyDeleteस्पैम!!!
ReplyDeleteबहुत दर्द है भाई
ReplyDeleteवाह, बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमैं तुम्हें कहीं नहीं मिलूंगा,
ReplyDeleteमैं तो कब का निकल चुका हूँ
अपने अकेलेपन को ज़मीन के किसी कोने में दबाकर,
अपनी इस उदास सी रूह को समेटकर
इस बेदिल दुनिया से बहुत दूर,
किसी निर्जन स्थान पर...
bauhat khoob!!
ख़ूबसूरत कविता...
ReplyDeleteअच्छा लगा आपके लिखने का अंदाज...
Very well written, nice thoughts Shekhu
ReplyDeleteबहुत खूब...|
ReplyDeleteबहुत खूब! ये कविता पढ़कर नंदनजी की ये लाइने याद आ गयीं:
ReplyDeleteमुझे स्याहियों में न पाओगे, मैं मिलूंगा लफ़्जों की धूप में,
मुझे रोशनी की है जुस्तजू, मैं किरन-किरन में बिखर गया।
Waah !!!
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