१. कव्वे और काला पानी- निर्मल वर्मा
२. रात का रिपोर्टर- निर्मल वर्मा
३. गृहदाह- शरतचंद्र
४. चाय का दूसरा कप- ज्ञानप्रकाश विवेक
जो भी किताबों के शौक़ीन हैं अधिकाँश लोगों ने पहली तीन किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी... हाँ चौथी किताब थोड़ी नयी है बहुतों के नज़र के सामने से न गुजरी होगी... अभी कुछ दिनों पहले दैनिक ट्रिब्यून में इस किताब का रिव्यू पढ़ा तभी से पढने का मन कर गया.... ट्रिब्यून के अनुसार "देवदत्त और उनके खोए बेटे केतन का वियोग समझाती, धुआं छोड़ती, टीस को
गहराती, अपने और आसपास के माहौल को जिंदा बनाती-बताती कहानी है उपन्यास
‘चाय का दूसरा कप' ..."
बस उसी किताब के थोड़े अंश अपनी नज़र से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ...
ये उपन्यास पिता-पुत्र के रिश्तों के गलियारों में टहलते हुए कई बार आपके अन्दर तक उतर जाने का माद्दा रखता है...
कहानी शुरू होती है पिता (देवदत्त) के खालीपन से... उनका इस दुनिया में कोई भी नहीं एक पुत्र के सिवा और वो भी ७ दिनों से लापता है.... वो चलते चलते ठिठक जाते हैं, जैसे किसी ने आवाज़ दी हो...
बस उसी किताब के थोड़े अंश अपनी नज़र से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ...
ये उपन्यास पिता-पुत्र के रिश्तों के गलियारों में टहलते हुए कई बार आपके अन्दर तक उतर जाने का माद्दा रखता है...
कहानी शुरू होती है पिता (देवदत्त) के खालीपन से... उनका इस दुनिया में कोई भी नहीं एक पुत्र के सिवा और वो भी ७ दिनों से लापता है.... वो चलते चलते ठिठक जाते हैं, जैसे किसी ने आवाज़ दी हो...
वो पलटकर देखते हैं.. कुछ इस अंदाज़ से जैसे आवाज़ के चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहे हों... आवाजें.... इतनी सारी आवाजें.... आवाजों का बीहड़.... लेकिन वो आवाज़ जो उन तक पहुंची थी, कहीं नज़र नहीं आती ... दूर तक कोई जानी पहचानी शक्सियत भी नज़र नहीं आती, की जिसने आवाज़ दी हो... शायद आवाज़ किसी ने भी नहीं दी.. शायद वहम हो... शायद कोई लावारिस या भटकी हुई आवाज़ उनके सामने आ गिरी हो... किसी लहू-लुहान अदृश्य परिंदे की तरह.... वो जानते हैं उन्हें आवाज़ देने वाला कोई नहीं.. फिर भी वो चलते चलते कोई सगी सी आवाज़ सुन लेते हैं.... पराई दुनिया में सगी सी आवाज़, जो होती नहीं.... होने का भ्रम रचती है....
मैं भी ये पंक्तियाँ पढ़ते पढ़ते उसी एकाकीपन में उतर जाता हूँ, सच में कैसा लगता होगा देवदत्त को, जब वो यूँ अकेले खोये खोये सड़क पर चल रहे होते हैं... चलते चलते वो बाज़ार से होकर गुज़रते हैं... बाज़ार जहाँ से उन्हें कुछ नहीं खरीदना... न खरीदने वाला मनुष्य, बाज़ार के लिए किसी कूड़ेदान की तरह होता है... सड़क के किनारे लगे मोबाईल कंपनी के बैनरों को देखकर उन्हें याद आता है किसी से बात किये उन्हें कितने दिन गुज़र गए हैं...
ख़ामोशी की कितनी तहें ज़म चुकी हैं उनके अन्दर... जैसे ख़ामोशी का कोई थान हो-- तहाकर रखा गया थान... ख़ामोशी का थान... किसी के साथ न बोलना, अपने अन्दर के बहुत सारे विस्फोटों को सुनने जैसा होता है...
आज केतन के लापता हुए ८ दिन गुज़र गए हैं... देवदत्त बिखरना नहीं चाहते, उम्मीद और संशय के बीच, एक ज़र्ज़र सी खुशफहमी लिए, केतन के घर आने की आस में इधर उधर भटकते हैं...
केतन के लौट आने की जिस बेताबी के साथ देवदत्त प्रतीक्षा करते हैं, वो मारक सिद्ध होती है उनके लिए... देवदत्त इन आठ दिनों में कितने बदल गए हैं... वो इंसान नहीं लगते, कोई पिरामिड लगते हैं--हज़ारों साल पुराना पिरामिड--चुपज़दा पिरामिड ! अपने अन्दर, अकेलेपन की अजीब सी गंध और उदासी की बेतरतीब लिपियों को समेटे हुए एक पिरामिड... जैसे चल न रहा हो रेंग रहा हो... अपने समय की वर्तमानता से पिछड़ा हुआ, डरा हुआ पिरामिड.... देवदत्त...इसी तरह के ज़ज्बातों से लिपटी हुई कहानी आगे बढती है, लगभग आधा उपन्यास ख़त्म कर चुका हूँ... कहानी में भले ही कोई रोमांच न हो लेकिन कहानी एकदम अन्दर दिल में उतरकर चहलकदमी करती है... कई बार आखों के कोर नम हो जाते हैं... एक पिता के आस पास पसरा ये एकांत.... उफ्फ्फ्फ़...
खैर मैं पढता रहूँगा और आगे की बातें बताता रहूँगा... तबतक अगर हो सके तो आप भी लीजिये "चाय का दूसरा कप"... और बताईये कैसी लगी ये किताब....
आगे की बातें अगली पोस्ट में...
:) :)
ReplyDeleteचाय का दूसरा कप --kitaab ka naam hi laajawab hai sir ji...padhne ka man hai ye kitaab!
ReplyDeleteहमारी भी रुचि जाग रही है, निर्मल वर्मा में।
ReplyDeleteबढ़िया लिखे हो शेखू!!! नेक्स्ट टाइम ये किताब भी खरीदेंगे !!!
ReplyDeleteSeems very interesting!!!!
hmm seems interesting to read!!
ReplyDeleteअभी भारत में मुंबई जाते वक्त बुक स्टाल पर दिखी निर्मल वर्मा की एक किताब, उठा ली, फिर नजर पढ़ गई गुनाहों के देवता पर..और न जाने क्या सोच कर मैंने गुनाहों का देवता खरीद ली.
ReplyDeleteअब लग रहा है गलत फैसला किया मैंने.
हम्म अच्छा लग रहा है कथानक...और अच्छे अंश कोट किए हैं...भीतर तक उतर जाते हैं.
ReplyDeleteकिताब के अंश और आपका नज़रिया दोनों ही बहुत अच्छे लगे ....
ReplyDeleteऐसे ही क्रमशः रखिए ...इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteagli kadi padhne kee khwahish jag uthi
ReplyDeleteआपने उत्सुकता जगा दी है इस किताब के बारे में ... अब तो पढ़ना पड़ेगी ...
ReplyDeleteआगे का इंतज़ार है
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