जब भी मौका मिलता है कहीं न कहीं कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूँ, आजकल डायरी से ज्यादा फेसबुक सब कुछ सहेजने का काम करता है.. ऐसे ही कुछ कतरे जो अलग अलग मूड में लिखे गए हैं... कुछ डायरी के पन्नों से और कुछ फेसबुक की दीवार से...
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स्कूल से मेरी छुट्टी पहले हो जाया करती थी, घर आकर मैं इधर-उधर टहलता...
उस समय घर में कोई नहीं होता था, मैं थोड़ी ही देर में कपडे बदलकर छत पर चले
जाया करता... हर मिनट नज़र घर के सामने की सड़क पर चली जाती थी, वहां तक
देखने की जी तोड़ कोशिश करता जहाँ तक देख सकूं... ये मेरा हर रोज का रूटीन
था... हर शाम मेरी उन छोटी आखों में ढेर सारा इंतज़ार होता था... अजीब बात
है न, जबकि पता था कि माँ साढ़े चार बजे से पहले नहीं आएगी.. फिर भी इसी
उम्मीद में रहता था कि काश आज थोडा पहले देख लूं उन्हें... बहुत गहरा उतर
चुका था वो इंतज़ार... आज १७-१८ साल बाद ज़िन्दगी बहुत आगे निकल आई है... साल भर से ज्यादा
होने को आये हैं उन्हें देखे हुए... ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने दिनों तक
माँ-पापा से नहीं मिला... हालांकि उनसे मिलकर भी उनसे ऐसी कुछ ख़ास बातें
नहीं होती हैं... बस एक सुकून सा मिलता है... कलैंडर की तरफ देखता हूँ तो अभी भी दिवाली में एक
महीना बाकी है...:-/
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सुबह बाहर गहरा कोहरा था, सड़क पर सूखे पत्ते ओस की बूंदों से लिपटे ठिठुर रहे थे... मैंने खिड़की से झाँका तो देखा, सुबह सुबह कचरे उठाने वालों के अलावा कोई नहीं था... ऐसा लगा उनकी ज़िन्दगी की शेल्फ के हिस्से यूँ ही सड़कों पर खुले रखे हैं... वो बाहर अपना काम कर रहे हैं वो भी ऐसे मौसम में जब अपनी रजाई से निकलकर एक ग्लास पानी पीने के लिए भी मुझे सौ बार सोचना पड़ा था... घडी की तरफ देखा तो ७ बज चुके थे, दफ्तर तो १० बजे निकलना है ये सोच कर वापस रजाई में दुबक गया.. लेकिन नींद आखों के पैमाने से छलक कर कहीं दूर जा चुकी थी... मैं खुद में बहुत छोटा महसूस कर रहा था... ज़िन्दगी के कैनवास पर कई रंग छिड़क चुके हैं लेकिन फिर भी कहीं न कहीं कोई अधूरापन ज़रूर है मुझे पसंद नहीं आता.. कभी कभी ये आईडीयलिस्ट वाली फिल्में देखकर और नोबेल पढ़ के दिमाग दूसरी काल्पनिक सतहों पर काम करने लगता है... फिर उस समय मैं जो सब कुछ सोचता हूँ, कहता हूँ, लिखता हूँ उसे मेरे सभी दोस्त और जाननेवाले एक सिरे से खारिज कर दिया करते हैं... ये सब बातें उन्हें बकवास लगती हैं... फिर थोड़ी देर बाद उस कल्पनिद्रा से बाहर आने पर मुझे भी एहसास होता है शायद कुछ चीजें वास्तविक नहीं हो सकतीं...
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याद है जब कल सुबह मैं तुमसे मिला था, हमने एक साथ बैठ के कितनी ढेर सारी बातें की... तुम्हें अपने उस सपने के बारे में भी बताया जिसमे तुम्हारे नहीं होने के कारण मैं कितना बेचैन हो गया था... अभी अभी थोड़ी देर पहले मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारा यूँ मेरे साथ बैठना एक सपना था और तुम्हारी गैरमौजूदगी एक हकीकत.. सच ही तो है कभी-कभी सपने और हकीकत में फर्क करना कितना मुश्किल हो जाता है...
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सुबह बाहर गहरा कोहरा था, सड़क पर सूखे पत्ते ओस की बूंदों से लिपटे ठिठुर रहे थे... मैंने खिड़की से झाँका तो देखा, सुबह सुबह कचरे उठाने वालों के अलावा कोई नहीं था... ऐसा लगा उनकी ज़िन्दगी की शेल्फ के हिस्से यूँ ही सड़कों पर खुले रखे हैं... वो बाहर अपना काम कर रहे हैं वो भी ऐसे मौसम में जब अपनी रजाई से निकलकर एक ग्लास पानी पीने के लिए भी मुझे सौ बार सोचना पड़ा था... घडी की तरफ देखा तो ७ बज चुके थे, दफ्तर तो १० बजे निकलना है ये सोच कर वापस रजाई में दुबक गया.. लेकिन नींद आखों के पैमाने से छलक कर कहीं दूर जा चुकी थी... मैं खुद में बहुत छोटा महसूस कर रहा था... ज़िन्दगी के कैनवास पर कई रंग छिड़क चुके हैं लेकिन फिर भी कहीं न कहीं कोई अधूरापन ज़रूर है मुझे पसंद नहीं आता.. कभी कभी ये आईडीयलिस्ट वाली फिल्में देखकर और नोबेल पढ़ के दिमाग दूसरी काल्पनिक सतहों पर काम करने लगता है... फिर उस समय मैं जो सब कुछ सोचता हूँ, कहता हूँ, लिखता हूँ उसे मेरे सभी दोस्त और जाननेवाले एक सिरे से खारिज कर दिया करते हैं... ये सब बातें उन्हें बकवास लगती हैं... फिर थोड़ी देर बाद उस कल्पनिद्रा से बाहर आने पर मुझे भी एहसास होता है शायद कुछ चीजें वास्तविक नहीं हो सकतीं...
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याद है जब कल सुबह मैं तुमसे मिला था, हमने एक साथ बैठ के कितनी ढेर सारी बातें की... तुम्हें अपने उस सपने के बारे में भी बताया जिसमे तुम्हारे नहीं होने के कारण मैं कितना बेचैन हो गया था... अभी अभी थोड़ी देर पहले मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारा यूँ मेरे साथ बैठना एक सपना था और तुम्हारी गैरमौजूदगी एक हकीकत.. सच ही तो है कभी-कभी सपने और हकीकत में फर्क करना कितना मुश्किल हो जाता है...
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ये दूरियों का गणित है, दूरियां ग़मों से,
दूरियां उस बेचैनी से, दूरियां हर उस चीज से जो तुम्हें इस खूबसूरत दुनिया
की नजदीकियों का एहसास करने से रोक लेती हैं हर एक बार... जब ठंडी हवा के
हलके हलके थपेड़े तुम्हारे होंठों की मुस्कराहट बनना चाहते हैं, जब ये हलकी
हलकी बारिश उन आखों की नमी को छुपाने की कोशिश करती नज़र आती है, जब कभी
कभी तुम्हारा दिल भी एक मुट्ठी आसमान मांगता है... इस गणित से आज़ाद होकर
चलो वहां, जहाँ एक उड़ान तुम्हारा इंतज़ार कर रही है...
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जब हम खुद को अपने आप से आज़ाद कर लेते हैं तो
सुकून के ऐसे दौर में पहुँचते हैं जहाँ उस महीन सी आवाज़ को भी सुन लेते हैं
जब ओस की बूँदें घास से टकराती हैं...इन आवाजों से मैं तुम्हें भी रूबरू
कराना चाहता हूँ... ये ऐसी जगह है जहाँ कुछ भी सही नहीं, कुछ भी गलत नहीं
बस एक लापरवाह सी आजादी है...
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मेरे एक हिन्दू मित्र ने मुझसे पुछा था कि मैं भगवान् को क्यूँ नहीं मानता...????
मैंने उससे बस इतना ही पूछा क्या तुम अल्लाह, ईसा या नानक को मानते हो... कभी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ी है, या कभी चर्च में जाकर प्रेयर में शामिल हुए हो ????
मैं भगवान् के इस वर्गीकरण को नहीं मानता.... भगवान् अगर मन में है तो उसका एक रूप होना चाहिए.... भगवान् का अस्तित्व मन से बाहर निकालकर मंदिर, मस्जिद या और किसी इमारत में बसाने का विरोध मैं करता आया हूँ और हमेशा करता रहूँगा....
मैंने उससे बस इतना ही पूछा क्या तुम अल्लाह, ईसा या नानक को मानते हो... कभी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ी है, या कभी चर्च में जाकर प्रेयर में शामिल हुए हो ????
मैं भगवान् के इस वर्गीकरण को नहीं मानता.... भगवान् अगर मन में है तो उसका एक रूप होना चाहिए.... भगवान् का अस्तित्व मन से बाहर निकालकर मंदिर, मस्जिद या और किसी इमारत में बसाने का विरोध मैं करता आया हूँ और हमेशा करता रहूँगा....
बस एक नूर ही बसता वहाँ, दीन-दुनिया फ़क़त आइना !!!!
ReplyDeleteबढ़िया लिखे हो रे !!!!
अब तो बढ़िया लिखते रहने की आदत हो गयी है... :-P By d Way.. Thankz... :-)
Deleteप्रभावी अभिव्यक्ति, प्रवाहमयी..
ReplyDeleteगहन एहसास ....
ReplyDeleteअच्छा लिखा है ...!!
सबसे पहले एक शिकायत की पिछली पोस्ट में टिप्पणी का विकल्प क्यों बंद था , दुसरो की कविताओ की तो सविस्तार अर्थ बताया गया जब अपनी बारी आई तो .. :)
ReplyDeleteइस आयु में इतनी गंभीरता क्यों, कविता तक ठीक है, किन्तु उसके बाद ये गंभीरता , कभी कभी ज्यादा गंभीर रहने और हर चीज को ज्यादा गहरे से देखने सोचने से जीवन निरस सा होने लगता है , कहते है यदि ज्यादा सैड संग सुनो तो मन दुखी रहता है डिप्रेशन आ जाती है , दिलीप कुमार का किस्सा तो पता ही होगा , हमेसा खुश और खुश मिजाज रहना चाहिए , ऐसा मेरी निजी राय है :)
कई सारे लोग हैं जो अक्सर कहते हैं की अपनी उम्र के हिसाब से ज्यादा गंभीर हूँ... मैं भी ये मानता हूँ मैं मामूली से मामूली बातों को बहुत गंभीरता से लेने लगता हूँ... लेकिन क्या करूँ मैं ऐसा ही हूँ... कोशिश करता हूँ खुश रहने की और ऐसा नहीं है कि मैं खुश नहीं रहता....बहुत खुश रहता भी हूँ, लेकिन जब भी कुछ खटकता है चाहे दिल में या दिमाग में उसे लिखने का शौक है.. बस उसी शौक का अगला पड़ाव है ये ब्लॉग...
Deleteरोचक प्रस्तुति ...
ReplyDeleteघर की याद आ गयी ... और अभी तो बस 3 ही महीने हुए है मुझे घर से निकले ...
ReplyDeleteBetta re...bada hi gehra type likh daale ho bt badhiya h :)
ReplyDelete:-)
Deleteअब मुझे अपना लिखना ही बेकार सा लगने लगा है, तुम्हारी पोस्ट पर.. हमेशा एक ही बात लिखता हूँ.. जितनी अस्सानी से हम तुम्हारा लिखा पढ़ लेते हैं उतनी ही आसानी से अगर उस घटना के विष को धारण करना पड़े तो इंसान नीलकंठ हो जाए..
ReplyDeleteतो हे पुत्र नीलकंठ! बाहर निकालो उन पुरानी यादों से.. कुछ न कुछ कारण रहा होगा उन घटनाओं का या फिर उससे जुड़े लोगों को स्वयं सोचने दो.. उन्होंने भी तो बहुत कुछ खोया ही होगा.. और क्या कहूँ, ये भी तो नहीं कह सकता गाल पर एक चपत जमाकर कि बहुत हो गया, कम ऑन!!
ऐसी बात नहीं है चाचू.. आपका लिखा कुछ भी बेकार नहीं है... आपके मिलने के बाद से बहुत कुछ बदला है ज़िन्दगी में... बस ये तो कभी कभी जब मन उदास सा होता है तो लिख देता हूँ.... आप हमेशा खुश भी तो नहीं रह सकते न... वैसे भी कई सारी पुरानी बातों ने मेरी ज़िन्दगी पर काफी असर डाला है.. वो असर जाते जाते ही जायेगा, पता नहीं कब... और आप जरूर एक चपत लगा सकते हैं, शायद यही चपत लगाने वालों की कमी है ज़िन्दगी में तभी इतना बिगड़ गया हूँ न.....
Deleteसच ही है ....हर मूड अलग ही है
ReplyDeleteअलग जगह प्रषित विचारों को एक साथ पढकर बहुत अच्छा लगा. यह सब गंभीर सोच का ही परिणाम हो सकता है.
ReplyDeleteये कुछ कतरें...जिंदगी के हर फलसफ़े को बयां करती हुई...|
ReplyDeleteManjula Singh जी ने फेसबुक पर लिखा...
ReplyDeleteपढ़कर ऑंखें भर आई मेरे दोनों बच्चे भी जब छोटे थे इसी तरह मेरा इंतज़ार किया करते थे, एक शाम जो कभी भूल नही सकी.. एक बार कुछ देर हो गयी थी आने मे तो दोनों बाउंड्री वाल पर चढ़कर बैठे थे क्युकी वहां से दूर तक नज़र आता था..अभी कुछ बड़े हो गए है १७ & १९ , तो भी कभी कभी लगता है कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोया है.
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Manjula Singh ·
लिखते बहुत ही अच्छा हो , ऐसे ही लिखते रहो शुभकामनाये.