ज़िन्दगी में दोस्तों का होना कितना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी... कोई
फोर्मलिटी वाले दोस्त नहीं, दोस्त ऐसे जिन्हें दोस्ती की बातें पता हो...
मोनाली की भाषा में कहूं तो "गंवार" (अच्छे लोगों को वैसे भी गंवार ही कहा
जाता है आज कल), जिसके लिए दोस्ती कोई समझौता नहीं... एक ऐसी जगह जहाँ जाकर
आप अपने दिल की सभी बातें कर सकते हैं... एकदम खुल कर के बिना मन में ये
डर रखे कि कहीं वो किसी बात का कोई गलत मतलब न निकाल ले या फिर किसी और के
सामने आपकी बातें डिस्कस न करे (अच्छी या बुरी कोई भी)... मुझे हमेशा से ही
ऐसे किसी दोस्त का साथ चाहिए होता है, पता नहीं क्यूँ... शायद मैं कमज़ोर
हूँ, खुद को खुद तक समेट कर नहीं रख पाता... हर इंसान की अपनी एक आवाज़
होती है, लेकिन एक अच्छा दोस्त अपने साथ आवाजों का पूरा लश्कर लेकर आता
है... लेकिन आज कल आस पास ऐसा कोई भी नहीं दिखता जिससे ढेर सारी बातें कर
सकूं... अपने मन की बातें... सब व्यस्त हैं... हालांकि ये उम्र ही ऐसी है,
जहाँ मेरे सारे हमउम्र कहीं न कहीं व्यस्त तो होंगे ही...
कल रात बहुत देर तक यूँ ही पार्क में बैठा रहा, आस पास के लोगों को देखता रहा... ऐसा लग रहा था मानो मैं किसी सड़क के डिवाईडर पर खड़ा हूँ जिसके दोनों तरफ तेज़ी से भागती हुयी गाड़ियां हों और जिसके अन्दर पसरा हुआ सन्नाटा... जैसे कहीं फंस कर रह गया हूँ... वहां खड़े खड़े एक गर्द सी जम जाती है, न जाने कितनी गर्द... जब काफी देर तक किसी से खुल कर बात न करो तो अजीब सी घुटन होने लगती है अन्दर ही अन्दर... जैसे ये अवसाद, ये अकेलापन, ये घुटन, ये आंसू सब एक दूसरे के समानुपाती हो गए हैं...
बस बेवजह ही उदास हुआ जा रहा हूँ, मेरी ये बेवजह की उदासी शायद मेरे अन्दर कहीं न कहीं तह लगाकर बैठ चुकी है... ये एक अवसाद की तरह है मेरे लिए, ऐसे जैसे किसी ने जख्म दिए और उसपर कई सारी जिद्दी मक्खियाँ छोड़ दी हों ... मेरे अन्दर ये किसी अंधे कुवें की तरह उतर आया है.. हर वक़्त एक अजीब सी खलिश, अजीब सा अकेलापन...सच में कभी कभी छुट्टी बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती ऐसा लगता है कोई काम ही नहीं, इससे अच्छा तो ऑफिस ही खुला रहा करे...
ये कोई ब्लॉग पोस्ट नहीं है ये बस एक रुदन है, एकालाप है... इसे एकालाप ही रहने दें... कमेन्ट बक्सा बंद है क्यूंकि कभी कभी हमदर्दी भी कांच की किरचों की तरह चुभन देती है...
कुछ दिनों पहले ऐसे ही कुछ लिखा था...
वो खामोश रहता था,कल रात बहुत देर तक यूँ ही पार्क में बैठा रहा, आस पास के लोगों को देखता रहा... ऐसा लग रहा था मानो मैं किसी सड़क के डिवाईडर पर खड़ा हूँ जिसके दोनों तरफ तेज़ी से भागती हुयी गाड़ियां हों और जिसके अन्दर पसरा हुआ सन्नाटा... जैसे कहीं फंस कर रह गया हूँ... वहां खड़े खड़े एक गर्द सी जम जाती है, न जाने कितनी गर्द... जब काफी देर तक किसी से खुल कर बात न करो तो अजीब सी घुटन होने लगती है अन्दर ही अन्दर... जैसे ये अवसाद, ये अकेलापन, ये घुटन, ये आंसू सब एक दूसरे के समानुपाती हो गए हैं...
बस बेवजह ही उदास हुआ जा रहा हूँ, मेरी ये बेवजह की उदासी शायद मेरे अन्दर कहीं न कहीं तह लगाकर बैठ चुकी है... ये एक अवसाद की तरह है मेरे लिए, ऐसे जैसे किसी ने जख्म दिए और उसपर कई सारी जिद्दी मक्खियाँ छोड़ दी हों ... मेरे अन्दर ये किसी अंधे कुवें की तरह उतर आया है.. हर वक़्त एक अजीब सी खलिश, अजीब सा अकेलापन...सच में कभी कभी छुट्टी बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती ऐसा लगता है कोई काम ही नहीं, इससे अच्छा तो ऑफिस ही खुला रहा करे...
ये कोई ब्लॉग पोस्ट नहीं है ये बस एक रुदन है, एकालाप है... इसे एकालाप ही रहने दें... कमेन्ट बक्सा बंद है क्यूंकि कभी कभी हमदर्दी भी कांच की किरचों की तरह चुभन देती है...
कुछ दिनों पहले ऐसे ही कुछ लिखा था...
ख़ामोशी बहने लगी थी
उसके खून के साथ
उसकी कोशिकाओं में समा गयी थी जैसे....
कभी कभी उसका दिल करता था
अपने हाथ के नाखूनों से
खुरच दे सारा बदन
महसूस करे उस दर्द को
और उस बहते खून के साथ
आज़ाद हो जाए उसकी खामोशियाँ भी....