वो अजीब सा दिन था... उस दिन सिर्फ तुम्हारे कपडे ही नहीं बल्कि साथ ही साथ
मेरा ज़मीर भी चीथड़े-चीथड़े होकर बिखर गया... काफी देर तक अपने शरीर से आती
हुयी पुरुषत्व की बदबू महसूस की थी मैंने, खुद के ऊपर लज्जा आ रही थी, खुद
के पुरुष होने पर ही तो.... वैसे भी अब ऐसा बचा ही क्या है एक पुरुष के पास
जिसपर वो गर्व कर सके... उसके बाद न ही मैं कुछ सोच सका और न ही कुछ लिख
ही सका.. ऐसा लगा जैसे अपने अन्दर का ये ज़ख्म मुझे खोखला कर चुका है.. ज़ख्म
बढ़ता रहा, और आज जब इस ज़ख्म का मवाद इतना कचोट रहा है तो कुछ यूँ ही,
जिससे शायद मन शांत हो सके...
ऐसा पाखंडी है ये तत्वहीन समाज, एक तरफ औरत को जननी कह कर पूजता है और एक तरफ, उसके जननांग से अपनी कभी न ख़त्म होने वाली भूख मिटाने को आतुर रहता है... सारे लोग, सारी भीड़ उन 6 लोगों को सजा देने की मांग कर रहे हैं... पर केवल उन्हें ही क्यों, उन्होंने ऐसा क्या अलग कर दिया जो हम नहीं करते, हमारा ये कथित बुद्धिजीवी समाज नहीं करता... बलात्कार तो सभी करते हैं, हमारा समाज करता है... फर्क इतना है कि उस दिन उसके शरीर के साथ हुआ और ऐसे आये दिन उसके वजूद, उसके अस्तित्व के साथ बलात्कार होता है...
बलात्कार पर कोई भी बहस करने से पहले क्या किसी ने जाना है कि इसका अर्थ क्या होता है.. मैंने जानने की कोशिश की, कि आखिर बलात्कार का अर्थ क्या है...
ऐसा पाखंडी है ये तत्वहीन समाज, एक तरफ औरत को जननी कह कर पूजता है और एक तरफ, उसके जननांग से अपनी कभी न ख़त्म होने वाली भूख मिटाने को आतुर रहता है... सारे लोग, सारी भीड़ उन 6 लोगों को सजा देने की मांग कर रहे हैं... पर केवल उन्हें ही क्यों, उन्होंने ऐसा क्या अलग कर दिया जो हम नहीं करते, हमारा ये कथित बुद्धिजीवी समाज नहीं करता... बलात्कार तो सभी करते हैं, हमारा समाज करता है... फर्क इतना है कि उस दिन उसके शरीर के साथ हुआ और ऐसे आये दिन उसके वजूद, उसके अस्तित्व के साथ बलात्कार होता है...
बलात्कार पर कोई भी बहस करने से पहले क्या किसी ने जाना है कि इसका अर्थ क्या होता है.. मैंने जानने की कोशिश की, कि आखिर बलात्कार का अर्थ क्या है...
- बलात् या हठपूर्वक कोई काम करना...
- विशेषतः किसी या दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना...
- पुरुष द्वारा किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक धमकाकर या छलपूर्वक किया जानेवाला संभोग...
बचपन के 4-5 साल बीतने के साथ ही उसे तरह तरह की बातें सिखाई जाती हैं, उसे ये नहीं करना चाहिए, उसे ऐसा नहीं पहनना चाहिए, उसे किससे बात करनी है किससे नहीं... शाम को देर से नहीं निकलना और भी पता नहीं क्या क्या ??? यहाँ तक कि उसे अपनी मनपसंद की पढाई करने की भी इजाज़त नहीं मिल पाती हमारे कथित 21वीं सदी के कई शिक्षित माता-पिताओं से... अगर किसी को ये लग रहा हो कि ये अब गुज़रे ज़माने कि बात है तो मैं अभी के अभी 10 परिवार अपने आस पास के गिना सकता हूँ जहाँ का बेटा किसी महंगे कॉन्वेंट पढता है और बेटी किसी छोटे अंग्रेजी स्कूल में, दलील ये कि वो किसी एक की ही फीस भर पाने में सक्षम हैं... जब तक एक लड़की इस दुनिया को समझ पाने के लायक बनती है तब तक उसके साथ कई-कई बार बलात्कार हो चुका होता है... बलात्कार उसके सपनों का, उसकी इच्छाओं का उसके अरमानों का...
आपको क्या लगता है वो 6 लोग कहीं आसमान से टपके हैं, जो हम सब पूरा झंडा ऊंचा करके उनकी फांसी की मांग करने में लग गए.. अरे वो यहीं से हैं आपके आस पास.. कहीं न कहीं हमारे अन्दर... सड़क पर किसी लड़की के साथ चल कर देखिये... सड़कों किनारे खड़े कई लोग आँखों से बलात्कार करते नज़र आयेंगे... ऐसे घूरेंगे जैसे अभी 5 मिनट के लिए दुनिया पॉज हो जाए तो बस... उन भूखी, लार टपकाती हुयी नज़रों के खिलाफ क्या कोई कानून बनाया जा सकता है... ?? उन्हीं 100 घूरते लोगों में से 1 किसी दिन इतना गिर जाता है जो ऐसा कुकृत्य करता है... लेकिन मेरे हिसाब से दोषी वो 1 नहीं पूरे 100 हैं.. सब के सब बलात्कारी हैं, मानसिक बलात्कारी.. जो बार बार एक लड़की के वजूद पर चोट करते हैं.. उस लड़की को सड़क पर नज़र झुका कर चलने पर मजबूर करते हैं जैसे उसने घर से निकल कर कोई गुनाह कर दिया हो...हम काँटों के झाड़ को दोष दे रहे हैं, उसको ख़त्म करने की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता इस झाड़ के फैलने से पहले ही उसे काट दें, बलात्कार का मतलब केवल सम्भोग करना ही नहीं है वो हर काम है जो किसी लड़की की मर्ज़ी जाने बिना या उसकी मर्ज़ी के खिलाफ किया जाए... सिर्फ तन का भक्षण करना ही नहीं बल्कि मन का भक्षण भी बलात्कार है...
kash ham sab apne apndar jhank payen, aur khud ko badal payen...
ReplyDeleteसही है, वस्तुतः उन कारणों पर चिंतन करना होगा, जो ऐसी मानसिकता की पूरी कम्यूनिटि खडी करने के मूल कारक है।
ReplyDeleteये कांटे पनप ही ना सकें तो इन्हें काटने की जरुरत ही नहीं होगी...
ReplyDeleteकाश आपके जैसे विचार ऐसी भावना हर इंसान में आ जाये, फिर किसी कानून किसी सजा की जरुरत ही ना हो...काश...काश...काश
ये कांटे पनप ही ना सकें तो इन्हें
ReplyDeleteकाटने की जरुरत
ही नहीं होगी...
काश आपके जैसे विचार
ऐसी भावना हर इंसान में आ
जाय
सहमत हूँ.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
आपने अधिकांश पुरुषों की स्त्रियों के प्रति मानसिकता और विचारों का सटीक खुलासा किया है ,लेकिन यह भी सच है कि
ReplyDeleteकिसी दूसरे के मन में किसी के भी प्रति आने वाले विचारों ,भावों को आप या कोई और तो रोक नहीं सकते ..हाँ बचपन से ही
पाठशाला और आसपास के माहौल की शिक्षा ," मुख्यत:माँ बाप और परिवार द्वारा दिए जारहे संस्कार व परवरिश ही
"स्वत:मन व दिमाग को रोक सकते हैं ,कानून तो अपराध होने के बाद शिकायत मिलने पर काम कर पायेगा
एकदम सहमत हूँ.
ReplyDeleteवत्स शेखर!!
ReplyDeleteसबसे पहले तो शीर्षक पर मेरी आपत्ति दर्ज़ करो.. "बलात्कार का मतलब केवल सम्भोग करना नहीं है.." वत्स, बलात्कार का अर्थ केवल क्या किसी भी कोण से सम्भोग नहीं है. सम्भोग एक पवित्र क्रिया और बलात्कार एक अपिशाचिक वृत्ति..
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खजुराहो के मंदिर की बाहरी दीवार पर बनी संभोगरत मूर्तियां इस बात की प्रमाण हैं कि जो व्यक्ति सम्भोग में ही अटका रहेगा वह मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता. मंदिर में प्रवेश पाने के उनसे ऊपर उठाना पडता है.. इसलिए यह शीर्षक मुझे उपयुक्त नहीं लगा..
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माता-पिता द्वारा संतानों के जिस बलात्कार की बात तुमने की है मैं उससे शत-प्रतिशत सहमत हूँ.. लेकिन उसमें पुत्र और पुत्री का भेद नहीं.. सेक्स को इतनी वर्जनाओं में रखा गया है शुरू से कि वह विकृति के रूप में फूटकर निकल रहा है.. तुमने मवाद की बात कही है ना, जब घाव अंदर ही अंदर नासूर बना हो तो बहुत तकलीफ देता है.. उस घाव के मवाद को बहा दो तो तुरत आराम मिल जाता है.. सेक्स को हमारे समाज में इतनी वर्जनाओं में रखा गया है कि वह नासूर बनकर रह गया है, जब जिसे मौक़ा मिलता है मवाद बनकर बह निकलता है..
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एक सर्वेक्षण के अनुसार जो समाज जितना सभ्य होता है वहाँ विश्याओं की संख्या उतनी ही अधिक होती है.. किसी आदिवासी समाज में विश्याएं नहीं पाई जातीं और वहाँ किसी ने विषया शब्द भी न सुना होता है..
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हमारी परवरिश ने हमें पढ़ा-लिखा तो बना दिया है, मगर हम रहे आज भी दकियानूसी के दकियानूसी.. मेरे परिवार में अगर कभी मैं अपनी पत्नी के कंधे पर हाथ रखकर या कभी उन्हें बाहों का घेरा बनाकर टीवी देख रहा होता हूँ और अचानक मेरी बेटी कमरे में दाखिल हो जाती है तो मैं सकपकाकर अलग नहीं हो जाता, ताकि उसे अस्वाभाविक न लगे..
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बाकी की जितनी भी बातें तुमने कही हैं उनसे तो मैं भी सहमत हूँ और उस पीड़ा से अभी तक मुक्त नहीं पाया हूँ.. मुझे सिर्फ उन लोगों की दरिंदगी पर ही आक्रोश नहीं है, बल्कि इस शासनतंत्र, न्यायतंत्र, पुलिसतंत्र, सारे तंत्रों पर है.. इन सबों ने मिलकर ही ऐसे हैवान पैदा किये हैं.. वास्तविक अपराध तो इन तंत्र ने मिलकर किया है, जिनकी शह की खाद पाकर उन छः दरिंदों की विषबेल आज सिर उठा पाई. अगर इनके सिर अभी भी कुचल न दिए गए, तो ऐसी और भी बेलें पनपेंगी और इनसे ज़्यादा ज़हरीली होंगी!!
फिलहाल तो आपकी पहली आपत्ति दर्ज करते हुए पोस्ट के शीर्षक में थोडा बदलाव कर दिया है अब शायद ये उपयुक्त लग रहा होगा... बाकी टिपण्णी का जवाब रात को देने की कोशिश करूंगा... अभी तो किचन में थोडा व्यस्त हूँ...
Deleteअब बदलाव की जरुरत है, मन से और आत्मा से ...तभी सोच बदलेगी
ReplyDeleteप्रभावी !!
ReplyDeleteजारी रहें।
शुभकामना !!
आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़ )
balatkaar ki sateek paribhasha di hai aapne..ab samy hai apni soch me badlav karne ki.
ReplyDeleteएक बहुत ही सटीक व जानकारी भरी पोस्ट ..और इस जानकारी को सही ढंग से प्रयोग भी किया ...सार्थक भी हैं।
ReplyDeleteसहमत हूँ आप की बात से, किन्तु समाज का कितना बड़ा तबका आप की बात से सहमत होगा और उसे समझेगा , पता नहीं ।
ReplyDeletebahut atik
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूँ आपकी इस बात से ...यहाँ पर मैं कुछ कहना चाहती हूँ, ये जो लोग कहतें हैं समाज ... हमारा समाज ...तो फिर क्यों है इतना घिनौना समाज ?? आज इस बात पर लाखों लोग खड़े हो गए कि न्याय करो ...हम खुद क्यों नहीं न्याय करते। ऐसा नहीं है की ये पहली बार हुआ है, हमारे हिन्दुस्तान में रोज न जाने ऐसे कितने किस्से होतें हैं, तो फिर क्यों नहीं होता उन सबके साथ न्याय। अगर हम चाहें तो खुद कर सकते हैं न्याय :
ReplyDeleteपहली बात तो ऐसे गुनहगारों को पकड़ कर सजा दो या दिलवाओ न कि उनको बचाओ (ऐसे बहुत केस हैं जिनमें माँ -बाप , और भाई बंधू गुनहगारों को बचाने पहुँच जाते हैं )
ऐसे लोगों को समाज में क्यों इज्ज़त मिलनी नहीं बंद हो जाती, इतना घिनौना अपराध करने के बाद वो हमारे ही बीच उठते बैठतें हैं, और सजा उसे मिलती है जिसका कोई दोष नहीं।
सोचने को मज़बूर करता बहुत सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteमानसिक क्रूरता की पराकाष्ठा है..
ReplyDeleteलोहड़ी, मकर संक्रांति और माघ बिहू की शुभकामनायें.
ReplyDeleteसटीक,,,, सोचने को विवश करती
ReplyDeleteसुन्दर लेख ..
लोहड़ी व मकरसंक्रांति की शुभकामनाएँ !
एक तरह की मानसिक-विकृति का परिणाम होता है बलात्कार | तुम्हारा जो शीर्षक है, वही इंडियन पीनल कोर्ट १८६० का भी कहना है की किसी भी ऐसे शारीरिक सम्बन्ध , जिसमे किसी एक भी पार्टनर की सहमति न हो , को बलात्कार कहा जाता है | इस परिभाषा में रखोगे तो अपनी सोसाइटी के बहुत से कृत्य बलात्कार की श्रेणी में आते हैं | पर जब उनपर से आँख बंद कर ली जाती है तो जो बातें खुलकर आती हैं, उसपर भी लोगो का रवैया उदासीन ही हो जाता है | जो ज़रुरत है , वो क़ानून कड़े-से-कड़े करने के साथ , जागरूकता बढाने की भी है |
ReplyDeleteबेहद खराब शीर्षक
ReplyDeleteअनुपयुक्त ...
मगर बढ़िया लेख...
सतीश जी, मेरी पोस्ट का मतलब ही यही है कि बलात्कार का मतलब केवल जबरदस्ती शारीरिक सम्बन्ध बनाना ही नहीं बल्कि जबरदस्ती किये जाने हर उस कृत्य से है जो नाजायज है...
Deleteफिर भी चूंकि इस शीर्षक पर कई आपत्तियां हैं तो मुझे भी इसे बदलने पर शायद सोचना चाहिए...
मैं सहमत हूँ
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