कुछ नहीं है, कुछ भी तो नहीं है...
बस अँधेरा है, छितरा हुआ,
यहाँ, वहाँ.. हर जगह...
काले कपडे में लिपटी है ये ज़िन्दगी
या फिर कोई काला पर्दा गिर गया है
किसी नाटक का...
इस काले से आसमान में
ये काला सूरज
काली ही है उसकी किरणें भी
चाँद देखा तो
वो भी काला...
जो उतरा करती थी आँगन में
अब तो वो
चांदनी भी काली हो गयी है...
उस काले आईने में
अपनी शक्ल देखी तो
आखों से आंसू भी काले ही गिर रहे थे..
डर है मुझे, कहीं इस बार
गुलमोहर के फूल भी तो
काले नहीं होंगे न....
बस अँधेरा है, छितरा हुआ,
यहाँ, वहाँ.. हर जगह...
काले कपडे में लिपटी है ये ज़िन्दगी
या फिर कोई काला पर्दा गिर गया है
किसी नाटक का...
इस काले से आसमान में
ये काला सूरज
काली ही है उसकी किरणें भी
चाँद देखा तो
वो भी काला...
जो उतरा करती थी आँगन में
अब तो वो
चांदनी भी काली हो गयी है...
उस काले आईने में
अपनी शक्ल देखी तो
आखों से आंसू भी काले ही गिर रहे थे..
डर है मुझे, कहीं इस बार
गुलमोहर के फूल भी तो
काले नहीं होंगे न....
यह काला (अँधेरा) जल्दी चला जाए तो बढ़िया ...
ReplyDeleteनहीं, गुलमोहर खिलेगा और अपनी लालिमा बिखेरेगा....
ReplyDeleteनया सूरज उगेगा...आस खोना नहीं बस..
सस्नेह
अनु
:(
ReplyDeleteशुभकामनायें शेखर ...
ReplyDeleteरात घिरी रहेगी तो सब रंग काले पड़े रहेंगे।
ReplyDeleteखूबसूरत पंक्तियां और सुंदर भाव बिटवा ......जारी रहो
ReplyDeleteसुंदर भाव ... लगे रहो !
ReplyDeleteबाल श्रम, आप और हम - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Shekharji, aapke blog me behad apnaapan mehsoos hota hai. likhte rahiye. yah akulaahat ham sabhie ke mann me hai par sab ise shabdo me nahi baandh paa rahe hai
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteगुलमोहर के फुल की लालिमा आपके जिन्दगी को
रंगीन करे...
शुभकामनाएं...
:-)