Sunday, January 12, 2014

बेवजह...

हथेलियों पर धान की कुछ
अधपकी बालियाँ उभर आई हैं,
जब पलटता हूँ उन्हें तो
वो बालियाँ अलफाज बन उतर आती हैं...
*******
एक गुलाबी सा शहर है
उसकी उल्टी-पुल्टी सड़कों पर
सपनों मे बेवजह की रेत लिखता हूँ
और उड़ा देता हूँ हर सुबह...
*******
आड़े-तिरछे खयालों में
ज़िंदगी के झरोखों से
कुछ नीली धूप आ जाती है,
उस धूप में पका देता हूँ अपने आप को....
*******
डूबते सूरज के पीछे
एक लंबी कतार देखता हूँ
ये भीड़ अगर थोड़ी जगह
मुझे भी दे तो
एक प्याला नारंगी रंग मैं भी कैद कर लूँ...
*******
कुछ-एक साल पहले
इक अनजानी सड़क के
नो-पार्किंग के बोर्ड के नीचे
अपने कुछ सपने पार्क कर दिये थे,
इसके जुर्माने में अपनी पूरी ज़िंदगी
चुका कर आया हूँ....


6 comments:

  1. बेहद सुन्दर लिखा गया है यह... बेवजह!
    वाह!

    ReplyDelete
  2. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति शेखर भाई - आभार.

    ReplyDelete
  3. सुकून देता है ख़्वाबों का ये आवारापन ...
    लाजवाब पल ...

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,लोहड़ी कि हार्दिक शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
  5. सपनों को समेटिये और आश्रय की छाँव ढूढ़िये श्रीमानजी, वजह लाहिये जीने की।

    ReplyDelete

Do you love it? chat with me on WhatsApp
Hello, How can I help you? ...
Click me to start the chat...