कागज़ के उस मुड़े-तुड़े पन्ने पर
याद तुम्हारी रुकी हुयी है....
न तुमसे मोहब्बत है,
न ही कोई गिला रहा अब,
फिर भी न जाने क्यूँ
नमी तुम्हारे नाम की अब भी
मेरी आखों में रुकी हुयी है....
कुछ दरका, कुछ टूटा जैसे
दिल का जैसे सुकून गया था,
माज़ी की उस मैली चादर पे
खुशबू उस शाम की अब भी
इन साँसो पे रुकी हुयी है...
जलाए कितने पन्ने
अपनी कहानियों के लेकिन,
वो कसक तेरे अब न होने की,
कितनी नज़मों मे रुकी हुयी है...
कागज़ के उस मुड़े-तुड़े पन्ने पर
याद तुम्हारी रुकी हुयी है....
याद तुम्हारी रुकी हुयी है....
न तुमसे मोहब्बत है,
न ही कोई गिला रहा अब,
फिर भी न जाने क्यूँ
नमी तुम्हारे नाम की अब भी
मेरी आखों में रुकी हुयी है....
कुछ दरका, कुछ टूटा जैसे
दिल का जैसे सुकून गया था,
माज़ी की उस मैली चादर पे
खुशबू उस शाम की अब भी
इन साँसो पे रुकी हुयी है...
जलाए कितने पन्ने
अपनी कहानियों के लेकिन,
वो कसक तेरे अब न होने की,
कितनी नज़मों मे रुकी हुयी है...
कागज़ के उस मुड़े-तुड़े पन्ने पर
याद तुम्हारी रुकी हुयी है....
लाजवाब कविता!
ReplyDeleteरुकी रहने दो यादों को कि ये रूह है जो शरीर से जुड़ी हुई है...
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