मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कहीं इधर-उधर के कई नुक्कड़ों पर थोड़ा थोड़ा सा छूट सा गया हूँ... मेरे द्वारा लिखा हुआ सब कुछ, मेरे उस वक़्त का पर्यायवाची है... मुझे पर्यायवाची शब्द शुरू से ही पसंद नहीं आते, जाने कितने ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ एक जैसे होते हैं लेकिन हर शब्द हर जगह उपयोग नहीं किया जा सकता... हिन्दी व्याकरण में मुझे अनेक शब्दों के एक शब्द बहुत पसंद था, तुम्हारा मेरी ज़िंदगी में होना भी अनेक शब्दों का एक शब्द है...
तुमने जितने छल्लों में बांटकर मुझे ये वक़्त दिया है न, कलेंडर की कई तारीखों के कोनों में फंसा हुआ वो वक़्त टूथपिक से निकालना पड़ता है.. हो सके तो हर शनिवार इन छल्लों को मिलाकर एक पुल बना दिया करो न इस जहां से उस जहां तक...
मैं तुम्हारी आखों को
शब्दों में लिखता हूँ,
मेरी नज़मों में तुम
इश्क़ पढ़ती हो...
सच, तुम्हारी आखें ही इश्क़ हैं,
जिनमें खुद के गुमशुदा हो जाने की
रपट लिखवा दी थी मैंने पाँच साल पहले ही..