Sunday, April 9, 2017

आधे-आधे सपने...

ये तस्वीर बस यूँ ही... :)
मेरी लिखी हर नज़्म
एक कचिया है,
हर शाम की तन्हाई के खेत में
उपज आई लहलहाती फसल को जो काट देती है
हर सुबह...

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मैं ऊब जाना चाहता हूँ
इस दुनिया से हमेशा के लिए
पर ऊब नहीं पाता...
मैं डूब जाना चाहता हूँ
कहीं किसी समंदर में
पर डूब नहीं पाता...
ऐसी चाहतें
ट्यूबवेल के नीचे लगे पत्थर
पर जमी कजली है...

****************

हर रात एक रेल की पटरी है
जिसपर मैं हर रात 2 से 4 बजे के बीच
सपनों की ट्रेन चलाता हूँ,
मेरे सपने इन दिनों,
पैसेंजर ट्रेन की यात्रा करते हैं,
हर छोटे हाल्ट-स्टेशनों पर रुकते हुए...
कभी-कभी मेरी नींद
अपनी गति बढ़ा कर
किसी हाल्ट तो लांघ दे तो
वो सपने उतर जाते हैं ट्रेन से
एक झटके में जंजीर खींचकर...

3 comments:

  1. बहुत खूब ...कुछ लम्हे जिंदगी के लिखे हैं जैसे ...

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन परमवीर - धन सिंह थापा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. आपकी ये लाइनें पढ़कर मैं थोड़ा सोच में पड़ गया, क्योंकि आप तन्हाई और बेचैनी को इतने ईमानदार तरीके से लिखते हो कि सब कुछ सामने जीवित सा लगने लगता है। मैं आपकी बातों में वो थकान भी महसूस करता हूँ और वो जिद भी, जो इंसान को चलाए रखती है।

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