मैं बार बार खुद से यही सवाल पूछता हूँ कि क्या मैं अतीतजीवी हूँ, और जवाब हमेशा ना ही आता है, अतीत में क्या हुआ उससे मुझे शायद ही फ़र्क़ पड़ता हो... लेकिन उस अतीत जी सीख आगे काम आती है... अतीत में आए बवण्डरों ने भले ही इन गंदले खंडहरों में कुछ नहीं छोड़ा लेकिन इन खंडहरों के आँगन में एक पौधा मैं हमेशा उगाता रहा हूँ... मुझे इन ओस की बूदों से अब भी उतना ही प्यार है जितना पहले था, मैं आज भी पहाड़ों को अपना दिल दे बैठता हूँ, आज भी मुझे दूसरों के ख़्वाबों में ही रंग भरने का शौक़ है... फिर ये भी है कि आख़िर क्या बदला है, और इसका उत्तर मुझे भी नहीं पता... बदलने को तो कुछ नहीं बदला, कुछ नहीं बदलता... इस लॉक्डाउन ने ये भी सिखाया कि कैसे हमें नए रूप-रंग के यूज़्ड टू होने में नहीं के बराबर वक़्त लगता है... यही सामान्य लगने लगता है... मैं तो जैसे बहुत कुछ भूल चुका हूँ, अगर कुछ याद है तो बस मेरी पुरानी कहानियों के दो किरदार...
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मेरे पास एक शहर है, उस शहर के बाहर बस रेत ही रेत है, कभी दिल करता है उसमें जाकर अपने कुछ ख़्वाब रोप दूँ... भले ही ख़्वाब अधूरे हों लेकिन इस बंजर रेत से बेहतर तो वो अधूरे ख़्वाबों का जंगल ही होगा... जब कभी बारिश होगी तो उस जंगल का मुहँ पलट कर रख दूँगा, पेड़ों की फुनगी पे पानी बहेगा और जड़ों में बादल अटक ज़ाया करेंगे... उल्टे-पुल्टे ख़्वाबों का हश्र भी उल्टा ही होना तय किया था मैंने कभी....
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काला एक बेहद खराब रंग है, खामोशी एक खराब शब्द, sad songs खराब टैस्ट और उदासी एक खराब सा दौर... मैं इस बाबत हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहा हूँ... लोगों के सवाल मेरे जानिब आते रहते हैं कि मैं इतना उदास सा क्यूँ लिखता हूँ, मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होता... मुझे भी नहीं पता कि मैं इतने उदास रुत का लेखक क्यूँ हूँ... ऐसा नहीं है कि मैंने इश्क़ पर नहीं लिखा, या खुशमिजाजी बिलकुल ही गायब रही हो मेरे सफहों से... पर उदास सा कुछ सोचकर उसे लिखते हुये मैं बहुत गहरे उतर जाता हूँ, इतना गहरा कि जैसे खुद वो सब कुछ जी रहा हूँ... मेरी इस उदास सी शै के बीच मैं खुश भी होता हूँ... उदास सा लिख कर भी खुश होता हूँ, और जब हद्द से ज्यादा खुश हूँ तो फिर उदास सा कुछ लिखता हूँ.... उदासी, तनहाई मेरी ज़िंदगी में आती रही है, हर किसी के ज़िंदगी में आती होगी.... बस मैं उसे कुछ घड़ी रोक कर उसे अपनी diary में उतार देता हूँ.... मेरी उदासी सिर्फ मेरे हर्फ में है, ज़िंदगी से उसे हमेशा दूर करता रहा हूँ मैं....
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बारिश... बैंगलोर की बारिश... एक एक टपकती बूँद से इश्क़ हुआ था कभी... पहली बार जब कुछ दिनों के लिए आया था तो अप्रैल का महीना ही था शायद, चिलचिलाती गर्मी के बीच शाम को हुई उस बारिश ने जैसे किसी मोहपाश में जकड़ लिया और हमेशा के लिए यहाँ आ गया... 2011 से 2020 तक का ये सफ़र, ऐसे जैसे कल ही की बात है... इस बीच कितना कुछ हो गया, लगता है अभी सो के उठा हूँ और वो सब कुछ शायद ख़्वाब था, जैसे कोई भ्रम... अभी एहसास हुआ कि गुलमोहर खिल गए होंगे, पर इस बार देख पाऊँगा या नहीं पता नहीं.. अब गुलमोहर में उतना इंट्रेस्ट रहा भी नहीं... बैंगलोर और उसकी बारिश, मुझे मालूम है ताउम्र ये बारिश अपनी सोन्धी ख़ुशबू के साथ बहुत कुछ याद दिलाती रहेगी... कुछ लोगों के मिलने से लेकर उनसे बिछड़ने तक का सफ़र...
अच्छी रचना
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