स्याह रातें आएँगी,
खूब डराएँगी
पर रुकना क्यूँ है...
होगा अंधेरा घना
अनजानी आवाज़ें आएँगी
पर रुकना क्यूँ है...
बंजर हो ज़मीन
रेत जलाएँ पग को
चुभें भले काँटे
लथपथ हो रक्त से
पर रुकना क्यूँ है...
पिछले रास्ते कैसे थे
आगे के कैसे हों
डर कितना भी हो मन में
पर रुकना क्यूँ है...
मुमकिन है कि
मंज़िल ना मिले
चलने से भी
क़िस्मत तेरी राख हो भले
आग पे चल कर भी
पर रुकना क्यूँ है...
खूब डराएँगी
पर रुकना क्यूँ है...
होगा अंधेरा घना
अनजानी आवाज़ें आएँगी
पर रुकना क्यूँ है...
बंजर हो ज़मीन
रेत जलाएँ पग को
चुभें भले काँटे
लथपथ हो रक्त से
पर रुकना क्यूँ है...
पिछले रास्ते कैसे थे
आगे के कैसे हों
डर कितना भी हो मन में
पर रुकना क्यूँ है...
मुमकिन है कि
मंज़िल ना मिले
चलने से भी
क़िस्मत तेरी राख हो भले
आग पे चल कर भी
पर रुकना क्यूँ है...
सच चलना ही जिंदगी का नाम है जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिली क्या खाक चलेंगे
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
बहुत खूब .
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