Friday, September 11, 2020

फकैती वाले दिन (2)...

जब व्यस्त था
वो मज़दूर
हमारे बीच एक
ऊंची दीवार बनाने में,
हमने बदल लिए थे बिस्तर... 

एक संदूक रख छोड़ा था 
तुम्हारे वाले हिस्से में, 
उस संदूक में 
जितनी मेरी याद बची है 
मैं उतना ही ज़िंदा हूँ.... 

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याद नहीं मुझे 
अपनी पहली मौत, 

मेरी आखिरी मौत से पहले 
मुझे एक बार और जला देना... 

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मुझे नहीं पता फर्क 
रेत और पानी का,
कवितायें लिखनी है 
मुझे इंसानों और मछलियों पर.... 

मुझे रहना है 
मछलियों के घर में 
अपने गलफड़ों से सांस लेते हुए, 
पकड़नी है मछलियां 
फेंककर रेत में जाले को...  
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