धीरे-धीरे बातों का दायरा बढ़ता गया। लिखने-पढ़ने से शुरू हुआ रिश्ता हर विषय तक पहुँच गया। नौकरी की खोज पर चर्चा, शादी की बधाइयाँ, कोविड के दिनों की बातें, गार्डनिंग के अनुभव, यहाँ तक कि बिल्कुल निजी उलझनों तक। वो हमेशा सुनने और समझने वाली थीं। उनके साथ बातचीत में कभी औपचारिकता नहीं रही, हमेशा एक अपनापन रहा।
मुझे याद है कोविड के दिनों में जब दुनिया ठहर-सी गई थी, हम लोग बगीचे और पौधों को लेकर बहुत बातें करते थे। वो अपने गार्डन की तस्वीरें साझा करतीं और कहतीं कि “पौधे भी इंसान जैसी संगत चाहते हैं।” उनके शब्दों में हमेशा एक सुकून होता था, जैसे कोई थकी हुई साँस को ठहरने की जगह मिल गई हो।
जब मैं नौकरी के उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था, तो उन्होंने सबसे पहले भरोसा दिलाया था कि “काम आते-जाते रहते हैं,” उस समय उनकी यह बात बहुत हिम्मत देने वाली थी।
पिछले साल जब बीमारी की खबर मिली तो चिंता हुई। लेकिन उनकी हिम्मत देखकर लगा कि वो इस जंग को भी जीत लेंगी। धीरे-धीरे वो ठीक भी हो रही थीं। यहाँ तक कि बेंगलुरु भी आईं। हमने मिलने की योजना बनाई थी, पर हमेशा की तरह टालते रहे कि “अगली बार मिलेंगे।” अगली बार हमने तय किया था कि बर्ड फोटोग्राफी पर साथ चलेंगे।
दुर्भाग्य से वो अगली बार कभी नहीं आ पाई।
इस साल मैं सोशल मीडिया पर उतना सक्रिय नहीं था। कल अचानक उनकी वॉल पर गया और पता चला कि वो इस साल फरवरी में ही चली गईं। और मुझे अब जाकर खबर मिली। यह जानकर अंदर तक झटका लगा।
इतना लंबा रिश्ता, इतनी सारी बातें और यादें, और इतनी चुपचाप उनका जाना। यकीन करना मुश्किल है। मन बार-बार उसी अधूरे वादे पर अटक जाता है—एक मुलाक़ात, जो अब कभी नहीं हो पाएगी।
रश्मि दी सिर्फ़ बातचीत का हिस्सा नहीं थीं, वो हर उस छोटे-बड़े पल में मौजूद हैं जहाँ हमने कभी बात की थी। कभी नौकरी की चिंता में, कभी ब्लॉगिंग की चर्चाओं में, कभी बगीचे के फूलों की तस्वीरों में, तो कभी उन रंग-बिरंगे परिंदों की उड़ानों में।
अब लगता है कि उनसे किया हुआ हर संवाद, हर सलाह, हर हँसी मेरे भीतर ही रह गई है। वो चली गई हैं, लेकिन उनका अपनापन और उनका असर हमेशा बना रहेगा।
विश्वास ही नहीं हो रहा कि अब उनसे कभी बात नहीं होगी।
इतने सालों तक जब-तब बात हो जाती थी। कभी किसी पोस्ट पर कमेंट, कभी किसी मैसेज में हालचाल। वो अक्सर पूछ लेतीं — “सब ठीक है न?” और मैं बेफिक्र होकर लिख देता था “हाँ, सब ठीक।” आज वही साधारण-सा सवाल भी कितना कीमती लग रहा है।
अब न वो मुझे किसी फेसबुक पोस्ट में टैग करेंगी, न किसी फोटो पर हँसते हुए इमोजी डालेंगी, न किसी छोटी-सी लाइन से हौसला देंगी। उनकी उपस्थिति हमेशा सहज थी, बिना शोर-शराबे के, पर इतनी गहरी कि अब उनकी अनुपस्थिति असहनीय लग रही है।
मन कहता है कि कुछ लिख दूँ, कुछ कह दूँ… पर कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पर ख़त्म ?
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