बस धीरे-धीरे टपकती है छतों से,
जैसे कोई पुराना खत फिर से भीग गया हो।
हवा में नमी है, मगर बेचैनी नहीं,
जैसे मौसम ने खुद को समझा लिया हो
कि अब जाना भी है, पर अभी नहीं।
पेड़ों पर चिपकी पत्तियाँ
थोड़ी थकी-सी लगती हैं,
फिर भी हर बूँद को अपनाने से इंकार नहीं करतीं।
सड़कें चमक उठती हैं,
मानो उन्होंने भी किसी पुराने वक़्त को देखा हो,
जो लौटकर नहीं आएगा,
पर उसकी खुशबू अब भी मिट्टी में बसी है।
और मैं…
खिड़की के पास बैठा
कॉफ़ी की भाप में सुकून ढूँढता हूँ,
सोचता हूँ,
कितना अजीब होता है ये मौसम —
कुछ लौटाता नहीं,
पर सारे लम्हें
संजोये बैठा रहता है ...
आपकी अभिव्यक्ति मन छू जाती है।
ReplyDeleteसादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १४ अक्टूबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर
ReplyDeleteअक्तूबर की बारिश कुछ ऐसी ही है, जाने का नाम नहीं ले रही, जैसे डरती हो, अगले साल पता नहीं कब आने को मिले
ReplyDeleteभावनाओं का ठहरी रुकी - रुकी बारिश मन तो है इसे बाँध लूँ
ReplyDeleteबहुत सटीक, सामयिक...
ReplyDeleteलाजवाब सृजन
बेहतरीन
ReplyDeleteअक्टूबर की बारिश में एक अजीब-सा ठहराव होता है, न पूरी विदाई, न पूरी मुलाक़ात। आपने जिस तरह पुराने खत और मिट्टी की खुशबू को जोड़ा है, वो बिल्कुल दिल के बीचोंबीच उतरता है। मैं भी ऐसे मौसम में कॉफ़ी लेकर बस चुप हो जाता हूँ, जैसे समय खुद धीमे कदमों से चल रहा हो।
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