जहाँ समय भी धीरे चलने लगता है।
न वहाँ सुबह की हड़बड़ी है,
न शाम की चिंता।
बस एक ख़ामोश हवा है —
जो माथे के पसीने को छूकर पूछती है,
"अब और कितना भागोगे?"
वहाँ न कोई लक्ष्य है,
न कोई इनाम की आस।
बस ज़मीन की ठंडक है,
जो याद दिलाती है
कि कभी तुम इसी मिट्टी से उठे थे —
और एक दिन यहीं लौटना है।
थकान के उस पार,
ज़िंदगी का मतलब बदल जाता है —
सफलता नहीं, सुकून असली मंज़िल लगती है।
लोग नहीं, लम्हे मायने रखते हैं।
और जो बात पहले बोझ लगती थी,
अब बस एक कहानी बनकर रह जाती है।
वहाँ कोई दौड़ नहीं है,
कोई प्रतिस्पर्धा नहीं —
बस एक शांत आत्मा है,
जो कहती है,
“अब बस रहो…
क्योंकि रुकना भी ज़रूरी है।”

हम रोज़ भागते रहते हैं, जैसे कोई अदृश्य स्टॉपवॉच हमें तंग कर रही हो। लेकिन यहाँ तुमने जिस “ठहराव” की बात की है, वो बड़ा सच्चा लगता है। मैं उस पल को महसूस करता हूँ जहाँ इंसान बस साँस लेता है, बिना किसी मंज़िल की चिंता के।
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