Thursday, October 9, 2025

सिगरेट पीती लड़की...

वो शहर की उस पुरानी बालकनी में खड़ी थी — वही बालकनी जहाँ से सड़क की लाइटें कभी पूरी नहीं दिखती थीं, और नीचे से आती गाड़ियों की आवाज़ें एक थकी हुई लोरी सी लगती थीं। रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे थे, हवा में अक्टूबर की ठंडी नमी थी, और दूर कहीं किसी पेड़ की शाखों से टपकती बारिश का पानी अब भी ज़मीन पर गुनगुना रहा था।

हाथ में सिगरेट थी — जली नहीं थी अभी तक। उसने उसे उंगलियों के बीच ऐसे थामा था जैसे कोई अपने ही दिल की धड़कन को पकड़ना चाहता हो।
थोड़ी देर तक वो उसे देखती रही — “कितना आसान है न किसी चीज़ को जला देना… पर मुश्किल तब होती है जब खुद में कुछ जलाना पड़े।”

उसने एक गहरी सांस ली, सिगरेट को होंठों तक लाया और एक धीमा सा कश लिया। धुआँ ऊपर उठा, फिर हवा में घुल गया — जैसे उसकी ज़िंदगी के वो सारे पल जो कभी लौटकर नहीं आने वाले थे।
कभी किसी ने कहा था उससे —
“लड़कियाँ सिगरेट नहीं पीतीं, ये अच्छी बात नहीं लगती।”
वो हँसी थी उस दिन —
“सिगरेट बुरी चीज़ है, पर लोगों के तंज़ उससे भी ज़्यादा जहरीले होते हैं।”

असल में, उसे सिगरेट पसंद नहीं थी — वो बस एक वजह थी खुद से मिलने की। दिनभर की हड़बड़ी, काम, रिश्तों के सवाल-जवाब, सब थम जाते थे उस छोटे से धुएँ में। जब तक सिगरेट जलती, उसे लगता, दुनिया रुक गई है थोड़ी देर के लिए।
वो धुएँ में अपने डरों को देखती थी — वो जो किसी ने नहीं देखे।
कभी किसी रिश्ते का टूटना, कभी अपने ऊपर बढ़ता सन्नाटा, कभी वो सवाल जो जवाब मांगते नहीं थे, बस चुभते रहते थे।

एक वक्त था जब उसे बारिश से प्यार था — भीगना अच्छा लगता था। पर अब, बारिश होते ही वो बस बालकनी में खड़ी हो जाती थी — जैसे डरती हो कि कहीं कोई याद फिर से भीग कर न लौट आए।
वो जानती थी कि ये सब गलत है — ये सिगरेट, ये देर रात की बातें, ये अपने आप से बहसें।
लेकिन उसे ये भी पता था कि जिंदगी की हर चीज़ सफ़ेद या काली नहीं होती। कुछ धुएँ के रंग की भी होती हैं, जो न पूरी साफ़ होती हैं, न पूरी गंदी — बस बीच में होती हैं, जैसे उसकी अपनी कहानी।

कभी-कभी सोचती — “काश कोई पूछे कि तुम क्यों पीती हो सिगरेट?”
वो कहती, “क्योंकि हर बार इसे बुझाते हुए मैं एक चिंता बुझाती हूँ, एक बोझ जलाती हूँ, और थोड़ी देर के लिए खुद को महसूस करती हूँ।”

उसने राख झटकते हुए देखा — रात और भी गहरी हो चुकी थी। नीचे सड़क पर दो बच्चे अपने स्कूटर से लौट रहे थे, हँसते हुए। वो मुस्कुरा दी — “अच्छा है, किसी की रात अब भी इतनी हल्की है।”

उसने सिगरेट का आखिरी कश लिया और धीरे से कहा —
“चलो, अब बस… आज के लिए इतना जलना काफी है।”

फिर उसने लाइट बंद की, पर्दा गिराया और खामोशी में लौट गई —
कभी की गई हर बात, हर मोह, हर शिकायत अब धुएँ की तरह उड़ चुकी थी,
बस एक खुशबू बाकी रह गई थी — राख की नहीं, खुद की पहचान की।

5 comments:

  1. बेहद भावपूर्ण, गहन ,मन बहुत देर तक इसी चरित्र के आस-पास उलझा रहा।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० अक्टूबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. मार्मिक चित्रण... सुन्दर

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  3. मार्मिक!! बोझ जलाने का भ्रम ही होता है, चिंता बुझाने की भ्रांति ही, क्योंकि अगले दिन वे फिर वहीं खड़े मिलते हैं

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  4. वह सिगरेट नहीं पी रही, वह अपनी थकान, अपने सवाल, अपनी चुप्पी को थोड़ी देर सांस लेने दे रही है। मुझे यह बात बहुत गहरी लगी कि वो धुआँ बहाना नहीं, एक ठहराव है। हम सब कभी न कभी ऐसे ही खुद से मिलने के बहाने ढूंढते हैं। कोई चाय में, कोई संगीत में, कोई खिड़की से बाहर देखते हुए।

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