Sunday, August 19, 2012

एक बात जो कहनी है तुमसे ...

जाने क्यूँ अतीत का ये पन्ना इतना बेचैन सा है, हर शाम हवा के धीमे से थपेड़े से भी परेशान होकर फडफडाने लगता है... आज उस पन्ने को खोलते हुए एक सुकून सा लग रहा है...
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वो पल अक्सर ही मेरी आखों के सामने आ जाया करता है, जब तुम्हें पहली बार देखा था... उस समय तक तो तुम्हारा नाम भी नहीं जानता था, ये भी नहीं कि तुम्हारी ज़िन्दगी के ये खुरदुरे से खांचे मुझे अपने पास खींच ले जायेंगे... उस समय तक तुम मेरे लिए बस एक ख्याल थीं, बस एक चेहरा जिसपर मैंने उस दिन उतना ध्यान भी नहीं दिया था... बात आई-गयी हो गयी थी... यूँ कभी तुम्हारे बारे में कभी कुछ सोचा भी नहीं... फिर पता नहीं कैसे वो चेहरा मेरे ख्यालों के इतना करीब आ गया कि उसने मेरे सपने में दस्तक दे दी... न ही ये आखें वो सपना भूल सकती हैं और न ही उसमे दिखती तुम्हारी वो रोती हुयी भीगी पलकें... अगली सुबह मैं भी बहुत बेचैन सा हो गया था, सोचा जल्दी से तुम्हें एक झलक बस देख भर लूं, कहीं तुम कोई जानी पहचानी तो नहीं.... काफी देर तक याद करता रहा कि कहीं तुम्हें पहले देखा तो नहीं... अपनी ज़िन्दगी की किताब को लफ्ज़-दर-लफ्ज़ सफहा-दर-सफहा पलटता रहा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था, तुम तो बिलकुल नयी सी थी मेरी ज़िन्दगी में... फिर अचानक से तुम्हारा ये चेहरा भला क्यूँ मेरे आस-पास से गुजरने लगता है...
सोचा अगले दिन तुमसे बात करूंगा, तुमसे तुम्हारा नाम पूछूंगा... लेकिन इतनी हिम्मत जुटा पाना शायद मुश्किल ही था... तुम अब एक पहेली ही थी मेरे लिए... बस आते जाते नज़रें चुराकर तुम्हें देख भर लिया करता था, अब तक तो तुम्हारा नाम भी पता चल गया था... और भी बहुत कुछ समझने की कोशिश करता रहता था... पता नहीं ये मेरा भ्रम था या और कुछ लेकिन मुझे तुम्हारे आस -पास दूर तक पसरा हुआ एकांत नज़र आता था... जैसे अकेले किसी अनजान से सफ़र पर हो... लगता था जैसे तुम्हें किसी दोस्त की ज़रुरत हो, मैं तुम्हारे उस एकांत को अपनी दोस्ती से भर देना चाहता था...
वो रातें अक्सर उदास होती थीं, उनमे न ही वो सुकून था और न ही आखों के आस पास नींद के घेरे... बस गहरा सन्नाटा था... हर सुबह उठकर बस तुम्हें एक झलक देख भर लेने की हड़बड़ी... तुम जैसे मुझसे नज़रें बचाना चाहती थी, हमेशा दूर-दूर भागते रहने की कोशिश... तुम्हारी ज़िन्दगी में पसरे उस एकांत और उदासियों का हाथ पकड़कर मैं तुम्हारे शहर से कहीं दूर छोड़ आना चाहता था... तुम्हें ये बतलाना चाहता था कि नींद आखिर कितनी भी बंजर क्यूँ न हो उसपे कभी न कभी किसी सुन्दर से ख्वाब का फूल खिलता ज़रूर है... तुम्हारी इन परेशान सी पलकों तले तुम्हारे लिए खूबसूरत ख्वाबगाह बना देना चाहता था... पर अब तक तुमने मुझे इसकी इजाजत नहीं दी थी...
मेरे दोस्त इसे कोई प्रेम कहानी समझने की भूल कर बैठे थे, उस समय तक तो मैं तुम्हें जानना भर चाहता था, तुम्हारी ज़िन्दगी की दरो-दीवार पर लिखे चंद लफ्ज़ पढना चाहता था... एक तड़प सी थी, एक बेचैनी... ठीक वैसे ही जैसे कोई चित्रकार अपने सामने पड़े खाली कैनवास को देखकर बेचैन हो उठता है... तुम्हारे अन्दर उस उदास, तन्हा इंसान में अपने आप को देखने लगा था... मैं किसी भी तरह तुम तक पहुंचना भर चाहता था...
हाँ ये सच है कि उस समय तक मुझे तुमसे प्यार नहीं था, लेकिन प्यार से भी कहीं ज्यादा मज़बूत एक धागा जुड़ गया था तुम्हारी ज़िन्दगी के साथ... जैसे एक मकसद, एक ख्वाईश.... तुम्हें हमेशा खुश रखने की, तुम्हें दुनिया की सारी खुशियाँ देने की... किसी का ख़याल रखने और उसको हमेशा खुश देखने की किस परिधि को प्यार कहते हैं ये मुझे कभी समझ नहीं आया... लेकिन तुम्हारे सपनों को सहेजते सहेजते बहुत आगे निकल गया... जब इस बात का एहसास हुआ तब अचानक ही जैसे आस-पास सब कुछ थम सा गया... काफी देर तक कमरे में खामोशियाँ चहलकदमी करती रहीं... गौर से अपनी ज़िन्दगी की सतहों पर देखा तो उनपर तुम्हारे नाम का प्यार अनजाने में ही पसर चुका था... मुझे तुमसे प्यार हो गया था, तुम्हारे बिना जीने की सोच से भी डर लगने लगा था...मेरे पास खुश होने की कई वजहें थीं लेकिन मैं उदास था... उदास इसलिए कि अब तुम्हें खो देने का डर सता रहा था....

17 comments:

  1. ज़िंदगी का यही इक्वेशन किसी की समझ में नहीं आता है.. यहाँ आधे और आधे मिलकर भी आधूरे ही रह जाते हैं!!
    कुछ बात है तुम्हारे लिखने में, जो चीखती है, मगर कहीं वो चीख दबी हुई मालूम पड़ती है!! कम ऑन!! स्पीक आउट लाउड!!
    /
    एक सुधार.. लफ्ज़-दर-लफ्ज़ पलटना नहीं, वरक-दर-वरक या सफहा-दर-सफहा.. :)

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    1. आई वांट टू स्पीक लाउड ... लेकिन इतना बोलना भी बहुत हिम्मत से हो पाता है... लिखता रहूँगा, बोलता रहूँगा...
      गलती सुधार लिए हैं... :-)

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    2. अपनी बेटी वर्तिका श्रीवास्तव की एक नज़्म ख़ास तुम्हारी बात पर तुम्हारे साथ शेयर कर रहा हूँ:
      /
      कहीं पढ़ा था
      "लफ्जों के दांत नहीं होते,
      पर काटते हैं,
      और काट लें
      तो फिर उनके ज़ख्म
      उम्र भर नहीं भरते!"

      पर तुम्हारी खामोशी...
      वो तो काटती भी नहीं,
      बस घुल जाती है,
      रूह में,
      और घुलते घुलते
      घो़लती रहती है धीरे धीरे,
      मुझे भी, अपने भीतर,
      किसी अम्ल के मानिंद!
      /
      सौरी वत्स, बच्चों के लिए अपने अंदर एक अलग सी ही फीलिंग है!!

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    3. बहुत सुन्दर सलिल जी....बिटिया ने कोई ब्लॉग बना रखा है क्या???
      हमारा स्नेह उन्हें.
      अनु

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    4. वो खामोश रहता था,
      ख़ामोशी बहने लगी थी
      उसके खून के साथ
      उसकी कोशिकाओं में समा गयी थी जैसे....
      कभी कभी उसका दिल करता था
      अपने हाथ के नाखूनों से
      खुरच दे सारा बदन
      महसूस करे उस दर्द को
      और उस बहते खून के साथ
      आज़ाद हो जाए उसकी खामोशियाँ भी....

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  2. बहुत सुन्दर शेखर.....
    बल्कि मुझे लगता है तुम्हारी ये दबी हुई हसरतों की चीखें ज्यादा शिद्दत से महसूस की जा सकती हैं.......
    बेहतरीन लेखन...
    अनु

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    1. पहले जब मैं उदास होता था, परेशां होता था...तब सब कुछ अपने अन्दर ही ख़त्म कर देता था... फिर मैंने लिखना शुरू किया... डायरी के पन्नों से होते हुए ब्लॉग तक के सफ़र में कितनी ही दबी चीखें हैं जो रुक रुक कर बाहर आती हैं... मुझे लिखने में कोई ख़ास रुचि नहीं है लेकिन सब से कुछ बाँट लेने के बाद सुकून सा महसूस करता हूँ...

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  3. उहापोह जीवन का तत्व न ले डाले।

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  4. बहुत खूब..भावनाएँ कहाँ छुपती हैं!

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  5. kya batau ki apne kaisa likha hai......beautifully written...with feel in every word

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  6. शेखर,
    शायद एक अरसे बाद पढ़ा है तुम्हे, पुराना ब्लॉग खो गया था ना! ये पोस्ट है........ पोएट्री इन प्रोज़!
    उम्दा........!
    आशीष ढ़पोरशंख
    --
    द टूरिस्ट!!!

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  7. Bohot hi sundar post...aur salil ji ki kavita ne maza dugna kar diya :)

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  8. बहुत ही उम्दा लेखन...भावनाओं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा हों|
    खासकर ये पंक्तियाँ-
    "हाँ ये सच है कि उस समय तक मुझे तुमसे प्यार नहीं था, लेकिन प्यार से भी कहीं ज्यादा मज़बूत एक धागा जुड़ गया था तुम्हारी ज़िन्दगी के साथ... जैसे एक मकसद, एक ख्वाईश.... तुम्हें हमेशा खुश रखने की, तुम्हें दुनिया की सारी खुशियाँ देने की..."

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  9. बहुत ही उम्दा लेखन...भावनाओं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा हों..|
    खासकर ये पक्तियाँ-
    "हाँ ये सच है कि उस समय तक मुझे तुमसे प्यार नहीं था, लेकिन प्यार से भी कहीं ज्यादा मज़बूत एक धागा जुड़ गया था तुम्हारी ज़िन्दगी के साथ... जैसे एक मकसद, एक ख्वाईश.... तुम्हें हमेशा खुश रखने की, तुम्हें दुनिया की सारी खुशियाँ देने की..."

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  10. Lajawaab! Na mile to paane ki zidd aur paakar kho dene ka darr!

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